Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 13
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tolkale lo *lcl@blo ‘lo?li/33 ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨ 6272008 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umara..anbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषय 2 पृष्ठ -१२-कवि जटमल रचित गोरा बादल की बात [ लेखक-महामहो पाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद श्रोझा .. १३-काठियावाड़ आदि के गोहिल [ लेखक-श्री मुनि जिनविजय, विश्वभारती, बोलपुर]... ... १४-प्रेमरंग तथा श्राभासरामायण लेखक-श्री ब्रजरत्नदास बी० ए०, एल-एल० बी०, काशी]... ... १५-खुमान और उनका हनुमत शिखनख [लेखक-श्री अखौरी गंगाप्रसादसिंह, काशी] ... ..... .... ४६७ १६-विविध विषय १८१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) कवि जटमल रचित गोरा बादल की बात [ लेखक–महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओमा] सुलतान अलाउद्दीन खिलजी की चित्तौड़ पर चढ़ाई के समय काम आनेवाले वीर गोरा बादल की कथा राजपूताने आदि में घर घर प्रसिद्ध है। प्रत्येक जगह उक्त वीरों की वीर-गाथा बड़े ही प्रेम से सुनी जाती है। गत सितंबर मास में मेरा दौरा बीकानेर राज्य के इतिहास-प्रसिद्ध भटनेर ( हनुमानगढ़ ) नामक दुर्ग के अवलोकनार्थ. हुआ। उस समय बीकानेर में पुरानी राजस्थानी एवं हिंदी भाषा के परम प्रेमी ठाकुर रामसिंहजी एम० ए० (डाइरेक्टर ऑफ पब्लिक इंसट्रक्शन, बीकानेर स्टेट) और स्वामी नरोत्तमदासजी एम० ए० (प्रोफेसर ऑफ हिंदी तथा संस्कृत, डूंगर कॉलेज, बीकानेर) से मिलना हुआ। मुझे यह बात जानकर बड़ा हर्ष हुआ कि ये दोनों विद्वान आजकल ढोला-मारू की प्राचीन कथा का संपादन कर रहे हैं और 'गोरा बादल की बात' नामक पद्यात्मक पुस्तक का भी संपादन करनेवाले हैं। उन्होंने मुझको उपर्युक्त दोनों पुस्तकें दिखलाई, जिनको मैंने इस प्रवास में पढ़ा। पाठकों के अवलोकनार्थ आज मैं 'गोरा बादल की बात' नामक पुस्तक का आशय यहाँ पर प्रकट कर ऐतिहासिक दृष्टि से उस पर कुछ विवेचना करता हूँ। प्रारंभ में यह बतला देना आवश्यक है कि उक्त काव्य का कथानक मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत से मिलता जुलता है तो भी कई स्थलों में उससे भिन्नता भी है। संभव है कि जटमल ने, जो इस ग्रंथ का रचयिता है, जायसी के ग्रंथ 'पद्मावत' को देखा हो अथवा सुना हो; क्योंकि वह उसकी रचना से ८३ वर्ष पूर्व बन चुका था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० नागरीप्रचारिणी पत्रिका देखकर राजा को राघव के विषय में संदेह उत्पन्न हुआ। निदान उसने चित्तौड़ लौट आने पर उसको वहाँ से निकाल दिया । तब वह साधु का भेष धारण कर दिल्ली पहुंचा, जहाँ अल्लावदी (अलाउद्दीन) बादशाह राज्य करता था। एक दिन बादशाह शिकार खेलने को चला, उस समय राघव चेतन ने अपना वाद्य बजाया, जिसकी ध्वनि सुन वन के सब जानवर उसके पास चले गए और शाह को कोई जानवर नहीं मिला। अलाउद्दीन भी उस वाद्य की ध्वनि सुन वहाँ पहुँचा और वहाँ का चरित्र देख उसे आश्चर्य हुआ। फिर वह घोड़े से उतरकर राघव के पास गया और उसके राग से प्रसन्न हो गया। उसने उसको अपने यहाँ चलने को कहा। पहले तो राघव चेतन ने जाना स्वीकार न किया, परंतु अंत में बादशाह का आग्रह देख वह उसके साथ हो गया। उसकी गानविद्या की निपुणता से बादशाह का प्रतिदिन