________________
४६४
नागरीप्रचारिणी पत्रिका शरण न लेनी पड़ती; शेरशाह की मुद्राओं पर हिंदी का विधान न होता; दक्षिण में हिंदी राज्य-भाषा न बनती। हमारी समझ में वर्तमान उर्दू-लिपि शाहजहाँ के समय में प्रस्तुत रूप धारण कर सकी थी। यह एक संकर लिपि कही जा सकती है। रही भाषा को बात। यह स्पष्ट ही है कि उस समय यदि उर्दू भाषा इसी रूप में प्रचलित होती तो जायसी अवधी में कदापि न लिखते। हमको तो एक भी कारण नहीं देख पड़ता जिसके आधार पर पदमावत की लिपि को उर्दू मान लें। वस्तुत: वह कैथी लिपि है।
लिपि की भाँति ही रचना-काल भी अनिश्चित है। अपने लेख में अनुमान के आधार पर जो कुछ हमने कहा है उस पर अब तक विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। स्वयं ओझाजी ने भी उस पर विशेष ध्यान देने का कष्ट नहीं किया है। आपका कथन है-"स्तुतिखंड पीछे से लिखा गया, मानना भी कल्पनामात्र है। दूसरे अर्थात् सिंहल द्वीप वर्णन खंड के प्रारंभ में ही वह लिखता है कि 'अब मैं सिंहल द्वीप की कथा गाता हूँ' जिससे स्पष्ट है कि पहले स्तुति-खंड को समाप्त करने के पश्चात् उसने द्वितीय खंड लिखना प्रारंभ किया था ।" इस टिप्पणी को देखकर हमें तो यहो भान होता है कि ओझाजी ने हमारे कथन पर-"हम इस संपूर्ण खंड को ग्रंथ की 'इति' के उपरांत की रचना मानने में असमर्थ हैं। 'सिंहल द्वीप कथा अब गावौ' का 'अब' ही हमें लाचार करता है"-कुछ भी ध्यान नहीं दिया। हम तो बंदना-शेरशाह की वंदना-को बाद की रचना मानते हैं। जान पड़ता है कि ओझाजी ने मिश्रबंधुओं से हमारे कथन में कुछ विशेषता न देखकर ही उन्हीं के रूप में हमारा खंडन किया है। हम यह मानते हैं कि जायसी ने अपना पदमावत में रचना-तिथि महीने में नहीं दी है; पर हम यह नहीं कहते कि हम उसके लिये अनुमान भी नहीं कर सकते । इसी कारण
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com