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खुमान और उनका हनुमत शिखनख ४७३ प्रगटी प्रभाउ तेज त्रिकुटी तरल बंदी;
भृकुटी बिकट महाबीर मरकट की॥८॥ सत्रु मतिमंद होत दूरि दुख-दुंद होत,
मंगल अनंद होत मौज लों मनुज की। भने कबि 'मान' मन-बंछित की दानि भक्ति
भाव की निदान है सिया सी अनुज की। साँची सरनागत की लागति सहाइ जापै,
जागति है ताकति न देवता दनुज की। खल-दल-गंजनी है रंजनी प्रपन्न कृपा,
भौंह भय-भंजनी है अंजनी-तनुज की ॥६॥
श्रवण जिन्हें कोप कंपत अकंपत सकंप जे
तमीचर त्रियान तुद तोषन तुवन के। पिंग होत पिंगल सुदंड जात दंडबल,
नाठ होत माठर दिनेस के उवन के॥ भने कबि 'मान' युद्ध क्रुद्ध के बढ़त देखि
जिनके चढ़त प्रान छूटत दुवन के। घोर बिक्रमन अक्ष अक्ष के भ्रमन
बंदी उग्र ते वे श्रवन समीर के सुवन के ॥१०॥ जहाँ जेते होत रघुबीर-गुन-गान तेते,
सुनत निदान दानि कीसनि अनंद के । कुंडलनि मंडित उमंड खल खंडन की,
सींक सोक-नासनि सिया के दुख-दंद के ॥ भने कबि 'मान' भरे ज्ञान के मयूष पिएँ,
बचन-पियूष सदा राम-मुख-चंद के।
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