उस पर स्नेह बढ़ने लगा। एक दिन बादशाह के पास कोई व्यक्ति खरगोश लाया । उसके कोमल अंग पर हाथ फेरते हुए बादशाह ने राघव से पूछा कि इससे भी कोमल कोई वस्तु है ? उसने उत्तर दिया कि इससे हजार गुनी कोमल पद्मिनी है। शाह ने उससे पूछा कि स्त्रियाँ कितनी जाति की होती हैं। राघव ने स्त्रियों की चार जातियों के नाम चित्रिणी, हस्तिनी, शंखिनी और पद्मिनी बतलाए, और उनके लक्षणों का वर्णन करते हुए सबसे पहले पद्मिनी जाति की स्त्री को बढ़ावे के साथ प्रशंसा की; जैसे कि उसके शरीर के पसीने से कस्तूरी की सी वास का फैलना, मुख से कमल की सी सुगंध का निकलना और भैौरों का उसके चारों और मँडराना आदि। तत्पश्चात् चित्रिणी, हस्तिनी और शंखिनी जाति की स्त्रियों का वर्णन करते हुए शंखिनी की बुराइयाँ बतलाने में उसने कसर नहीं रखा। फिर शश, मृग, वृषभ और तुरंग जाति के पुरुषों के लक्षण बताते हुए शश जाति का पुरुष पद्मिनी के, मृग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि जटमल रचित गोरा बादल की बात ३६१ जाति का चित्रिणी के, वृषभ जाति का हस्तिनी के और तुरंग जाति का पुरुष शंखिनी के लिये उपयुक्त बतलाया। बादशाह ने राघव की बात सुनकर कहा कि हमारे अंत:पुर में दो हजार स्त्रियाँ हैं। उनको महल में जाकर देखो। उसने उनको प्रत्यक्ष देखना अस्वीकार कर तेल के कुंड में उन सुंदरियों के प्रतिबिम्ब देखकर कहा कि इनमें चित्रिणी, हस्तिनी और शंखिनी जाति की स्त्रियाँ तो बहुत हैं, पर पद्मिनी जाति की एक भी नहीं है। इस पर सुलतान ने कहा कि जहाँ कहीं हो वहाँ ले जाकर मुझे पद्मिनी जाति की स्त्री शीघ्र दिखलाओ। उसके लिये जो माँगो वह मैं तुम्हें दूंगा। उसने कहा कि पद्मिनी समुद्र के परे सिंहलद्वीप में रहती है। समुद्र को देखकर कायरों के हृदय कंपित होते हैं। राघव का यह कथन सुनकर सुलतान ने पद्मिनी के लिये प्रस्थान कर समुद्र के किनारे पड़ाव डाला और पद्मिनी को देखने के लिये हठ किया। तब राघव ने सुलतान से कहा कि पद्मिनी समीप में तो रत्नसेन चहुवान के पास है। यह सुनकर शाह ने बड़ी भारी सेना के साथ रत्नसेन पर चढ़ाई कर दी और वह चित्तौड़ के समीप आ ठहरा। वह १२ वर्ष तक किले को घेरे रहा, परंतु रत्नसेन ने उसकी एक न मानी। तब उस (सुलतान ) ने राघव से पूछा कि अब क्या करें। चित्तौड़ का गढ़ बड़ा बाँका है, वह बलपूर्वक नहीं लिया जा सकता। राघव ने सुलतान से कहा कि अब तो कपट करना चाहिए; डेरे उठाकर लौटने का बहाना करना चाहिए, जिससे राजा को विश्वास हो जाय। फिर सुलतान ने अपने खवास को भेजकर रत्नसेन से कहलाया कि “मैं तो अब लौटता हूँ। मुझे एक प्रहर के लिये ही चित्तौड़ का किला दिखला दो और मेरे इस वचन को मानो तो मैं तुम्हे सातहजारी (मंसबदार) बना दूं, पद्मिनी को बहिन और तुम्हें भाई बनाऊँ तथा बहुत से नए इलाके थी तुम्हें दूं।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका राजा ने जब देखा कि सुलतान डेरे उठा रहा है तब उसको गढ़ पर बुलाया। वह (बादशाह ) अपने साथ दस-बीस बहादुरों को लेकर कपटपूर्वक वहाँ पहुँचा। राजा ने शाह की बड़ी खातिर की। बादशाह ने राजा से कहा कि तुम मेरे भाई हो गए हो, मुझे पद्मिनी दिखलाओ ताकि मैं घर लौट जाऊँ। रत्नसेन चहुवान ने पद्मिनी को कहा कि सुलतान ने तुमको बहिन बनाया है सो तुम उसको अपना मुँह दिखला दो। इस पर उसने अपनी एक अत्यंत सुंदरी दासी को अपने वस्त्राभरण पहिनाकर बादशाह के पास भेजा जिसे देखकर वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। राघव ने शाह से कहा कि हे सुलतान, यह पद्मिनी नहीं है, ऐसा कहकर उसने पद्मिनी के रूप, गंध आदि की प्रशंसा की। इस पर शाह ने राजा का हाथ पकड़कर कहा कि तुमने मुझसे कपट कर अन्य स्त्री दिखलाई है। पद्मिनी से कहो कि वह मुझे अपना मुंह दिखलावे । तब पद्मिनी ने खिड़की से अपना मुँह बाहर निकाला, जिसे देखते ही शाह ने गिरते गिरते एक स्तंभ को पकड़ लिया । फिर उसने कहा-भाई रत्नसेन क्षण भर के लिये आप मेरे डेरे पर चलो, ताकि मैं भी आपका सम्मान करूँ। सुलतान वहाँ से लौटकर रत्नसेन के साथ पहले दरवाजे पर पहुँचा, उस समय उस (सुलतान ) ने उसको लाख रुपए दिए । दूसरे दरवाजे पर पहुँचने पर उसने उसको दस किले देकर लालच में डाला। फिर इस प्रकार वह राजा को लुभाकर उसे किले से बाहर ले गया और उसे कपटपूर्वक पकड़ लिया, जिससे गढ़ में आतंक छा गया। बादशाह राजा को नित्य पिटवाता, चाबुक लगवाता और कहता कि पद्मिनी को देने पर ही तुझे आराम मिलेगा। चित्तौड़ के निवासियों को दिखलाने के लिये राजा को दुर्ग के सामने लाकर लटकवाता, जिससे वहाँ के निवासी दुखी हो गए। अंत में मार खाते हुए राजा ने कायर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि जटमल रचित गोरा बादल की बात ३६३ होकर पद्ममावती देना स्वीकार किया और रानी को लेने के लिये खवास भेजकर कहलाया कि मेरे जीवन की आशा करती हो तो एक क्षण भी विलंब मत करो। रानी ने राजा से कहलाया कि प्राण चले जायँ तो भी अपनी स्त्री दूसरे को नहीं देनी चाहिए। मृत्यु से कोई नहीं बच सकता, इसलिये प्राण देकर संसार में यश लेना चाहिए, मुझको देने में आप कलंकित होंगे और मेरा सतीत्व नष्ट होगा। फिर रानी पद्मावती पान का बीड़ा लेकर बादल के पास गई और कहा कि अब मेरी रक्षा करनेवाला कोई नहीं दीखता, केवल तुझसे ही आशा है। उसने उसको कहा कि आप गोरा के पास जाय, मैं बीड़ा सिर पर चढ़ाता हूँ, निश्चित रहें। फिर वह तुरंत ही गोरा के पास गई और पति को विपत्ति से छुड़ाने के विचार से कहा कि मंत्रियों ने मुझे बादशाह के पास जाने की सलाह दी है। इस स्थिति में जैसा तुम्हारी समझ में आवे वैसा करो जिससे राजा छूटे। गोरा ने बीड़ा उठाकर कहा कि अब आप घर जायें। फिर गोरा और बादल परस्पर विचार करने लगे कि बादशाह की अपार सेना से किस प्रकार युद्ध किया जाय। बादल ने कहा कि पाँच सौ डोलियों में दो दो योद्धा बैठे और चार चार योद्धा प्रत्येक डोली को उठावें। उन ( डोलियों ) के भीतर सब भाँति के शस्त्र रख सिँगारे हुए कोतल घोड़े आगे कर उनको बादशाह के पास ले जाकर कहें कि हम पद्मिनी को लाए हैं, पर कोई तुर्क उसको देखने के लिये आने की इच्छा न करे । अनंतर योद्धा लोग डोलियों को छोड़ शस्त्र धारण करें, रण में पीठ न दिखाकर राजा के बंधन काटें और शाह का सिर उड़ावें। बादल के इस कथन को सभी ने स्वीकार किया। डोलियाँ सुसज्जित हो जाने पर मखमल आदि के कीमती पर्दे उन पर लगाए गए, फिर उनमें सशस्त्र वीरों को बिठला राजपूत वीर ही उन्हें अपने कंधों पर उठाकर ले चले। एक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका वकील को बादशाह के पास भेजकर कहलाया कि रत्नसेन आज तुम्हें पद्मिनी सौंपता है। सुलतान यह बात सुन बड़ा ही प्रसन्न हुआ, उसने बादल को कहलाया कि पद्मिनी शीघ्र ही लाई जाय। सुलतान के ये वचन सुनकर बादल डोलियों के समीप आया और अपने वीरों को कहने लगा कि ज्योंही मैं कहूँ, त्योंही