________________ [ 27 ] जहाँ तक काव्य के भाव-पक्ष का सम्बन्ध है, वह कलावादी सरणि में होता ही नहीं, यह बात नहीं। वह तो काव्य का अभिन्न अङ्ग है। क्यों नहीं होगा ? किन्तु हाँ, कलावादी उसे प्रमुखता नहीं देते हैं / फिर भी श्रीहर्ष ने भावपक्ष को भी अपेक्षाकृत अच्छा उजागर किया है। उन्होंने हृदयगत रति-नामक स्थायी भाव को लेकर उसकी विभावादि-सामग्री के संयोग से शृंगाररस का पूरा परिपाक दिखा रखा है / लौकिक भाषा में जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह साहित्यिकी भाषा में 'रति' और उसका परिपुष्ट आस्वाध रूप शृङ्गाररस कहलाता है। इसी शृङ्गार को साहित्यशास्त्री रसराजे नाम से पुकारते हैं, क्योंकि जीवन में जितनी व्यापकता प्रेम की है, उतनी दूसरे माव की नहीं। इसीलिए कवि ने इसे अङ्गी रस के रूप में अपना रखा है। 'प्रादौ वाच्यः स्त्रिया रागः पश्चात्पुं. सस्तदिङ्गितः' इस साहित्यिक रूदि के अनुसार पहले नायिका के हृदय में नायक के लिए प्रम का अंकुर उगता है जब वह पहले-पहल उसे देखता है राय वा उसके विषय में सुननी है। इसे 'चक्षगग' अथवा 'नयन पीति' ( आँखें चार होना ) कहते हैं, किन्तु 'पूर्वराग' को यह प्रथम अवस्था यहाँ कवि ने नायिका में नल के गुणश्रवण से बताई है। नल भी दमयन्ती के गुण सुनकर उसे चाहने लगता है। फिर तो कवि हाथ में सूची जैसे लेकर अपने विश्लेषणात्मक ढंग से नायक और नायिका को पूर्वराग की 'चक्षुराग, त्तिासंग, संकल्प, निद्राच्छेद, तनुता, विषनिवृत्ति, पानाश, उन्माद, मूर्छा और मृत्यु-इन दश काय-दशाओं के बीच में से क्रमशः गुजारता चला जाता है। मृत्यु से यहाँ मरणासन्नता अथवा मरण-प्रयत्न अभिप्रेत है, वास्तविक मृत्यु नहीं, क्योंकि वास्तविक मृत्यु में करुणरस हो जाता है। इस अन्तिम काम-दशा के सम्बन्ध में कवि नल के लिए 'लया नभः पुष्प्यतु कोरके।' (1 / 114 ) रूप में ईश्वर से उसके न होने हेतु प्रार्थना करता है जब कि दमयन्ती को वह नल के न मिलने पर 'ममाद्य तत्प्राप्तिरसुव्ययो वा' (3.82) अथवा 'हुताशनोबन्धनवारिकारितां निजायुषः तत् करवै स्ववैरिताम्' (135) के रूप में आत्मघात करने की स्थिति में ला देता है। इस तरह सभी दश कामदशाओं का अनिवार्य रूप से चित्रण, भले ही सभो नायकनायिकानों में वे सब हों न हो, इन कला-सरणि के कवियों में एक रूढ़ि ही समझिये। ___भारतीय प्रेम के सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय बात सामान्यतः यह भी है-'न विना विप्रलम्भेन संयोगो याति पुष्टताम्' अर्थात् संभोग का पूरा आस्वाद लेने हेतु प्रेम को पहले विप्रलभ्भ-वियोग की विकट घाटी के बीच में से गुजरना होता है। वियोग काम की ऐसी अग्नि है, जिसकी भट्टी में पड़कर प्रेम के ऊपर लगी वामना-रूपी मैल को परत भस्म हो जाती है / 'चक्षराग' में ही युगल का संयोग तो वासना होती है, जो शाीरिक आकर्षण तक ही बनी रहती है और बाद को नष्ट हो जाया करती हैं। इसके विपरीत प्रेम हार्दिक, स्थायी तत्व होता है। विरहाग्नि में तपा, कुन्दन-जैसा उज्ज्वल और शुद्ध बना हुआ प्रेम ही हमारे साहित्य में संयोग के उचित माना जाता है / कालिदास, बाण आदि कवियों ने अपने शृङ्गारिक चित्रों में ऐसा हो प्रेम अपनाया है। नल-दमयन्ती का प्रेम मी ऐसा ही है। वह अपनी दिव्य अग्नि-परीक्षा में उत्तीर्ण हो मधुर मिलन की ओर जा ही रहा था कि सहसा श्रीहर्ष वरुणादि को साथ लिये इन्द्र और बाद में कलि को मी