Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 44
________________ प्रथमः सर्गः प्रताप-पुंज एवं यश-मंडल को ( क्रमशः ) सुवर्ण-दंड और एक ( अनुपम ) श्वेत-छत्र बनाये हुए वह राजा नल गुषों में अद्भुत था // 2 // टिप्पणी-रसैः' का नारायण ने शृङ्गार आदि काव्यीय रस अर्थ किया है अर्थात् जो कथा शृङ्गार आदि रसों से अमृत को भी नीचा दिखा देती है / साहित्य दृष्टि से काम्यीय रस 'आनन्दमय'. होते हैं, जिनसे विमोर हो सहृदय अमृत को तुच्छ समझने लगते हैं / किन्तु कवि ने यह पुनरुति ही को है, क्योंकि पिछले श्लोक में हो वह 'तयाद्रियन्ते न बुधाः सुधामपि' यह बात शब्दान्तर में कह ही चुका था। सुवर्ण-यहाँ कवि ने राजा नल हेतु एक विचित्र छत्र को कल्पना कर रखी है। वसे राजों का सोने के दण्डवाला श्वेत रेशमी छत्र हुआ करता है, लेकिन कवि ने नल के प्रताप को ही सोने का दंड और कीर्ति को ही श्वेत-वसन इत्र बना दिया है। ध्यान रहे कि कवि जगत् में यश आदि गुण श्वेत माने गये हैं, और तेज अग्नि को तरह पीला / सोना मी पीला होता है, इस तरह गुणसाम्य से नल के प्रताप पर पीत स्वर्णदंड का और यश-मंडल पर श्वेतछत्र का आरोप कर दिया है। दोनों आरोपों का परस्पर अङ्गाङ्गिभाव होने से यह साङ्ग रूपक है। क्रमश: अन्वय होने से यथासंख्यालंकार भी है। कुछ आलोचकों का कहना है कि कवि ने यश पर छत्रत्वारोप पिछले श्लोक में कर ही रखा है, अतः पुनरुक्ति दोष है। इसका मल्लिनाथ 'इह कीत्त: सितातपत्रत्वरूपणं पूर्वोक्तमपि सुवर्णदण्डवैशिष्टयात् न पुनरुक्तिदोषः' यह कहकर और नारायण 'पूर्वश्लोके सुधासितच्छत्रे अविशेषेणेवोक्ते, अत्र तु विशेषेणेति न पौनरुक्त्यम्' कहकर समाधान कर रहे हैं अर्थात् पिछले छत्रत्वारोप में दंड नहीं बताया गया था, अतः वह अधूरा ही था। यहाँ उस पर दंड भी लगाकर कवि ने कमी परी कर दी है. इसलिए पुनरुक्ति दोष कोई नहीं है। हाँ. यहाँ समाप्त पनरात्तत्व दोष अवश्य है, क्योंकि 'भूजानिरभूद् गुणाद्भुतः' में वाक्य समाप्त हो जाने के बाद कवि ने सुवर्ण० यह विशेषण पीछे से और जोड़ कर समाप्त हुए वाक्य का पुनरादान किया है // 2 // पवित्रमत्रातनुते जगद्युगे स्मृता रसलालनयेव यत्कथा।। कथं न सा मगिरमाविलामपि स्वसेविनीमेव पवित्रयिष्यति // 3 // * अन्वयः- यत्कथा अत्र युगे स्मृता ( सती ) जगत् रस-भालनया व पवित्रम् आतनुते, सा आविलाम् अपि स्वसेविनीम् एव मद्-गिरं कथं न पवित्रयिष्यति / टीका-यस्य = नलस्य कथा ( 10 तत्पु०) अत्र युगे = अम्मिन् कलि-युगे स्मृता-स्मृतिविषयं नीता सती जगत् =संसारम् रस०-रसेन - जलेन ( देह-धात्वम्बु-पारदाः इति रसपर्याये विश्वः) चालना= प्रक्षालनम् तया ( तृ० तत्पु० ) इवेत्युत्प्रेक्षायाम् पवित्रम् = शुद्धम् भातनुते करोति अर्थात् कलौ नल-कथास्मरणेन लोकानां पापानि नश्यन्ति, सा=नल-कथा प्राविलाम् - मलिना सदोषामित्यर्थः अपि स्वं = नलं सेवते इति स्वसेविना ताम् ( उप० तत्पु० ) स्ववर्णनपराम् एव मम गिरम् मदगिरम् (10 तत्पु० ) मे वाचम् कथं न पवित्रयिष्यति = पवित्रा करिष्यति अपितु पवित्रा करिष्यत्येवेति काकुः // 3 //

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