भाला हाथ में लेकर शत्रुओं पर टूट पड़ना। भाला टूट जाने पर गुरज और गुरज के टूट जाने पर कटार का वार करना । ___ जब अल्पवयस्क बादल लड़ने को चला तो उसकी माता ने आकर कहा कि हे पुत्र! तूने यह क्या किया। तू ही मेरा जीवन है, तेरे बिना संसार मेरे लिये अंधकार है और सब कुछ सूना तथा नीरस है। तेरे बिना मुझको कुछ नहीं सूझता। मेरे गात्र टूटते हैं, छाती फटती है, जहाँ कठोर तोर बरसते हैं वहाँ तू आगे बढ़कर शाह की सेना से कैसे लड़ेगा ? बादल ने अपनी माता को कहा-- "हे माता ! तू मुझे बालक क्यों कहती है ? बादशाह के सिर पर तलवार का प्रहार करूं तो मुझे शाबाश कहना। सिंह, बाज पक्षी और वीर पुरुष कभी छोटे नहीं कहलाते। मेरी प्रतिज्ञा है कि मैं आगे बढ़कर खूब युद्ध करूँगा। स्वामी के लिये अनेक योद्धाओं को मारूँगा, हाथियों को गिराकर, बख्तरों को तोड़, तलवार चलाता हुआ बादशाह को मारूँगा। यदि मर गया तो जगत् में मेरा यश होगा और युद्धस्थल से मुँह मोड़कर मैं तुझे कभी न लजाऊँगा।” बादल की माता उसकी प्रतिज्ञा की प्रशंसा कर 'तेरी जय हो' यह आशिष देती हुई लौट गई। फिर उस ( माता) ने बादल की स्त्री के पास जाकर कहा कि तेरा पति मेरे समझाए तो समझता नहीं, अब तू जाकर उसको रोक । उसकी नवोढ़ा स्त्री ने उससे कहा कि हे पति ! अभी तो आपने शय्या का सुख भी नहीं भोगा। जहाँ साँगों के प्रहार होते हैं, निरंतर तोपों से गोले चलते हैं और सिर टूट टूटकर धड़ों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि जटमल रचित गोरा बादल की बात ३६५ पर गिरते हैं, ऐसे युद्ध में आपको नहीं जाना चाहिए। बादल ने उत्तर दिया कि यदि युद्ध में मृत्यु हुई तो श्रेष्ठ कहलावेंगे और जीते रहे तो राज्य का सुख भोगेंगे। हे स्त्री ! दोनों प्रकार से लाभ ही है। यदि सुमेरु पहाड़ चलायमान हो, समुद्र मर्यादा छोड़ दे, अर्जुन का बाण निष्फल जाय, विधाता के लेख मिट जायँ, तभी होनहार टल सकती है। मैं रण से कभी विमुख न होऊँगा। फिर उसने अपना जूड़ा (मस्तक के बाल) काटकर अपनी स्त्री को इस अभिप्राय से दिया कि उसके युद्ध में काम आने पर वह इस जूड़े के साथ सती हो जाय । ____ गढ़ से डोलियाँ नीचे लाई गई। उन पर सुगंधित अरगजा छिड़का हुआ था, जिससे चारों ओर भौरे मँडलाते थे। असली भेद बादशाह को मालूम नहीं हुआ। गोरा और बादल दोनों घोड़े पर सवार हुए। बादशाह के पास पहुँच उन्होंने सलाम किया और अर्ज की कि पद्मिनी के आने की खबर सुनकर आपके अमीर उसको देखने की इच्छा से दौड़ने लगे हैं, जो आपके एवं हमारे लिये लज्जा की बात है। इस पर बादशाह ने आज्ञा दी कि कोई उठकर पद्मिनी को देखने की चेष्टा करेगा तो वह मारा जायगा। तदनंतर उन्होंने शाह से कहा कि रत्नसेन को हुक्म हो जाय कि वह पद्मिनी से मिलकर उसे आपके सुपुर्द कर दे। सुलतान ने इस बात को स्वीकार कर लिया। फिर रत्नसेन जहाँ पर कैद था, वहाँ जाकर बादल ने अपने मस्तक को उसके चरणों पर रख दिया। उस पर राजा ने क्रोधित हो उससे कहा कि तूने बुरा काम किया कि पद्मावती को ले आया। इस पर बादल ने कहा कि पद्मावती को यहाँ नहीं लाये हैं। डोलियों को भीतर ले जाकर लुहार से राजा की बेड़ियाँ कटवाई। तबल के बजते ही सुभटगण डोलियों से निकल आए। रण-वाद्य बजने लगे। जिससे शुर वीरों का चित्त उत्साहित होने लगा। शाही सेना में कोला ३५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका हल मच गया। बात और की और हो गई । पद्मिनी अपनी ही ठौर