________________ [ 34 ] है कि कोई व्यक्ति अपनी अप्सरा-सी प्रेयसी को जो एक-दूसरे पर जान देते हैं, निज इच्छा के विरुद्ध केवल 'धर्म-संस्थापनार्थाय' खलनायक के हाथ सौपने को तय्यार हो गया हो? अथवा कोई ऐसी नारी है जो निज पावन प्रेम के लिये इन्द्र के ऐश्वर्य और स्वर्ग सुखों को लात मार दे। इतना ही नहीं। विवाह के बाद भी नल की दिनचर्या में धर्म को नित्य को सम्ध्या-पूजादि को-पहला स्थान मिलता था, काम को दूसरा। दमयन्ती पति के इस नियत धार्मिक कार्यक्रम से कमी कमार रूठ भी जाती थी, लेकिन वे गीताकार की 'धर्माविरुदो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षम' इस उक्ति का दृढ़ता से पालन करते थे। यही कारण था कि नल की अटूट धर्म-निष्ठा देख जहाँ पहला खलनायक इन्द्र उनपर रोझा, दूसरा खलनायक कलि उनपर कोई आक्रमण न कर पा रहा था। इसके अतिरिक्त, श्रीहर्ष का नेषध काव्य मध्ययुगीन भारत के एक धार्मिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक इतिहास का अन्य भी है। इसमें हमें उस समय की परम्परागत विद्याओं, विधासम्प्रदाया और सामाजिक रीति-रिवाजों का पता चलता है। शौर्य कर्म, परोपकार, गरीबों को दान, दत्त वचन का दृढ़ता से परिपालन, जनहित हेतु कूप, उद्यान आदि का निर्माण इस समय धर्म के अङ्ग बने हुए थे। विवाह में धूल्य, मधुपर्क आदि का विधि विधान, पति की तरह दमयन्ती का मी देवार्चन, पति के भोजन करने के बाद ही भोजन करना इत्पादि बातों में भारतीय संस्कृति बोल रही है। पतिगृह के लिये बिदाई के समय कालिदास द्वारा ऋषि कण्व के मुख से शकुन्तला को दिलाये हुए प्रसिद्ध 'सुश्रूषस्व' कले उदात्त उपदेश से भीहर्ष द्वारा राजा भीम के मुख से पुत्री दमयन्ती को दिलाया हुआ निम्न लिखित उपदेश से क्या कुछ कम है ? पितात्मनः पुण्यमनापदः क्षमा, धनं मनस्तुष्टिरथाखिलं नलः / अतः परं पुत्रि म कोऽपि तेऽहमित्युदररेष व्यसृजमिनौरसीम् // (13 / 118) अर्थात् पुण्य-धर्म हो तुम्हारा पिता है, क्षमा-पहिष्णुता-हो तुम्हारो आपत् मिटाने वाली ( मौ) है, मनःसन्तोष ही धन है और ना ही तुम्हारा सब कुछ है। पुत्री, अब मैं तुम्हारा कुछ नहीं। इस तरह कालिदास आदि के रघुवंश, कुमारसम्भव आदि काव्य-ग्रन्थों की तरह नैषध कान्य भी सुतराम् एक सांस्कृतिक काव्य हैं। जहाँ तक काव्य-गत दोषों का सम्बन्ध है, साहित्यिक लोगों में यह दन्तकथा प्रचलित है कि प्रसिद्ध साहित्य-शास्त्री आचार्य मम्मट श्रीहर्ष के मामा लगते थे। काश्मीर में जब इन्होंने मम्मट को अपना नैषध काव्य दिखाया, तो सहसा उनके आगे निम्नलिखित श्लोक वाला पृष्ठ उघड़ पड़ा तव वर्त्मनि वर्ततां शिवं पुनरस्तु स्वरितं समागमः / अयि साधय साधयेप्सितं स्मरणीयाः समये वयं वयः // (2062) ___ इतने ही मम्मट ने अन्त्रय, सन्धि तथा अर्थ भेदकर के कितने ही अमंगल-दोष निकाल दिये, जैसे-तब शिवं वर्म निवर्तताम्-तुम्हें मङ्गलमय मार्ग न मिले; पुनः सरितं स आगम: मा अस्तु+ तुम्हारा वह पुनर्मिलन न हो; अयि साधय, साधयेप्सितम् = अरे, मेरा मनोरथ समाप्त ( नष्ट) कर दो; स्मरणीयाः समये वयं वयः हे पक्षी! ( मेरे मर जाने पर ) कभी-कमो मेरो याद किया