________________ [ 29 ] मुन रहा था)-'ठोक ही तो है बहन, शतमन्यु ( सैकड़ों पाप-कर्म करने वाला कश्य पमुत (शराबी का लड़का ) कश्यपसुता (शराबी की छोकरी) को ब्याहने जाये। साथ ही दूसरा व्यंग्य' यहाँ यह भी है 'देख बहन, कैसा अन्धेर है कि कश्यपमुत कश्यपसुता ( बहिन ) को व्याहने जा रहा है।' दोनों देवाङ्गनायें आपस में खूब हँसी। दूसरा उदाहरण वारातियों की विदाई के समय का है अमीषु तथ्यानृतरत्नजातयोर्विदर्भराट् चारु-नितान्तचारुणोः / स्वयं गृहाणैकमिहेत्युदोर्य ववयं ददौ शेषजिघृक्षवे हसन् // ( 16 / 111) विदर्भराज भीम एक चमकीले असली रत्नों की ढेरी और एक और अधिक चमकीले नकली रत्नों की ढेरी हाथ पर रखकर उन बारातियों में से प्रत्येक को भेंट देते हुए कह रहे थे-'दोनों ढेरियों में से एक चुन लीजिये। लेकिन जब कोई बाराती नकली रत्न लेना चाहता, तो वे उसकी रत्नों की अनभिशता पर खूब हँसते और उसे दोनों ही ढेरियाँ दे देते कि बेचारा घाटे में क्यों रहे। कवि का वीररस नल द्वारा शत्रुओं पर अभियान, उन पर 'प्रगल्भ बाण-वृष्टि' तथा 'महासिप्रहार उनके नगरों को भस्मसात् करने के शौर्य-कर्म एवं स्वयंवर के समय सरस्वती द्वारा तत्तत् राजाओं के वीरोचित कर्मजात के वर्णन में अभिव्यक्त होता है। श्रीहर्ष की भाषा-शैली-कुछ विद्वानों का कहना है कि दमयन्ती को प्रशंसा में श्रीहर्ष ने जो यह श्लोक कहा है धन्यासि वैदर्मि गुणरुदारैर्यया समाकृष्यत नैषधोऽपि / इतः स्तुतिः का खलु चन्द्रिकायाः यदब्धिमप्युत्तरलीकरोति // (3 / 116 ) उसमें वह वैदर्भी शब्द में श्लेष रखकर अपनी वैदर्भी शैली की ओर मो संकेत कर गये हैं अर्थात् उनको भाषा-शैली वैदर्भी है, जिसका स्वरूप साहित्यदर्पणकार ने इस तरह स्पष्ट किया है। माधुर्य-व्यञ्जकैर्वण रचना ललितास्मिका / अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरिष्यते // ( 9 / 3 ) अर्थात् ऐसी ललित पद-रचना जिसमें वर्ण माधुर्य उगल रहे. हों और वृत्ति ( समास ) न हों अथवा यदि हों भो, तो छोटे हों, वैदी रीति होती है। इसमें माषा की क्लिष्टता, प्रयास-साध्यता और कृत्रिमता सर्वथा वर्जनीय हैं / ऊपर उद्धृत श्लोक में कवि का अपना वैदर्भी-रीतिविषयक व्यक्तिगत संकेत हो, न हो, किन्तु हाँ सरस्वती जाते समय नल को जो यह निम्नलिखित आशीर्वाद दे गई: गुणानामास्थानी नृपतिलक, नारीतिविदितां, रसस्फीतामन्तस्तव च तव वृत्ते च कवितुः / मवित्री बैदर्भीमधिकमधिकण्ठं रचयितुं परीरम्मक्रीडाचरणधरणामन्वहमहम् // (1491) पघाडाप १-मदिरा कश्य-मधे च / ( अमरकोष 20 / 40 )