________________ नैषधीयचरिते व्याकरण-साखना-शाल+युच् (भारे) यु को अन् / सेविनीम्-सेव+ पिन् +ङीप् / पवित्रयिष्यति-पवित्रां करिष्यतीति 'पवित्रा' शब्द को पुंवद्राव करके पि मन्त नाम धातु है। हिन्दी-जिस ( नल ) को कथा इस ( कलि ) युग में स्मरण की जाती हुई जगत् को ऐसा पवित्र कर देती है मानो वह जल से धो दिया गया हो, दोष-पूर्ण होती हुई भी अपना ( नल का) ही वर्णन करनेवाली मेरी वाणी को वह क्यों न पवित्र करेगी ? // 3 // टिप्पणी--पवित्रमासनुते-नल का नाम स्मरण और कीर्तन कलियुग में पाप-नाशक बताया गया है, जैसे:-'कर्कोकटस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च 1 ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कखिनाशनम्' // एवं 'पुण्यश्लोको नलो राजा पुण्यश्जाको युधिष्ठिरः। पुण्यश्लोकाच वैदेही पुण्यश्लोको जनार्दनः // भाविखामपि-कवि अपने काव्य में सर्वथा निर्दोष होने की डीग नहीं मारता है, उसमें दोषों का होना स्वामाविक है, किन्तु 'रस-क्षालना' शृङ्गारादि रसों को उत्कृष्टता-उन्हें नगण्य कर देवी है। इसीलिए साहित्यदर्पणकार ने रस को ही काव्य की 'आत्मा' मानकर दोषों के सम्बन्ध में 'सर्वया निदोषत्वस्यकान्तमसम्भवात्' लिखा है। उक्त श्लोक में श्रीहर्ष मी काव्य के सम्बन्ध में अपने इसी व्यक्तिगत विचार को ओर संकेत करते प्रतीत हो रहे हैं। ___ उक्त श्लोक में 'क्षालनयेव' में उत्प्रेक्षा और 'कयं न पवित्रयिष्यति' में काकु वक्रोक्ति होने से संसृष्टि अलंकार है / मल्लिनाथ के अनुसार 'जो कथा स्मृतिमात्र से पवित्र का देती है, वह वर्षन से मो करेगो-यह तो कहना हो क्या ? इस तरह अर्यापत्ति है। विद्याधर ने 'नल की कथा छोड़ मेरी वाणी अन्य का प्रतिपादन नहीं करती' इस तरह राजविषयक रतिमात्र माना है // 3 // अधीतिबोधाचरणप्रचारणर्दशाश्चतस्रः प्रणयन्नुपाधिमिः। चतुर्दशत्वं कृतवान् कुतः स्वयं न वेनि विद्यासु चतुर्दशस्वयम् // 4 // अन्वयः-अयं चतुर्दश विद्यासु अगीति...रणैः उपाधिभिः चतस्रः दशाः प्रणयन् स्वयं चतुरशत्वं कुतः कृतवान्-( इत्यहं ) न वेनि। टीका-अयम् एषः नलः चतुदंशसु = चतुर्भिः अधिकाः दश इति चतुर्दश तासु (मध्यमपदको० स०) विद्यासु अधीति० -अधीतिःअध्ययनम् , च बोधः-शानं च पाचरणम्कर्मानुष्ठानं क्रियान्वयनमिति यावत् च प्रचारणम् = अध्यापनं चेवि .चारणानि तैः (द्वन्दः ) उपाधिमिः =विशेषणैः ( 'उपाधिधर्मचिन्तायां कैनवेऽपि विशेषणे' इति विश्वः ) विशेषः प्रकारैः इति यावत् चतस्रः दशः= अवस्थाः प्रणयन् कुर्वन् स्वयम् = आत्मना चतुदंशस्वम् = चतुर्दशसंख्याकत्वम् कुतः = केन हेतुना कृतवान् = अकरोत् ( इति अहं करिः) न देधि = जानामि / अयं मानः विद्यासु चतुर्दशत्वं तु स्वतः एवास्ति नलेन का चतुर्दशत्वं कृतम् -इत्याश्चर्यम् // 4 // व्याकरण-प्रधीतिः-अधि++क्तिन् ( भावे ) बोधः-- बुध् +घञ् (मावे ), भाचरणम्, प्रचारणम्-/चर्+ल्युट् ( मावे ) उपाधि.-उस+प्रा+/ पा+कि ( मावे ) /