________________ [ 17 ] बहुत सारी कई बातें हैं जिनमें कवि ने बौचित्य एवं रस-निष्पत्ति को दृष्टि से कल्पना द्वारा हेरफेर कर रखे हैं। वास्तव में मूठ तो प्रेरणा स्रोत होता है। उसके ऊपर खड़ी की गई कवि की सारी सृष्टि सामान्यतः स्वोपश ही हुआ करती है। यदि कवि स्वोपज्ञ सृष्टि नहीं रचसकता, कल्पना को ऊँची उडाने मरकर सहृदयों के हृदयों में 'रसोदन्वान्' नहीं खौला सकता, वस्तु के धरातल से ही चिपका रहता है, तो वह कवि नहीं, कुछ और है / काव्य का उद्भव और विकास-नैषध काव्य और श्रीहर्ष के कलावैशिष्टय पर लिखने से पूर्व यहाँ काव्य के उद्भव और विकास के इतिहास पर एक विहंगम-दृष्टि डालना हमारे विचार से अप्रासङ्गिक न होगा। जहाँ तक काव्य के उद्भव का सम्बन्ध है, कौन विद्वान् स्वीकार नहीं करेगा कि संस्कृत साहित्य की अन्य विधाओं की तरह काव्य-विधा का मी उद्भव-स्थान वेद हैं, जो 'कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्' की कविता है और जहाँ उपमा, उत्प्रेक्षा. समासोक्ति आदि अलंकार एवं लक्षणा व्यजना आदि काव्य-सामग्री विखरी पड़ी है। वेद-व्याख्याता यास्काचार्य ने वेदों में उपमा के कितने ही भेद गिना रखे हैं। सरल, प्राञ्जल माषा में लिखे इन्द्र-इन्द्राणी, श्रद्धा-मनु, उर्वशीपुरुरवा आदि के प्रणय स्नात, विस्तृत माख्यानों वाले वैदिक सूक्त क्या अपने भीतर काव्य के मूलतत्त्व छिपाये नहीं रखे हुए हैं ? हिन्दी के प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद ने स्वयं स्वीकार किया है कि उन्होंने अपने महाकाव्य 'कामायनी' के लिए मूल-सूत्र प्रदा-मनुविषयक वैदिक आख्यान से ही बटोरे हैं। वैदिक ऋषियों से प्राप्त दाय की पृष्ठभूमि पर लौकिक संस्कृत के आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने अपना आदिमहाकाव्य रामायण रचा, जिसमें वेदों की-सी सरल-सुबोध, प्रसाद गुणगुम्फित, प्राजल, स्वाभाविक भाषा के दर्शन होते हैं और मानव-प्रकृति के साथ-साथ मानवेतर प्रकृति का भी वेदों का सा सूक्ष्म निरीक्षण मिलता है। काव्य के माव-पक्ष के प्रधान होने पर भी इसका कला पक्ष मी अपने स्वामाविक रूप में बाये हुए उपमा, उत्प्रेक्षा, समासोक्ति आदि सादृश्य-मूलक अर्थालंकारों की रमणीयता से खाली नहीं है। अमिप्राय यह कि नियाज, सरल स्वमाव की आश्रमकन्याओं की तरह काव्य-कन्या का जन्म मी आश्रम में प्रकृति माता की गोद में हुआ। रामायण के बाद धीरे धीरे काव्य का विकास होने लगा। पाणिनि के लिखे 'पाताल-विजय' और 'जाम्बवती विजय' काव्यों का हम नाम ही नाम सुनते हैं। कहते हैं कि प्रसिद्ध वातिककार कात्यायन मुनि ने मी महाभाष्य में पतब्बलि द्वारा उल्लिखित 'वारहवं काव्यम्' लिखा था। प्रसिद्ध नाटककार मास के सम्बन्ध में मी सुनते हैं कि उन्होंने भी 'विष्णुधर्म' नामक काव्य की रचना को थी। शाङ्गधर आदि सुभाषित-ग्रंथों में मास के कितने ही ऐसे श्लोक मिलते हैं जो उनके नाटकों में नहीं आते। वे भास के किन्हीं काव्य-ग्रन्थों से उद्धृत किए गये होंगे, लेकिन दुर्भाग्य से सब काल-कवलित हो गये हैं। इसलिए काव्य-विकास को इस मध्यवर्ती कड़ी के हमसे एकदम गायब हो जाने के कारण हम उसके तत्कालीन विकास-स्वरूप और प्रगति को नहीं जान सकते / १-स्वस्ति पापिनये तस्मै येन रुद्रप्रसादतः। आदी व्याकरणं प्रोक्तं ततो जाम्बवतीजयम् //