रह गई और युद्ध के लिये राजपूत आ डटे। अफीम का सेवन किए हुए तीन सहस्र क्षत्रिय वीर मरने मारने को उद्यत हो गए। उधर बादशाह भी अपनी सेना को सज्जित कर हाथी पर सवार हो गया। युद्ध प्रारंभ हुआ। गोरा और बादल वीरता दिखलाकर शत्रुओं के सिर उड़ाने लगे। तलवार, तीर, भाले आदि शखों की वर्षा होने लगी और एक शाही अमीर के हाथ से गोरा मारा गया। बादल ने बहुत से शत्रुओं का संहार किया और राजा को बंधन से मुक्त कर घोड़े पर बिठला चित्तौड़ को भेज दिया। लोहू की नदियाँ बहने लगी, दोनों ओर के अनेक वीर मारे गए, अंत में बादल विजयी होकर लौटा। पद्मिनी ने आकर बादल की आरती की और मोतियों का थाल भरकर उसके मस्तक पर वारा। उस (पद्मिनी) ने उसको चिरजीव होने की आशीष दी। वह गोरा बादल की वीरता की प्रशंसा करने लगी। बादल की स्त्री उसको बधाई देकर शाह के हाथी के दाँतों पर घोड़े के पाँव टिकाने तथा शाह पर तलवार चलाने की प्रशंसा कर उसके उत्साह को बढ़ाने लगी। बादल की चाची (गोरा की स्त्री) बादल से आकर पूछने लगी कि मेरा पति युद्ध में लड़ता हुआ मारा गया, या भागता हुआ ? उसके उत्तर में बादल के मुख से गोरा की वीरता का वर्णन सुन गोरा की स्त्री अपने पति की पगड़ी के साथ सती हो गई। उपर्युक्त अवतरण से पाठकों को इस कथा का सारांश ज्ञात होगा। जायसी और जटमल के लेखों में जो अंतर है, उसके कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं मलिक मुहम्मद हीरामन तोते के द्वारा पद्मिनी का रूप सुनकर उस पर मोहित होना बतलाता है और जटमल भाटो द्वारा पद्मिनी का परिचय कराता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि जटमल रचित गोरा बादल की बात ३६७ जायसी कहता है कि पद्मिनी पर आसक्त बना हुआ राजा, योगी बनकर सिंहल को चला, अनेक राजकुमार भी चेले होकर उसके साथ हो गए और तोते को भी अपने साथ ले लिया। विविध संकट सहता हुआ प्रेम-मुग्ध राजा सिंहल में पहुंचा। इस विषय में जटमल का यह कथन है कि योगी ने मृगचर्म पर बैठकर मन्त्र पढ़ा जिसके प्रभाव से रत्नसेन तथा वह योगी सिंहल में पहुँचे । जायसी तोते के द्वारा पद्मिनी का रत्नसेन से परिचय होना और वसंत पंचमी के दिन विश्वेश्वर के मंदिर में रत्नसेन तथा पद्मिनी के परस्पर साक्षात् होने पर उसका मोहित हो जाना और अनेक प्रकार से आपत्तियाँ उठाने के बाद शिव की आज्ञा से सिंहल के राजा का रत्नसेन के साथ पद्मिनी के विवाह होने का वर्णन करता है; तो जटमल कहता है कि जब रत्नसेन सिंहल में पहुँच गया, तब उस योगी ने वहाँ के राजा को रत्नसेन का परिचय देकर पद्मिनी के लिये उसे योग्य वर बतलाया, जिससे सिंहल के राजा ने उसका विवाह उसके साथ कर दिया। जायसी बतलाता है कि रत्नसेन सिंहल में कुछ काल तक रह गया। इस बीच में उसकी पहले की राना नागमती ने विरह के दुःख से दुःखित होकर एक पक्षी के द्वारा उसके पास संदेश पहुँचाया, तब रत्नसिंह को चित्तौड़ का स्मरण हुआ, फिर वह वहाँ से बिदा हो कर अपनी नई रानी (पद्मिनी) सहित चला। मार्ग में समुद्र के भयंकर तूफान आदि आपत्तियाँ उठाता हुआ बड़ी कठिनता से अपनी राजधानी को लौटा; तो जटमल का कहना है कि राजा, पद्मावती और योगी आदि उड़नखटोले ( विमान ) में बैठकर चित्तौड़ को पहुँचे। __ जायसी राघव चेतन नामक ब्राह्मण का ( जो जादू-टोने में निपुण था) राजा के पास आ रहना और जादूगरी का भेद खुल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका जाने पर उसका राजा द्वारा वहाँ से निकाला जाना तथा उसका अलाउद्दीन के पास जाकर पद्मिनी के सौंदर्य की प्रशंसा करना बतलाता है और जटमल राघव चेतन का राजा के साथ, सिंहल से उड़नखटाले में बैठ चित्तौड़ आने का उल्लेख कर कहता है कि राजा पद्मिनी पर इतना अधिक आसक्त हो गया कि उसको देखे बिना जल तक नहीं पीता था । एक दिन वह शिकार को गया, जहाँ प्यास से व्याकुल हो गया; जिस पर राघव ने ठीक पद्मिनी के सदृश पुतली बनाई, यहाँ तक कि पद्मिनी की जंघा पर का तिल भी विद्य मान था । उस तिल को देखकर राजा को उस पर संदेह हुआ और उसको उसने अपने यहाँ से निकाल दिया । जायसी ने राघव चेतन के दिल्ली जाने और पद्मिनी के रूप की बादशाह से प्रशंसा करने पर बादशाह के उस पर आसक्त होने और रत्नसिंह के पास दूत भेज पद्मिनी दे देने के लिये कहलाने तथा उसके इनकार करने पर चित्तौड़ पर चढ़ाई करने का उल्लेख किया है । जमल ने राघव चेतन का साधु बनकर दिल्ली जाना, उसकी गान - विद्या से अलाउद्दीन का उससे प्रसन्न होना, एवं पद्मिनी आदि चारों जाति की स्त्रियों का वर्णन करने पर बादशाह का पद्मिनी जाति की स्त्री पर आसक्त होना और पद्मिनी के लिये चित्तौड़ पर चढ़ आना बतलाया है । जायसी का कथन है कि आठ वर्ष तक चित्तौड़ को घेरे रहने पर भी सुलतान उसको फतह नहीं कर सका। ऐसे में दिल्ली पर शत्रु की पश्चिम की ओर से चढ़ाई होने की खबर पाकर उसने कपटकौशल से राजा को कहलाया कि हम आपसे मेल कर लौटना चाहते हैं, पद्मिनी को नहीं माँगते । इस पर विश्वास कर राजा ने उसको चित्तौड़ के दुर्ग में बुलवाकर आतिथ्य किया । वहाँ पर शतरंज खेलते समय अपने सामने रखे हुए एक दर्पण में पद्मिनी का प्रतिबिंब देख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि जटमल रचित गोरा बादल की बात ३८६ कर उसकी दशा और की और हो गई । दूसरे दिन राजा के प्रति अत्यंत स्नेह दिखलाकर उसके वहाँ से बिदा होते समय राजा भी उसको पहुँचाने चला । प्रत्येक द्वार पर वह राजा को भेंट देता गया और सातवें दरवाजे के बाहर निकलते ही, गुप्त रीति से तैयार रखी हुई, सेना के द्वारा उसे पकड़वा लिया। फिर उसको बंदी बना दिल्ली ले गया, जहाँ पर वह राजा से कहता कि पद्मिनी के देने पर ही तुम कैद से मुक्त हो सकोगे । इस विषय में जटमल कहता है कि १२ वर्ष तक लड़ने पर भी सुलतान किले को फतह नहीं कर सका, तब उसने दिल्ली लौट जाने के बहाने से डेरे उठाना शुरू कर दिया और रत्नसेन से कहलाया कि मैं तो अब लौटता हूँ, मुझे एक प्रहर के लिये ही चित्तौड़ का किला दिखला दो और मेरे इस वचन को मानो तो मैं तुम्हें सात हजारी (मंसबदार) बना दूँ, पद्मिनी को बहिन और तुम्हें भाई बनाऊँ तथा बहुत से नए इलाके भी तुम्हें दूँ । सुलतान के इस प्रस्ताव को राजा ने स्वीकार किया और बादशाह को अपना मिहमान बना किले में बुलाया । वहाँ उसने पद्मिनी को देखना चाहा । फिर खिड़की के बाहर निकला हुआ पद्मिनी का मुख देखते ही उसकी पापमय वासना बढ़ गई । उसने राजा को लोभ में डाल अपना मिहमान बनाने की इच्छा प्रकट कर उसको अपने साथ लिया । प्रत्येक दरवाजे पर पारितोषिक आदि देकर राजा का मन बढ़ाता गया और किले के अंतिम दरवाजे से बाहर जाते ही उसने राजा को पकड़वा लिया । जायसी लिखता है कि कुंभलनेर के राजा ने पद्मिनी को लुभाकर ले आने के लिये एक वृद्धा दूती को चित्तौड़ में भेजा । वह तरुणी-भेष धारण कर पद्मिनी के पास पहुँची और युवा अवस्था में पति का वियोग हो जाने से कुंभलनेर के राजा के पास चलने और भोग-विलास में दिन बिताने की बात कही । