Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 38
________________ [ 33 ] किन्तु ऐसे गौडी-प्रधान स्थल अधिक नहीं है / कविका मोतरी कलाकार ज्यों ही बहिर्जगत् से हटकर अन्तर्जगत् में पैठता है, अथवा काव्य के भाव में उतरता है, उसकी भाषा कोमल मावों की तरह कोमल और प्रसाद-पूर्ण बन जाती है, समास हट जाते हैं और वह सरल-सुबोष हो जाती है / उदाहरणार्थ करुणा-सिक्त हंसकाण्ड की भाषा ही देखिये कि वह कितनी सरल है / इसी तरह शुद्ध वैदी में दमयन्ती की विरह-वेदना का चित्रण पीछे व्याकरण-स्तम्म के 'अधित कापि मुखे' (4 / 111) में, तथा काम-पीड़ित दमयन्ती द्वारा चन्द्र और कामदेव का विगर्हण चतुर्थ सर्ग में देखिये। प्रियतम के आगे पहले पहल दमयन्ती के लज्जा-माव का चित्र भी देखिये केवलं न खलु भीमनन्दिनी दरमन्त्रपत नैषषं प्रति / भीमजा हृदि जितः स्त्रिया हिया मन्मथोऽपि नियतं स लज्जितः // (18 / 36) इस तरह श्रीहर्ष की माषा-शैली वर्ण्य विषय के अनुसार बदलती रहती है यद्यपि स्वयं उन्होंने उसे वैदी का विशिष्ट रूप ही कहा है। गुण-दोष-हम पीछे देख आए हैं कि संस्कृत साहित्य के कला-सरपि के काव्यों में नैषधकायों का स्थान कला की दृष्टि से कितना ऊँचा और महत्वपूर्ण है। बहिर्जगत् के किसी भी वर्ण्य वस्तु का साङ्गोपाङ्ग, व्यापक वर्णन, प्रकृति का अनोखी कल्पनाभों से संवलित, वैविध्यपूर्ण, बिम्बग्राही चित्रण, मानव-हृदय का गहरा अध्ययन, मनोविज्ञान का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण, शृंगाररस की अपने वियोग और संयोग-दोनों रूपों में तत्तद् दशाओं अन्तर्दशाओं का मार्मिक अभिव्यजन, वर्ण और शब्दों का नाद-सौन्दर्य मरा सर्वत्र श्रुतिसुखावह प्रतिध्वनन, और विविध अलंकार-शृंखलाओं का मधुर मुखरण आदि बातें जो हमें श्रीहर्ष के कवि-कर्म में मिलती हैं, वे गद्यकाव्य के सर्वश्रेष्ठ कवि बाणभट्ट को छोड़कर अन्य किसी कवि के पद्य-काव्य में दुर्लम हो समझिये। नैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाय, तो नैषधकाव्य की विशेषता श्रीहर्ष का नल और दमयन्ती के उदात्त चरित्र चित्रण द्वारा पाठकों के आगे भारत का एक उच्च उज्ज्वल आदर्श स्थापित करना भी है। जीवन के दो पुरुषार्थो-धर्म और काम अथवा कर्तव्य और भावना को लेकर नल में जो अन्तर्द्वन्द्र अथवा हृदयगत भाव-संघर्ष श्रीहर्ष ने पाँचवें और नौवें सर्ग में चित्रित किया है, वह मला अन्य काव्यों में कहाँ मिल सकता है / वास्तव में काव्य कला की असली रीढ़ तो अन्तर्भावों का संघर्ष ही है, जिस पर श्रीहर्ष को छोड़ संस्कृत कवियों का बहुत कम ध्यान गया है। इन्द्र छल करके नल से वचन ले बैठा कि दूत बनकर उसका काम करेंगे। वचन-बद्ध होकर टल जाना धर्म-विरुद्ध है-यह सोचकर दूतके वेष में सच्चे हृदय से अपनी हृदयेश्वरी से वे अनुरोध पर अनुरोध करते गये कि वह नल को छोड़ इन्द्र को वरे। अपने प्रति उसका अनन्य अनुराग देखकर उन्हें बीच-बीच में कामोद्रेक मी मले ही होता जाता था, परन्तु उसे दबाकर उन्होंने निज धर्म-दौत्य कर्म-में जरा भो आँच नहीं आने दी और कर्तव्यको मावना से ऊपर ही रखा। यह इन्द्र का विपरीत माग्य ही (1 / 126) समझिए कि जो सकी ओर से नल द्वारा दिये गये अनेक प्रलोमनों एवं विमोषिकाओं के बावजूद वे दमयन्ती को अपने (नक के) प्रति, उसके अटलप्रेम से डिगाने में बाधक बना / क्या समूचे विश्व के इतिहास में कहीं ऐसा आदर्श

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