________________ . [ 26 ] श्रीहर्ष के कला-वैशिष्टय में अब हम उनके प्रकृति-चित्रण को लेते हैं / यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं कि महाकाव्य विषय प्रधान, बहिर्जगत्-परक अथवा वर्णनात्मक हुआ करता है, जिसके मोतर क्या मानव-प्रकृति और क्या मानवेतर प्रकृति-दोनों समाहित रहते हैं। काव्य के अरुणोदय. काल में प्रकृति को अपनो स्वतन्त्र सत्ता थी। वल्मीकि ने उसके कितने ही सौन्दर्यधरे मार्मिक चित्र खींच रखे हैं / कालिदास आदि के मी बहुत से स्वतन्त्र आलम्ब नात्मक प्रकृतिचित्र मिलते हैं। किन्तु काव्य-क्षेत्र में रसवाद आ जाने पर प्रकृति कुछ सीमा तक अपनी स्वतन्त्र सत्ता खो बैठो और अधिकतर रस के अन्यतम निर्मापक तत्व-उद्दोपन विभाव-के रूप में काम करने लगी। रसपरिपुष्टि द्वारा सहृदयों को आनन्द-प्रदान करना उसकी इतिकर्तव्यता हो गई। इसके अतिरिक्त, कभी-कभी ऐसा भी होने लगा कि कलाकार अपनी व्यक्तिगत अनुभूति को अभिव्यक्ति देने हेतु जड़ प्रकृति को अपना माध्यम बना देता है और उसका चेतीकरण ( Persorification ) करके उसे मानव-जीवन के समतल में रख देता है / इसे हम भावाशिप्त अथवा चेतनीकृत प्रकृति कहेंगे। श्रीहर्ष ने प्रकृति के उक्त तीनों रूपों के बहुत सारे चित्र खींच रखे हैं / म सग के सरोवर से लेकर ग्रन्थान्त में चन्द्रवर्णन तक प्रसङ्ग-प्राप्त प्रकृति के बहुत से पालम्बनात्मक, स्वतन्त्र चित्र आपको मिल जाएँगे / माष आदि कलावादियों की तरह काव्य-संविधान का अक्षर-अक्षर पकड़कर हर कहो, जहाँ जी चाहे प्रकृति को यो हो खोंच ले आना श्रीहर्ष को नहीं माता। इसके लिए वे उसका अवसर और स्थान देखते हैं। उद्यान-प्रसंग में कवि द्वारा खींचे सरोवर के स्वाभाविक चित्रों का एक उदाहरण देखिए 'महीयसः पङ्कज-मण्डलस्य य. श्छलेन गौरस्य च मेचकस्य च / / नलेन मेने सलिले निलीनयो स्त्विषं विमुञ्चन् विधु-कालकूटयोः (1 / 113) शृङ्गार-रस पधान होने के कारण नैषध में प्रकृति के उद्दोपन विभाव के रूप में खींचे चित्रों की तो भरमार ही समझिये। अन्धकार का एक कामोद्दीपक चित्र देखिये शची-सपरन्यां दिशि पश्य, भैमि ! शक्रेमदानद्रवनिर्झरस्य / पोप्लूयते वासरसेतुनाशादुच्छ खलः पूर इवान्धकारः // ( 22 / 27) ___ अब प्रकृति का भावाक्षिप्त रूप भी देखिये। नल के हृदय में प्रिया-मिलन की स्पृहा को कवि प्रकृति के माध्यम से इस तरह साकार कर रहा है नवा लता गन्धवहेन चुम्बिता, करम्बिताङ्गी मकरन्द-शीकरैः / दृशा नृपेण स्मितशोभि-कुडमला, दरादराभ्यां दरकम्पिनी पपे / (185) ऐसा हो एक दूसरा चित्र भी देखिये, जिसमें प्रियतम की स्मृति कौंधने पर रोमाञ्चित, और हृदय में कामशराहत नायिका का व्यवहार-समारोप कवि दाडिमी पर यों कर रहा है वियोगिनीमैक्षत दाडिमीमसौ, प्रियस्मृतेः स्पष्टमुदीतकण्टकाम् / फलस्तनस्थान-विदीर्ण-रागिहृद्विशच्छुकास्यस्मरकिंशुकाशुगाम् // (1183)