Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 36
________________ [ 31 ] देवः पतिर्विदुषि नैपधराजगत्या निर्णीयते न किमु न वियते भवस्या। नायं नलः खलु तवातिमहानकाभो योनमुज्झसि. वरः कतर परस्ते।। (16 // 34) इस श्लोक के पाँच अर्थ है, जो एक-एक करके चार देवताओं और नल की तरफ लगते हैं। इसकी रचना में कवि के मस्तिष्क ने कितना परिश्रम किया होगा-अनुमान लगा लीजिये / इतना ही गनीमत समझे कि हमारा कवि श्शेष का चमत्कार दिखाने तक ही सीमित रहा और अपने पूर्ववर्ती कलासरणि के कवि मारवि तथा माघ की तरह एक एक ही वर्ण का श्लोक लेकर शब्दों का 'मुरज' 'गोमूत्रिका' 'सर्वतोभद्र' 'चक्र 'समुद्र' आदि बनाकर शाब्दिक जादू का खेल दिखाने के चक्कर में नहीं पड़ा। अर्थालंकारों को भी भीहर्ष प्रचुर मात्रा में प्रयोग में लाए हैं। अर्थालंकारों में मुख्य स्थान उपमा का होता है, जो प्रस्तुत के समानान्तर अप्रस्तुत को रखकर साम्य-विधान द्वारा प्रस्तुत में प्रेषणीयता ला देती है और उसे हृदयङ्गम बना देती है / उपमाके लिये कालिदास प्रसिद्ध ही हैं लेकिन श्रीहर्ष भी कोई कम नहीं। श्लेष का पुट देकर ये उपमा को और सुन्दर बना देते हैं। साथ ही इनके उपमान घिसे-पिटे नहीं, प्रत्युत नये-नये मिलेंगे। दमयन्ती के हृदय में नलविषयक काम प्रवेश कर गयाइसके लिये कवि का श्लेष-गर्मित पौराणिक उपमान देखिये यथोद्यमानः खलु भोग-मोजिना प्रसह्य वैरोचनिजस्य पत्तनम् / विदर्भजाया मदनस्तथा मनोऽनलावरुद्धं वयसैव वेशितः / / (1 // 32) इनका व्याकरणीय उपमान 'सायुज्यमृच्छति' (11 / 117) और वेदान्तीय उपमान 'अधिगस्य' (3.3) में हम पीछे देख आये हैं। मीमांसाशास्त्रीय उपमान 2 / 61 में देखिये / उपमा ही नहीं, बल्कि उपमा-परिवार के अन्य सभी साम्य-मूलक अलंकारों की अप्रस्तुत-योजना में सर्वत्र कवि का नयापन ही दिखाई देता है। कल्पित सादृश्य वालो उत्प्रेक्षा में न्याय-शास्त्र की प्रस्तुत योजना देखिये . कलसे निजहेतुदण्डनः किमु चक्रभ्रमकारितागुणः / स तदुच्चकुचौ भवन् प्रमाक्षरचक्रमातनोति यत् / / (2 / 32) व्याकरणीय अप्रस्तुत-योजना हम पीछे 'इह किमुषति' (19 / 60) में देख आये हैं / सन्देह नहीं कि इन योजना मों में नयापन है, लेकिन शास्त्रशान-सापेक्ष होने के कारण इनमें दुरूहता आ गई है। हाँ इनकी लौकिक अप्रस्तुत योननायें अथवा कल्पनायें बड़ी चमत्कारी हैं। उदाहरण लीजिये -- विदर्भसुभ्रस्तनतुगताप्तये घटानिवापश्यदलं तपस्यतः / फलानि भूमस्य धयानधोमुखान् स दाडिमे दोहदधूपिनि द्रुमे // (182) यहाँ उर्वरक रूप में ओषधिविशेष का धूओं ग्रहण करते हुए अनार के फलों पर अगले जन्म में दमयन्ती के कुचों की उच्चता प्राप्ति हेतु धूमपान को तपस्या करते हुये कलशौकी कल्पना की गई है। ऐसी-जैसी ही कल्पना के लिये 'डरोभुवा' (1 / 48) वाला श्लोक मो देखिए। चन्द्रमा के काले चम्बे पर भी कवि की यह कैसी नयी और अनोखी कल्पना है

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