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० नागरीप्रचारिणी पत्रिका यह सुनकर पद्मिनी ने उसे अपने यहाँ से निकलवा दिया। पति को कैद से छुड़ाने का संकल्प कर अपने वीर सामंत गोरा बादल से सम्मति माँगी। उस पर उन्होंने जिस भाँति सुलतान ने छल किया, उसी प्रकार उससे छल कर राजा को कैद से छुड़ाने की सलाह दी। फिर उन्होंने सोलह सौ डोलियों में पद्मिनी की सहेलियों के नाम से वीर राजपूतों को बिठलाया। अब वे पद्मिनी के स्थान पर लोहार को बैठाकर चित्तौर से दिल्ली को चले। वहाँ उन्होंने पद्मिनी के दिल्ली आने की खबर देकर सुलतान को कहलाया कि एक घड़ी के लिये उसको अपने पति से मिलकर गढ़ की कुंजियाँ सौंपने की आज्ञा दी जाय, फिर वह आपकी सेवा में उपस्थित हो जाय। सुलतान के यह स्वीकार करने पर वे राजा रत्नसेन के पास पहुंचे और अपने साथ के लोहार से उसकी बेड़ी कटवाने के बाद उसे घोड़े पर सवार करा ससैन्य नगर से बाहर निकल गए। इस पर सुलतान की सेना ने पीछा किया और गोरा लड़ता हुआ मारा गया। परंतु बादल ने राजा सहित चित्तौड़ में प्रवेश किया। यहाँ जटमल का कहना है कि सुलतान राजा को नित्य पिटवाता और कहता कि पद्मिनी को देने पर ही तुम्हारा निस्तार होगा। चित्तौड़ के निवासियों को दिखलाने के लिये वह राजा को दुर्ग के सामने ले जाकर लटकवाता; इससे वहाँ के निवासी अधीर हो गए। अंत में मार खाते खाते राजा ने भी दुखी होकर पद्मिनी को दे देना स्वीकार किया। निदान रानी को लेने के लिये खवास को भेजा, जिस पर पद्मिनी ने उस प्रस्ताव को अस्वीकार किया; किंतु मंत्रियों ने राजा को बंदीगृह से मुक्त करने की इच्छा से पद्मिनी को सुलतान को सौंपने का विचार कर लिया। तब वह अपने सतीत्व के रक्षार्थ बीड़ा लेकर बादल के पास गई, जिसने उसको गोरा के पास जाकर उसे भी उद्यत करने को कहा। यद्यपि बादल छोटी अवस्था का था Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि जटमल रचित गोरा बादल की बात ४०१ तो भी वह पद्मिनी के सतीत्व - रक्षार्थ तथा अपने राजा को छुड़ाने के उसकी माता और स्त्री ने बहुत कुछ कहा, लिये तैयार हो गया । किंतु वह अपने संकल्प पर दृढ़ रहा गोरा और बादल ने पाँच सौ डोलियों में दो दो सशस्त्र राजपूत बिठलाकर प्रत्येक डोली को चार चार राजपूतों से उठवाया और उन्हें सुलतान के शिविर में ले जाकर अलाउद्दीन से कहलाया कि पद्मिनी को ले आए हैं। बादशाह की तरफ से कैदखाने में जाकर पद्मिनी को रत्नसिंह से मिल लेने की आज्ञा हो जाने पर सब डोलियाँ वहाँ पहुँचाई गई जहाँ रत्नसेन कैद था फिर राजा की बेड़ी काटी जाकर उसे घोड़े पर सवार करा चित्तौड़ को रवाना किया। अनंतर संकेतानुसार राजपूत डोलियों से निकल पड़े । सुलतान को यह भेद मालूम होने पर वह भी अपनी सेना को ले खड़ा हुआ और युद्ध होने लगा, जिसमें गोरा मारा गया । अंत में बादल विजयी होकर लौटा और गोरा की स्त्री बादल के मुह से युद्ध के समय के गोरा के वीरोचित कार्यों की कथा सुनकर सती हो गई । यहीं पर जटमल अपना ग्रंथ समाप्त करता है । ऊपर की दोनों कथाओं में इतना तो अवश्य ही ऐतिहासिक तत्त्व है कि रत्नसिंह ( रत्नसेन ) चित्तौड़ का राजा, पद्मिनी उसकी रानी, गोरा बादल उसके सरदार और अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का सुलतान था, जिसने पद्मिनी के लिये चित्तौड़ पर चढ़ाई की थी। जटमल अपने विषय में लिखता है कि पठान