________________ [ 23 ] आशीर्वाद अर्थ में तातङ् ( भवतात् , भवताम् ) होता है / यह बात इस श्लोक में कही गई है 'इह किमुषसि पृच्छाशंसिकिंशब्दरूप प्रतिनियमितवाचा वायसेनैष पृष्टः / 'मण पणिभवशास्त्रे तातडः स्थानिनौ का' विति विहिततुहीवागुत्तरः कोकिलोऽभूत् // ( 19660) चौथा अंग निरुक्त है, जो वेद-पुरुष का श्रोत्र-स्थानीय है और सभी शब्दों को अर्थानुसार निरुक्ति अथवा व्युत्पत्ति सुनना चाहता है। इसके भी श्रीहर्ष ने यत्र-तत्र संकेत दे रखे हैं। ढाक के पुष्प को 'पलाश' क्यों कहते हैं। उत्तर देते हैं-'स्फुटं पलाशेऽध्वजुषां पलाशनात्' (1184 ) अर्थात् वह विरहियों का पल = मांस खा जाता है, प्रियतमानों की कटुस्मृति में सुखाकर कौटा बना देता है / इसी तरह अशोक भी एक वृक्ष होता है जिसका फूल कामदेव के पाँच बाणों में प्राता है / कवि इस अव्युत्पन्न शब्द की निरुक्ति 'न शोको यत्रेति' करके इसका समन्वय इस प्रकार करता है कि अशोक वृक्ष बटोहियों के ऊपर काम द्वारा छोड़े जा रहे ( अपने ) फूलों के रूप में काम-बाणों को अपने सिर के ऊपर रोक लेता है और अपनी शरण में नीचे बैठे बटोहियों की रक्षा करके उन्हें अशोक= शोक-रहत कर देता है ( 11101 ), लेकिन कवि का यह निर्वचन हमारी समझ में नहीं आता, क्योंकि जो अशोक वियोगियों का भक्षक है काम का बाप है, वह रक्षक कैसे बन सकता है ? हमारे विचार से 'न शोको यस्य' यो व्युत्पत्ति ठोक बैठती हैं अर्थात् अशोक इसलिए अभोक है सैकड़ों बटोहियों के प्राण लेने पर भी उसे जरा भी शोक नहीं होता है उल्टी प्रसन्नता होती है / दम ऋषि के वरदान से राजा भीम के एक पुत्री और तीन पुत्र हुए। ऋषि के नाम की स्मृति बनाये रखने के लिए पिता ने सन्तानों के नाम क्रमशः दमयन्ती, दम, दान्त और दमन रखे। किन्तु दमयन्ती के सम्बन्ध में कवि को यह मान्य नहीं। बह इस नाम की व्युत्पत्ति 'भुवनत्रय सुध्रुवां कमनीयतामदं दमयतीति ( 2 / 18 ) करता है। इसी तरह एक शब्द 'अधर-बिम्ध' है जिसको व्युत्पत्ति प्रारम्भ से ही तत्पुरुष-प्रधान अर्थात् 'अधरो बिम्ब इव' की जाती आ रही है, किन्तु कवि को यह स्वीकार नहीं / वह दमयन्ती के अधर-बिम्ब को लेकर व्युत्पत्ति बहुव्रीहि-प्रधान अर्थात् 'अधरो निम्नः बिम्बो यस्मात्' कर गया है (2 / 24 ) / चन्द्रमा को द्विराज कहते हैं और वह इसलिए कि वह द्विजों-नक्षत्रों अथवा तारों का राजा ( नक्षत्रंशः ताराधिा) है परन्तु दमयन्ती के माध्यम से कवि इसका खण्डन कर देता है. वह द्विजसे दाँत अर्थ लेकर (क्योंकि दाँत दो-दो बार जमते हैं ) उससे दाँतों का राजा-दाढ लेते हैं। दाढ़ भो यमराज की। यदि चन्द्रमा सम-दाद नहीं, तो वह क्यों वियोगयों को चबा जाता है ? ( 4 / 72) / इस तरह अन्यत्र भी अर्थानुसार बहुत से शब्द-निर्वचन काव्य में आये हुए हैं। अब थोड़ा-पा कवि के छन्द और ज्योतिष शान को भी लीजिये। छन्द तो काव्य की गति होती है। उसके बिना काव्यशरीर खड़ा ही नहीं हो सकता। गिनती करने पर हमें नैषध में लगभग 20 १–'तुयोस्तातड्डाशिष्यन्यतरस्याम्' (71 / 35)