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काठियावाड़ आदि के गोहिल कोई सहायता देनेवाला आश्रयस्थान था। इसलिये एक प्रकार से ये शुरू शुरू में इधर-उधर मारे मारे फिरते रहे और बागियों की तरह डाकुओं का सा जीवन व्यतीत करते रहे। ऐसी अनवस्था में इनका राजपूताने के बड़े बड़े राजघरानों से संबंध विछिन्न हो गया
और ये अपना पूर्व निवासस्थान और कौटुंबिक संबंध भी भूल गए। पीछे से दो सौ चार सौ वर्ष बाद जब ये फिर सँभले और अपने पैर स्थिर कर चुके तब फिर अपने पूर्वजों की देख-भाल करने लगे। उस समय जो भाट-चारण इनके समीप पहुँचे और उन्होंने जो कुछ कपोलकल्पनाएँ दौड़ाकर इनके वंश आदि का नामकरण किया उसी को इन्होंने सत्य मानकर उसके अनुसार अपना इतिहास गढ़ लिया। इन गोहिलों को शायद इतनी स्मृति तो रह गई थी कि इनका पूर्वज कोई शालिवाहन था। इसलिये भाटों ने इतिहास-प्रसिद्ध शालिवाहन ही को इनका पूर्वज बतलाया और उसका चंद्रवंशी होना मानकर इनका वंशानुक्रम उसके साथ जा मिलाया। लेकिन वास्तव में, जैसा कि ओझाजी ने बतलाया है, ये मेवाड़ के गुहिल शालिवाहन की संतान हैं और सूर्यवंशी हैं। भाटों की कल्पना के कारण राजपूतों के वंशों में बड़ी बड़ी अनवस्थाएँ उत्पन्न हो गई हैं यह तो सभी इतिहासज्ञ जानते हैं— जैसा कि पृथ्वीराज रासो की कल्पना के कारण सोलंकी और चाहमानों का भी अग्निवंशी होना रूढ़ हो गया है, जो नितांत भ्रममूलक है। अब जब कि हमारे पास बहुत से सत्य ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं, केवल भाटों की उन निर्मूल कल्पनाओं के ऊपर निर्भर रहना और इतिहास के अंधकार में निमग्न रहना आवश्यक नहीं है। सत्य की गवेषणा कर अपने वंश की शुद्धि का पता लगाकर पूर्वजों के इतिवृत्त का उद्धार करना ही यथार्थ में पितृ-तर्पण और शुद्ध श्राद्ध है।
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