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प्रेमरंग तथा प्राभासरामायण श्रीराम राज बैठे ऐंठे न सुने कोय । धन्य धान्य भरी धरनी करनी स्वधर्म होय ॥ अधर्म का लेश न जाना । जन ने जग में राम बखाना । देव मुनिगन सबने इष्ट सा माना। धर्मादिक पदार्थ जिन पाना ॥
'प्रेमरंग' गाए अनायास तर जाना ॥११॥ इति श्री आभासरामायणे युद्धकांड: समाप्तः ।
उत्तरकांड (रागिनी परज का जंगला, ताल धीमा तिताला, छंद रेखता*) मिला जब राज रघुबर को । मुनी सभी आए मिल कर को॥ मरे कहते हैं निशिचर को । लछमन धन धन कहैं फिर कों ॥१॥ प्रभु पूछे हैं धन रख का । कहो बरदान सब बल का ॥ कहें हैं अगस्त पुलस्त कुल का । जनम बीते लंकेश्वर का ॥२॥ अज के हेतीसों विद्युतकेश । उसे सुत साँब दिया सोसुकेश । उसे सुत तीन हुए सो लंकेश । चढ़ाए रन मों जिन हर कों ॥३॥
*क प्रति में उत्तरकांड के प्रारंभ में भी निम्नलिखित पाँच दोहे अधिक हैं
[ व्याहृति ] जिहि बेद कही वही सरूप धर राम । निमिख गोमती-तीर जग कीन्ह मुनि विश्राम ॥ भूदेव बानर लंकपति जनक कैकयाधीश । मुनि मिल सेवत चरन युग भ्रात मित्र अवधीश ॥ भुवपति दीनदयाल प्रभु रावन मारन काज । रघुपति सियपति श्रीपति कहें लव-कुश सिरताज ॥ बनके शिष्य वल्मीकि के आदि-काव्य श्रुति नाम । चौबिस सहस की संहिता सात कांड सरनाम ॥ स्वर्ग मृत्यु पाताल में राम नाम विश्राम । ऐसे हुए न होपंगे सजन मन अभिराम ॥
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