________________ [ 22 ] हैं। व्याकरण का नियम है-'उपसर्गेण धात्वों बलादन्यत्र नीयते'। ऐसा लगता है कि इसी को मन में रखकर जैसे कवि ने निम्नलिखित श्लोक बनाया हो- 'भधित कापि मुखे सलिलं सखी, प्यधित कापि सरोजदलैः स्तनौ / ' व्यधित कापि हृदि व्यजनानिलं, ' न्यधित कापि हिमं सुतनोस्तनौ // ( 4 / 113) कहीं प्रस्तुत रूप में न सही तो अप्रस्तुत रूप में ही श्रीहर्ष अपना व्याकरण ध्वनित कर देते हैं, जैसे 'क्रियेत चेत् साधु-विमक्तिचिन्ता, व्यक्तिस्तदा सा प्रथमाऽभिधेया। या स्वौजसां साधयितुं विलास स्तावक्षमानामपदं बहु स्यात् // 3 // 23 ) यहाँ प्रस्तुत नल-वर्णन पर प्रथमा विभक्ति के सु, औ, जस ( एक ब०, द्वि ब०, बहु ब० ) प्रत्ययों के लोप-दीर्घ आदि विलासों से प्रत्येक प्रातिपादिक शब्द को पद में परिणत करने की क्षमता का अपस्तुत व्याकरण व्यवहार-समारोप हो रखा है। कहीं-कहीं श्रीहर्ष साम्य-विधान में उपना और उत्प्रेक्षा तक को व्याकरण के भीतर ढूँढ लेते हैं, जैसे सायुज्यमृच्छति भवस्य भवाब्धियाद स्तां पप्युरेत्य नगरी नगरोजपुत्र्याः / भूतामिधानपदुमद्यतनीमवाप्य, भीमोद्भवे भवतिभावमिवास्तिधातुः // 111117 // स्वयंवर में काशीनरेश का परिचय देते हुए सरस्वती उनको काशी के सम्बन्ध में कह रही है कि, यह वह नगरी है, जहाँ पहुँच कर संसार-सागर के प्राणी वहाँ स्थित शिव के साथ इस तरह शिव रूप बन जाते हैं जैसे कि 'मस् धातु अद्यतन भूतकाल के लुक में पहुँचकर वहाँ के भू से बने 'अभूत' के साथ अभूत् रूप' बन जाता है / बाली के स्थान में सुग्रीव के राज्याभिषेक पर कालिदास ने भी इसी तरह का वेयाकरण साम्य-विधान कर रखा है-'धातो: स्थानमिवादेशं सुग्रीवं संन्यवेशयत्' / अब एक उत्प्रेक्षा भी देखिये / उषा-काल है। पक्षियों बोलने लगी हैं। कौआ 'को 'को' और पिक 'तुहि', 'हि' कर रहे हैं। कवि को इन ध्वनियों में भी व्याकरण ही सूझ रहा है। प्रश्नवाचक 'किम्' शब्द के प्रथमा द्विवचन 'कौ' रूप में मानो कौआ पिक को पूछ रहा है कि दो कौन हैं, जिनके स्थान मे पाणिनीय नियम से तातङ् ( आदेश ) हो. है ? पिक झट उत्तर दे रहा है 'तु हि', 'तु हि' अर्थात् लोट् के प्रथम और मध्यम पुरुष के एक वचन में 'तु' और 'हि' को विकल्प से १-अस्तेभूः (2 / 4 / 52)