Book Title: Naishadhiya Charitam 01
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 19
________________ [ 14 ] चरित में हमें नल का आंशिक चरित ही मिलता है, पूरा नहीं। इसमें दमयन्ती के साथ नल के विवाह तथा कुछ समय तक उनके आमोद-प्रमोद तक का ही कथा है। आगे का कलिप्रभावित, विपत्ति-भरा, लम्बा-चौड़ा चरित नहीं है। इससे अनुमान किया जा समता है कि श्रीहर्ष का यह उपलब्ध काव्य ग्रन्थ अपने में अधूरा है; इसका शेष माग, जो कई सर्गों में कवि ने लिखा होगा, लुप्त हो गया है। कारण यह कि चरित में सारी ही जीवनी प्रतिपादित है, जीविनी का एकदेश नहीं। यदि विवाह तक ही कथा कवि को विवक्षित होती, तो वह इस काव्य का नाम 'नैषधीयचरित' क्यों रखता ? 'दमयन्ती-स्वयंवर' अथवा 'नल-विवाह' रखता। साथ ही अनपेक्षित कलिप्रसंग यहाँ क्यों अन्तर्गत करता, जिसका युगल के आमोद-प्रमोद से कोई सम्बन्ध नहीं ? हम उक्त मत से सहमत नहीं हैं। पहली बात तो यह हैं कि काव्य के अन्त में कवि ने श्रीरस्तु नस्तुष्टये रूप में समाप्ति का मंगल कर रखा है तथा परिशिष्ट श्लोकों में उसने अपनी कृति के सम्बन्ध में लिखकर उसका समापन भी कर दिया है। यदि वे श्लोक प्रक्षिप्त माने जॉय-जैसे कि वे मानते हैं तो प्रत्येक सर्ग के अन्त में दिये गये कवि के आत्मपरिचय सम्बन्धी अन्य श्लोक भी क्यों प्रक्षिप्त न माने जायँ ? फिर तो हम कवि के माता-पिता एवं उसकी कृतियों के सम्बन्ध में अन्धकार में हो पड़े रहेंगे। वे हो प्रामाणिक क्यों ? दूसरे, कवि ने अपने श्रीमुख से सर्गों के अधिकतर श्लोकों में अपने काव्य के लिए 'चारु' शब्द का प्रयोग कर रखा है। चारु, उज्ज्वल, शुचि शब्द शृङ्गार-रस के पर्याय हैं। पहले सर्ग के अन्त में 'शृङ्गार-भङ्गया' लिखकर ग्यारहवें सर्ग के अन्त में अपने काव्य को कवि 'शृङ्गारामृतशीतगुः' ( शृंगारस-रूप अमृत-मरा चौद ) कह गया है। इससे सिद्ध होता है कि कवि को यह महाकाव्य शृंगारस-प्रधान हो रखना अभीष्ट रहा। उसने इसीलिए इसको स्वयंवर और स्वयंवर के प्रणयि युगल का शृगार-चित्रण तक ही सीमित रखा। इसमें उसने कलिपमावित, शृङ्गार विरोधी, विपत्ति-पूर्ण उत्तर नल-चरित क्यों वर्णन करना था ? तीसरे, यदि नैषध काव्य का कोई अंश अवशिष्ट रहा होता, तो उसके बारह-तेरह टीकाकारों में से कोई भी तो इस सम्बन्ध में कुछ सूचना देता। कवि से थोड़े ही समय बाद के सर्व-प्रथम टीकाकार विद्याधर ( 1250-60 ई. के लगभग ) भी चुप हैं। रही चरित शब्द की व्यापकता की बात। चरित शब्द तो एक देश में मो प्रयुक्त हो सकता है। एकदेश और एकदेशी में अभेद-सम्बन्ध कोई नयी बात नहीं। गद्यकाभ्य के सम्राट् बाणभट्ट ने अपने 'हर्षचरित' में अपने आश्रयदाता सम्राट हर्षवर्धन के चरित का एकदेश ही तो लिख रखा है, सारा नहीं। बाण से सम्राट के प्रशंसकों द्वारा उनके चरित लिखने का अनुरोध करने वालों को उन्होंने स्पष्ट कह रखा है:-"कः खलु पुरुषायुषशतेनापि शक्नुयादविकलस्य चरितं वर्णयितुम् / एकदेशे तु यदि कुतूहलं वः, सज्जा वयम्" / तदनुसार एकदेश ही लिखकर बाण ने उसके लिए चरित शब्द का ही प्रयोग किया है : भवभूति ने भी रामचन्द्र की जोवनो का पूर्वार्ध हो लिखकर उसे 'महावीरचरितम्' हो कहा है। फिर नल का एकदेश लिखने पर उसके लिए चरित शब्द के प्रयोग के सम्बन्ध में श्रीहर्ष के विरुद्ध आपत्ति क्यों उठाई जाय ? इसी तरह कलि-प्रसङ्ग अन्तर्गत करने के तर्क में भी बल नहीं है। जीवन के आमोद-प्रमोद-पूर्ण उज्ज्वल पक्ष

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