________________ प्रथमः सर्गः टिप्पणी-अनक-अनल्पदग्धारिपुराश्चते अनलाः (कर्मचा० ) : उम्मलेः ऐसा विग्रह भी किया जा सकता है अर्थात शत्रु-नगरों को जला देने से नल का प्रताप और भी बढ़ गया जिससे सारा भूमण्डल दोप्त हो उठा। यहां प्रताप पर नोराजनात्व का आरोप होने से व्यस्त रूपक किसी ने माना है। लेकिन हमारे विचार से यहाँ गम्योरप्रेक्षा मानना अधिक अच्छा रहेगा। कवि की कल्पना यह है कि अपने देदीप्यमान प्रताप से नल ऐसा लग रहा था मानो उसकी आरती की जा रहो हो। अनलोज्ज्वले: में लुप्तोपमा है। नीराजना-विजय, विवाह बादि करके लौट आने पर पुरोहित अथवा कहीं महिलाजन मांगलिक क्रिया के रूप में विजेता अथवा वर-वधू आदि की आरती उतारा करते हैं। यह प्रथा देश में सर्वत्र प्रचलित है। शब्दालंकारों में 'राज' 'राज' 'राज' में बमक, 'उ' और 'न' की आवृत्ति में वृत्त्यनुपास है // 10 // . निवारितास्तेन महीतलेऽखिले निरीतिभावं गमितेऽतिवृष्टयः। न तस्यजुनमनन्यविश्रमाः प्रतीपभूपालमृगीदृशां दृशः // 11 // अन्वयः-तेन अखिले महीतले निरीतिमा गमिते (सति ) निवारिताः अतिवृष्टयः अनन्यसंश्रयाः ( सत्यः ) प्रतीपभूपाल-मृगीदृशा दृशः न तस्यजुः नूनम् // टीका-तेननलेन अखिले सकले महीतले = मनाः तले (10 तत्पु.) निरी०-निर्गता ईसयः= अतिवृष्टयादयो विपत्तयः यस्मात् तथाभूतस्य (पादिव०बी०) मावः तत्सम् निरी. तित्वमिति यावत् (10 तत्पु० ) तम् गमिते- प्राप्तेि सति निवारिताः= प्रतिषिद्धाः अतिवृष्टयः= ईतिविशेषाः अनन्य०-न अन्यः संश्रयः= आश्रयः यासा ताः (ब० बी०) सत्यः प्रतीप०प्रतीपा:-विरुद्धाः शत्रब इत्यर्थः च ते भूपालाः राजानः ( कर्मधा० ) तेषाम् मृगीरशाम् - मृगोप्पा दृशौ श्व दृशौ यास ताः (ब० वी० ) तासाम् मृगनयनीना खोपामित्यर्थः दशः= नयनानि न तस्याः - अत्यजन् नलेन शत्रवो हताः तासां खियश्च सततं रुरुदुरित्यर्थः // 11 // ___ ग्याकरण-गमिते-गम् +पिच्+क्त कर्मणि निवारिता:-नि/+पिच्+क्त ( कर्मणि) प्रतीप-प्रतिगताः आपो यति ( प्रादि ब० बी०) प्रति+अप् +अच् अप् को ईप् / भूपालभुवं पालयतीतिभू+/पाल् + अच् ( कर्तरि ) / हिन्दी-उस (नल ) के द्वारा सारे भूमण्डल के ईति-रहित कर दिये जाने पर, रोक दो गई अतिवृष्टियो अन्यत्र आश्रय न पाये हुए मानो शत्रु राजाओं की मृगनयनियों को आँखों को नहीं छोड़ती थो ( अर्थात् वहाँ जा बस गई ) // 11 // टिप्पणी-ईति-ईति विपत्ति को कहते हैं। वे छः होती है-अतिवृष्टिरनावृष्टिमूषकाः शबमाः शुकाः। प्रत्यासज्ञाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः / / अर्थात् अतिवृष्टि, सूखा, चूहे, टिड्डीदल, तोते और पड़ोसी (शत्रु ) राजे। नल के राजत्व-काल में उसके पुण्य और प्रताप के कारण राज्य में कहीं भी किसी प्रकार की विपत्ति नहीं पड़ती थी। अतिवृष्टि को शत्रु-राजाओं की रानियों के नेत्रों में रहना पड़ा अर्थात् नल ने शत्रु मार दिए जिसके कारण उनकी विधवा रानियों रात-दिन आँखों से आँसुओं की बाढ़ बहाती रहती थीं। वह मानो अतिवृष्टि थी। इस श्लोक में