Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 35
________________ [ 30 ] इसमें श्रीहर्ष ने श्लेष-मुखेन सरस्वती द्वारा नल को यह स्पष्ट कहलवा दिया है कि "तुम्हाराचरित ( नैषध चरित ) लिखने वाले कवि के कण्ठ में मैं ऐसी वैदमी शैली की प्रेरणा भरती रहूँगी, जो (प्रसादादि ) गुणों की प्रास्थानी (आश्रय ), रीतियों में न अविदित अर्थात् प्रसिद्ध अपने भीतर (शृंगार बादि ) रसों से स्फीत ( समृद्ध ) तथा परोरम्भ और कोड़ा के आचरण ( प्रयोग ) से भरी होगी।" इसमें श्रीहर्ष ने अपने श्रीमुख से निज माषा-शैली बता दी है। नारायण ने परीरम्म से श्लेषालंकार और क्रीड़ा से वक्रोक्ति को लिया है / लेकिन हमारे विचार से क्रीड़ा शब्द यहाँ व्यापक अर्थ में है। वह अपने भीतर वक्रोक्ति ही नहीं प्रत्युत अनुपास, यमक आदि सारा ही वर्ण और शब्द. विलास समेटे हुये है / इस तरह श्रीहर्ष की वैदी शैली वाल्मीकि, कालिदास आदि द्वारा प्रयुक्त वैदों से बड़ी भारी विशेषता रखती है, कलावादी यह युग की वह अलंकृत शैली है, जिसमें वयं वस्तु की अपेक्षा वर्णन-प्रकार को महत्त्व दिया जाता है और काव्य का मुख्य अवलम्ब आत्मा नहीं प्रत्युत श्रोत्रेन्द्रिय बनी रहती है। इसमें शब्दालंकारों और अर्थालंकारों की भरमार रहती है / इसी कारण इसमें कृत्रिमता, प्रयास-साध्यता और मस्तिष्क-प्रधानता आई हुई रहती है। श्रीहर्ष ने शब्दालंकार और अर्थालंकार-दोनों का खुलकर प्रयोग किया है। अनुपास इनके व्यापक हैं कि बिरला ही कोई श्लोक होगा, जो इससे अछता रहा हो। वृत्त्यनुप्रास तो आप इनके हरेक श्लोक में आँख मीचकर बोल सकते हैं / निम्नलिखित श्लोक देखिये जगज्जयं तेन च कोशमक्षयं प्रणीतवाम्शेशवशेषवानयम् / सखा रतीशस्य ऋतुर्यथा वनं वपुस्तथालिङ्गदथास्य यौवनम् / / (1 / 19) यहाँ 'जगज्जयं में ज-ज का वृत्त्यनुप्रास 'जजयं शयं' में श्रत्यनुपास, 'शैश-शेष' में छेकानुप्रास, 'क्षयं, नयम्' 'वनं वनम्' में अन्त्यानुप्रास हैं / अन्तिम 'वनं वनम्' में अनम् , अन्त्यानुप्रास के साथ 'वनं वनं' में यमक का संकर भी बना हुआ है। अर्यालकार उपमा की संसृष्टि भी है / स्वतन्त्र यमक का भी एक उदाहरण लीजिये-. अवलम्ब्य दिदृक्षयाम्बरे क्षणमाचर्यरसालसंगतम् / , स विलासवनेऽवनीभृतः फनमैक्षिष्ट रसालसंगतम् // (2066) 'दिदृ' 'क्षक्ष' में वृत्त्यनुप्रास तथा 'वने वनी' में छेकानुप्राप्त की मी यमक के साथ संसृष्टि है। श्लेषालंकार में तो हर्ष का कहना ही क्या ? हमें ऐसा लगता है कि दमयन्ती को 'श्लेषकवेभवस्याः ' (2 / 69) कहता हुआ कवि व्यक्तिगत रूप से जैसे अपने को ही 'श्लेष कवि' बता गया हो। दमयन्ती के मुख से उस का नलविषयक अनुराग कवि ने श्लेष द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से किस तरह व्यक्त करवाया है-यह देखते ही बनता है। इनके श्लेष का महान् चमत्कार तो स्वयंवर के अवसर पर देखने को मिलता है जब दमयन्ती के आगे ‘पश्चनलो' आती है। श्लेष-मुखेन कवि ने सरस्वती द्वारा एक ही शब्दों में इन्द्रादि एक-एक देवता के साथ-साथ नल का भी अमिधान करवाया. तो दमयन्ती समझ ही न पा सकी कि सरस्वती देवता का परिचय दे रही है या नल का परिचय, इस श्लेष पर तुर्रा तो देखिए यह है

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