________________ [ 20 ] मये / हमें ऐसा लगता है कि जैसे इन्होंने इस विषय में गद्य-सबाट बाथमट्ट को अपना गुरु बनाया हो, जो किसी भी वस्तु के सूक्ष्म विश्लेषण के लिए अथवा उसके बाल की खाल उतारने के लिए संस्कृत जगत् में ख्यात हैं। वर्णन की यह प्रक्रिश व्यासात्मक अथवा विश्लेषणात्मक (Analytic) कहलाती है / इसके अनुसार कवि 'सर्जन'-जंसा बनकर वर्ण्य विषय का इस तरह 'आपरेशन' करके उसका कतरा-कतरा हमारे आगे रख देता है, जिससे कि उसका कुछ मी शातन्य शेष नहीं रहने पाता'। श्रीहर्ष ने भी यही किया है। प्रारम्भ में नल और दमयन्ती का चित्रण ही देख लीजिए / उनका कोई गुण अथवा अङ्ग-प्रत्यङ्ग अछता नहीं रहने पाया। आदि के श्लोक में कवि ने नल के कीतिमण्डल को उसका स्वामाविक श्वेत छत्र बनाया था, किन्तु छत्र बिना दंड के नहीं होता है। इस कमी को वह झट दूसरे श्लोक में राजा के ज्वलन्त प्रताप को वर्ष दंड का रूप देकर पूरा कर गया भले ही इसमें छत्र पुनरुक्त क्यों न हो गया हो। यही हाल नल के घोड़े, प्रमोदवन, सरोवर, कुण्डनपुरी भादि का भो समझ लीजिए। हमें ऐसा लगता है कि श्रीहर्ष ही नहीं, बल्कि कहासरणि के सभी कवि किसी मी वयं विषय के अन्तर्गत उसके छोटे-बड़े सभी तथ्यों को पहले अपने मस्तिष्क में एक सूची-जैसो तय्यार कर लेते हैं, फिर एक-एक करके उनको अपने हाथ में लेते रहते हैं ओर क्रमशः वर्णन करते रहते हैं मले हो उनके इन लम्बे-लम्बे वर्षनों के जंगलों में कथा-वस्तु अवरुद्ध-सी होकर जूं की चाल से मी कम क्यों न सरकती रहे। नैषध के पाठक देखेंगे कि जब मी कवि का हृदय अपने किसी वर्णन से नहीं अपाता, तो वह वयं को फिर पकड़ लेता है / दमयन्ती का ही वर्णन ले लें। वह पहले हम के मुख से ( सर्ग 2), फिर नल के मुख से ( सर्ग 7), फिर सीधे अपने ही श्रीमुख से ( सर्ग 15 ) और अन्त में फिर नल के मुख से कितनी ही बार उसका वर्णन कर चुका है। यही बात नल के सम्बन्ध में भी है। यह सब उसकी प्रतिमा और कल्पनाशक्ति की ही तो महिमा है। किन्तु यह देखकर आपको पाश्चर्य होगा कि दोबारा, तिबारा खाँचे हुए उसके सभी चित्र पहले से बिलकुल हो मिन और एकदम नये मिलेंगे, जिनमें बोरियत या उकनाहट का नाम नहीं, बल्कि उत्सुकता ही बढ़ती है। नल के एक चौथाई चरित को ही लेकर मब कवि उसे इतना लंबा खींचकर ले गया तो यदि वह सारा हो चरित लिखता तो वह महाभारत की तरह कितना महा-मारवान् बन जाता-स्वयं अटकल लगा लीजिये। हाँ, श्रोहर्ष के सम्बन्ध में कलावादी सरणि को ज्ञातव्य एक बात और है। पाश्चात्त्य साहित्यजगत् पर आजकल इटली के प्रसिद्ध सौन्दर्यशास्त्री क्रोचे का वह नया सिद्धान्त छाया हुआ है कि काव्याय सौन्दर्य का सम्बन्ध प्रत्यक्ष जगत् से नहीं, अन्तर्जगत् से रहता है अर्थात् लौकिक वस्तु अपने आप में सुन्दर नहीं होती, बल्कि कवि का अन्तर्ज्ञान अथवा स्वयंप्रकाश्य बोध ( Intuition ) कल्पना शक्ति द्वारा उसे सौन्दर्य का बाना पहना देता है / शम्दान्तर में, यह समझ ले कि सौन्दर्य कलाकार की वर्षना अथवा अमिन्यन्जना ( Expression ) में निहित होता है। वस्तु में नहीं। इसे 'अमिण्यम्जनावाद' कहते हैं। किन्तु मारतीय साहित्यिकों के लिए यह कोई नया वाद नहीं है। हमारी कलावादी सरणि का तो मूलाधार हो यह है / कुन्तक का वक्रोक्तिवाद शमानर में