________________ [ 32 ] हृतसारमिवेन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय वेधसा / कृतमध्यबिलं विलोक्यते धृतगम्भीरखनीखनीलिमा // (2025) अर्थात् दमयन्ती के मुख के निर्माण हेतु स्रष्टा ने जैसे चन्द्रमा का सारभूत मध्य माग निकाल लिया हो, जिससे बीच में वनी खाई में से परली तरफ का काला नीला आकाश दीख पड़ रहा है। इसी प्रकार प्रतिवस्तूपमा, रूपक, दृष्टान्त, समासोति आदि साम्य-मूलक अलंकारों में भी कवि की अप्रस्तुत योजनाओं में सर्वत्र अनोखापन ही मिलेगा / अर्थान्तरन्यासों में तो कवि के सार्वमौम तथा प्रतिपादक कितने ही समानान्तर वाक्य आज लोगों के मुखों में आमाणक-जैसे बने हुये हैं, जैसे-'स्यजन्स्यसून् शर्म च मानिनो वरं, त्यजन्ति न वेकमयाचितव्रतम् / (१९५०),क्य मोगमाप्नोति न भाग्यभाग जनः (1 / 102) व वते हि फलेन साधवो, न तु कण्ठेन निजोपयोगिताम् (2040), आर्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः (5 / 103) इत्यादि, इत्यादि / इस तरह हम देखते हैं कि नेषष में विरले ही ऐसे श्लोक मिलेंगे, जो कविकी नयी-नयी अप्रस्तुत-योजनाओं से खाली हो। वैवयं-मूलक अलंकारों में से भी कवि ने यत्र-तत्र विरोधामास, विषम, विभावना, विशेषोक्ति, असंगति आदि की उटा खुन दिखा रखी है। अभिप्राय यह कि नैषध में ऐसा कोई श्लोक नहीं, जिसमें तीन चार अलंकारों का संकर अथवा संसृष्टि न हुई हो। यही कलावादी सरणि को निज विशेषता मो है। हम पीछे संकेत कर आए हैं कि महाकाव्य इतिवृत्तात्मक होता है और उसकी पद एवं वाक्यरचना वर्षन-शैली में चलती है / जहाँ तक बहिर्जगत् के वर्णन का सम्बन्ध है, श्रीहर्ष की भाषा प्रायः कठिन समास-बहुल और शब्दाडम्बरी बन जाती है। नल, अश्व, सरोवर और कुण्डनपुरी आदि का वर्णन कवि ने ली ओजस्विनी भाषा में किया है / कुण्डनपुरी के दो-एक चित्र देखिये : बहुकम्बुमणिवराटिकागणनाटस्करकटोत्करः। हिमवालुकयाच्छवालुकः पटु दध्वान यदापणार्णवः / / (2 / 88) इसी प्रकार वैदर्भीकेलिशैले मरकतशिखरोदुस्थितरंशुदमैंब्रह्माण्डाघातमग्नस्यदलमदतया होतावाङ्मुखत्वैः / . कस्या नोत्तानगाया दिवि सुरसुरभैरास्यदेशं गतान यद्गोग्रासप्रदानव्रतसुकृतमविश्रान्तमुज्जम्भते स्म / / 2 / 108) इन वर्णनों में गौड़ी रोति ही मुखरित हो रही है। इतना ही नहीं, बल्कि नैषध में कितने ही ऐसे भी स्थल मिलेंगे, जिनका अर्थ समझना साधारण व्यक्ति के लिये बड़ा कठिन हो जाता है / कवि ने जानबूझकर ऐसी-ऐसी गुत्थयां मी धर रखी हैं, जो गुरु-मुख से अन्य पढ़े विना स्वयं नहीं सुलझ सकती। उसने स्वयं कह भी रखा है : ग्रन्थग्रन्थिरिह क्वचित् क्वचिदपि न्यासि प्रयत्नान्मया प्राशनन्यमना हरेन पठिती मास्मिन् खलः खेलतु / श्रद्धाराद्धगुरुश्लथीकृतदृढग्रन्थिः समासादय. स्वेतत्काग्यरसोर्मिमज्जनसुखण्यासज्जनं सज्जनः।। (22 // परिशिष्ट 3)