Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 67
________________ नैषधीयचरिते . टीका-का-स्त्री निशि-रात्रौ स्वप्ने गतम् ( स० तत्पु० ) स्वप्न-प्राप्तम् न ददश = दृष्टवती मपितु सर्वाऽपि / का च गोत्रम् = नाम ( 'गोनं तु नाम्नि च' इत्यमरः ) तस्य स्खलितेव्यत्यये नाम भ्रान्ती इत्यर्थः, तम् = नलम् न जगाद कथयामास अर्थात् मर्तुः नाम्नि उच्चरितव्ये नलस्य नाम नोच्चारितवती ? अपि तु सर्वापि, का च वा रते-सुरते तदा०--सः-नलः प्रात्मास्वरूपं यस्य स तदात्मा (ब० वी० ) तस्य भावः तत्ता नलस्वरूपवत्तेत्यर्थः तया ध्यातः= 'चिन्तितः (तृ० तरपु० ) धवः पतिः ('पति-शाखि नरा धवाः' इत्यमरः) (कर्मधा० ) यया तथाभूता (ब० वी०) पति नक रूपेण ध्यात्वेत्यर्थः स्वस्य = आत्मन: मनोमवः= कामः तस्य उद्भवम् = उतिम् ( उमयत्र प० तत्पु० ) न चकार = कवतो रमणं न चक्र इत्यर्थः / अपि तु सर्वापि / / 30 / / __ व्याकरण-स्वप्नः=/स्वप् +जक ( भावे)। स्खलितम् =Vवल्+क्त (मावे ) / रतम्/रम् + (भावे ) / उद्भवः = उत् +Vs+अप ( भावे ) / हिन्दी--कौन स्त्री रात को स्वप्न में आये नल को नहीं देखती थो ? कौन स्त्री नाम की गलती में उस ( नल के नाम ) को नहीं बोल पड़ती थी ' उस ( नल ) के रूप में पति का ध्यान लगाये कौन स्त्री संभोग में अपना कामावेश व्यक्त नहीं करती थी 1 // 30 // टिप्पणी-नारायण के अनुसार यहाँ मुग्धा मध्यमा और प्रौढा-इन तीन प्रकार की नायिकाओं की ओर संकेत है। मुग्धा वेचारी प्रियतम का स्वप्न ही देखा करती है; मध्या के मुख में प्रतिक्षण उसका नाम चढ़ा रहता है और प्रौढा संमोग-रत रहा करती है। यहाँ तीनों वाक्यों में तीन काकु-वक्रोक्तियां है जिनकी परस्पर संसृष्टि है। 'भवो' 'भवम्' में छेकानुप्रास है। किन्तु मल्लिनाथ 'यहाँ भी स्वप्न में नल को देखने भादि का सभी स्त्रियों के साथ सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बनाया गया है, इसलिए यह असम्बन्धे सम्बम्धातिशयोक्ति है' ऐसा कहते हैं // 30 // श्रियास्य योग्याहमिति स्वमीक्षितुं करे तमालोक्य सुरूपया धृतः / विहाय भैमीमपदर्पया कया न दर्पण: श्वासमलीमसः कृतः // 31 // अन्वयः-तम् आलोक्य 'श्रिया अहम् अस्य योग्या ( किम् ? )' इति स्वम् ईक्षितुम् करे धृतः दर्पण: भैमीम् विहाय कया सुरूपया अपदर्पया ( सत्या ) श्वास-मलीमसः न कृतः ? टीका--तम-नलम् भालोक्य(चित्रादौ) दृष्ट्रा श्रिया कान्स्या सौन्दर्येणेत्यर्थ; अहम् भस्य-नलस्य योग्या=सदृशी अस्मि किम् इति शेषः इति हेतोः स्वम् = प्रात्मानम् ईक्षितुम् - द्रष्टुम् करे = हस्ते धृतः- स्थापितः दर्पणः = आदर्शः भैमीम् =मीमपुत्रोम् दमयन्तीम् विहाय%3D विनेस्यर्थः कया सुसुष्ठु रूपं यस्याः तया ( प्रादि ब० वी० ) अप० = अपगतः दर्पः = सौन्दर्यामिमानो यस्याः तथामूतया (प्रादि ब० ब्रो०) सत्या श्वासैः=दीर्घ निःश्वासैः मलीमसः मलिनः (तु. तत्पु०) न कतः अपि तु सर्वया कृत इत्यर्थः / अयं भावः मम सौन्दर्य नलसौन्दर्य-सदृशम् अस्ति न वेति यावत् वा कापि स्त्री स्वमुखं दर्पणे पश्यति तावत् तदसदृशं तत् दृष्ट्वा विषादे दीर्घनि: श्वासान् मुश्चन्ती स्वसौन्दर्यामिमानमपि जहाति / / 31 // . म्याकरण-विहाय-यह ल्यबन्त-जैसा रूप विना के अर्थ में प्रयुक्त निपात है। इसके योग में

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