Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 23
________________ [ 18 ] बहुत समय बाद काव्य-कन्या को हम अपनी शैशवावस्था में से गुजर कर सहसा यौवनावस्था में पदार्पण किये पाते हैं। यह समय कालिदास, अश्वघोष और बाप्पमट्ट आदि कवियों का है / जयदेव कवि ने 'कविकुलगुरु कालिदास' को 'कविता-कामिनी का विलास', बाप को 'हृदय में वास किये पञ्चबाण' और हर्ष को 'हर्ष' कहा है। इससे पूर्व भास आदि प्राचीन कलाकारों के समय में अन्तर्जगत् की वृत्तियो-रति आदि माव-अपने यथास्थित, मौलिक बौद्धिक रूप में ही वर्णना के विषय होते थे, चर्वपा के नहीं। तब तक रस-सिद्धान्त की स्थापना नहीं हुई थी। यह तो भरत मुनि ही हुए, जिन्होंने बाद को अपने 'विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगात रस-निष्पत्तिः' वाले मूलसूत्र से साहित्य क्षेत्र में रसवाद की अवतारणा की। विभावादि सामग्री से विभावित अनुभावित और सञ्चारित हृद्-गन रत्यादि भावों को अलौकिक साधारणीकरण व्यापार द्वारा प्रेक्षकों, श्रोताओं अथवा पाठकों के साथ एकीकृत करके उन्हें 'ब्रह्मानन्द-सहोदर' आनन्द में विभार कर देने की प्रक्रिया कविलोगों को मरत मुनि ने ही बताई है। इसी को चर्वणा अथवा रस मी कहते हैं। यही काव्य की रागात्मक अनुभूति भी कही जाती है। फलतः इसने उक्त मामग्रो बटोरने हेतु कलाकारों में कल्पनाशक्ति को प्रोत्साहन दिया और उसे उभारा। इससे काव्य स्वरूप भी बदल गया अब रस ही काव्य का जोवातु अथवा आत्मा बना और इसी की अभिव्यक्ति काव्यकारों का लक्ष्य बनो। कला-पक्ष गौण रहा। कालिदास ने वाल्मीकि से प्रकृति की पृष्ठभूमि एवं भाषा का माधुर्य और प्रसाद गुण तथा भरत से नये रसवाद की दाय लेकर अपना कला-सृजन किया / कालिदास मुख्यतः शृङ्गारी कवि रहे, जिनके अपनी कला-तू लका से नाना रंगों में खींचे, अनोखे शृङ्गार-चित्र संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधि बने हुए हैं। अश्वघोष ने भी अपने 'सौन्दरनन्द' काव्य के आरम्भ में अच्छे-अच्छे शृङ्गारिक चित्र खींच रखे हैं, लेकिन बाद में वे सिद्धान्त-प्रचार के चक्कर में फंस गये और अपनी सरसता खो बैठे। वे भूल गये कि काव्य संवेदन की चीज है, शुष्क प्रचार को नहीं। रसवाद काव्य-क्षेत्र में अपनी धाक जमाये चला आ रहा था। 'धानप्रतिष्ठापनाचार्य प्रानन्दवर्धन ने रस-तत्व को ध्वनि के भीतर समाहित करके उसका महत्त्व कम नहीं होने दिया। आचार्य मम्मट और विश्वनाथ आदि भी मुख्यतः रस-समर्थक ही रहे। किन्तु कुछ समय बाद सहसा रसवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी शक्तियों उमर उठी। मामह, दण्डो आदि द्वारा पूर्व प्रचालित अलंकारसम्प्रदाय, जिसका स्वर रसवाद ने दबा दिया था, एकदम मुखर हो गया / 'वक्रोक्तिः काव्य-जीवि. तम्' और 'रोतिरात्मा काव्यस्य' का डिडिम पीटने वाले कुन्तक और वामन इस आन्दोलन के नये नेता थे। काव्य-कला ने एकदम करवट बदल लो। फलतः रम अपना स्थान खो बैठा और अलंकारसम्प्रदाय काव्यक्षेत्र पर छा गया। कवि-कर्म की इतिकर्तव्यता अब काव्य के भाव-पक्ष अथवा रस. पक्ष के स्थान में अधिकतर उनके कला-पक्ष शरीर को सजाने-नवारने में समाप्त होने लगी अथवा यों समझ लीजिये कि कवियों की दृष्टि कविता-कामिनी के हृदय से हटकर उसके मस्तिष्क, शरीर, अवयव-गठन और वेष-भूषा पर जा टिकी। वैचित्र्य-मरा बाहरी बनाव-ठनाव और तड़क-भड़क सौन्दर्य बन गई, अनुभूति और संवेदन गौण हो चले। इसका परिणाम यह हुआ कि कलाकार हृदय खोकर मस्तिष्क-प्रधान हो गया। रसवादी कालिदास के बाद उमरी इन नवीन काव्यीय प्रवृत्तियों ओर

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