सरदारों के मुखिए नासिर खाँ के बेटे अलीखाँन न्याजी के समय नाहर जाति के धर्मसी के पुत्र जटमल कवि ने संबला नामक गाँव में रहते हुए संवत् १६८० ( ई० स० १६२४ ) फाल्गुन सुदी १५ को ग्रंथ समाप्त किया। उसके काव्य की भाषा सरस है और उसमें राजस्थानी डिंगल भाषा के भी बहुत से शब्दों का प्रयोग हुआ है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका ___ओसवाल महाजनों की जाति में नाहर एक गोत्र है, अतएव संभव है कि जटमल जाति का ओसवाल महाजन हो । संबला गाँव कहाँ है, इसका पता अभी तक नहीं चला, पर इतना तो निश्चित है कि वह (जटमल) मेवाड़ का निवासी नहीं था। यदि ऐसा होता तो चित्तौड़ के राजा रत्नसेन को, जो गुहिलवंशी था, कदापि वह चौहानवंशी नहीं लिखता। वह बारह वर्ष (जायसी ८ वर्ष ) तक बादशाह का निरर्थक ही चित्तौड़ को घेरे रहना बतलाता है जो निर्मूल है। उस समय तक मंसबदारी की प्रथा भी जारी नहीं हुई थी। छ: महीने तक चित्तौड़ का घेरा रहने के बाद सुलतान अलाउद्दीन ने वह किला फतह कर लिया, जिसमें रत्नसिंह मारा गया और पद्मिनी ने जौहर की अग्नि में प्राणाहुति दी। जायसी ने पद्मिनी के पिता को सिंहल (लंका)काराजा चौहानवंशी गंधर्वसेन (गंध्रवसेन ) बतलाया है, किंतु जटमल ने पद्मिनी के पिता के नाम और वंश का परिचय नहीं दिया है। पद्मिनी कहाँ के राजा की पुत्री थी, इसका निश्चय करने के पूर्व रत्नसिंह ( रत्नसेन) के राजत्वकाल पर भी दृष्टि देना आवश्यक है। इस कथा का चरित्र-नायक रत्नसिंह ( रतनसी, रत्नसेन ) चित्तौड़ के गुहिलवंशी राजा समरसिंह का पुत्र था। समरसिंह के समय के अब तक आठ शिलालेख मिले हैं, जिनमें सबसे पहला वि० सं० १३३० ( ई० * कलकत्ते के सुप्रसिद्ध विद्वान् बाबू पूर्णचंद्रजी नाहर एम० ए०, बी. एल. से ज्ञात हुआ कि उनके संग्रह में जटमल का रचा हुआ एक और भी काव्य-ग्रंथ है, जिसमें जटमल का कुछ विशेष परिचय मिलता है। यह लेख लिखते समय वह ग्रंथ हमारे पास नहीं पहुंचा, जिससे जटमल का पूर्ण परि. चय नहीं दिया जा सका। नाहरजी के यहाँ से उक्त पुस्तक के आने पर ग्रंथकर्ता के विषय में कुछ अधिक ज्ञात हो सका तो फिर कभी वह पृथक रूप से प्रकाशित किया जायगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि जटमल रचित गोरा बादल की बात ४०३ स० १२७३ ) कार्तिक सुदी १ का है और अंतिम वि० सं० १३५८ ( ई० स० १३०२) माघ सुदी १० का है, जिससे यह तो स्पष्ट है कि वि० सं० १३५८ के माघ सुदी १० तक मेवाड़ का राजा समरसिंह ही था। उसके पुत्र रत्नसिंह का केवल एक ही शिलालेख दरीबा नामक गाँव के देवी के मंदिर में मिला है जो विक्रमी सं० १३५६ ( ई० स० १३०३) माघ सुदी ५ बुधवार का है। इन लेखों से प्रकट है कि वि० सं० १३५८ के माघ सुदी ११ और वि० सं० १३५६ के माघ सुदी ५ के बीच किसी समय रत्नसिंह मेवाड़ का स्वामी हुआ। फारसी इतिहास लेखक मलिक खुसरो, जो चित्तौड़ की चढ़ाई में शरीक था, लिखता है कि सोमवार ता०८ जमादिउस्सानी हि० स० ७०२ (वि० सं० १३५६ माघ सुदी = ता० २८ जनवरी ई० स० १३०३) को चित्तौड़ पर चढ़ाई करने के लिये दिल्ली से सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने प्रस्थान किया और सोमवार ता. ११ मुहर्रम हि० स० ७०३ (वि० सं० १३६० भाद्रपद सुदी १४ = ता० २६ अगस्त ई० स० १३०३) को चित्तौड़ का किला फतह हुआ। इस हिसाब से रत्नसिंह का राज्य समय कठिनता से लगभग १ वर्ष ही आता है। संभव नहीं कि इस थोड़ी सी अवधि में समुद्र पार लंका जैसे दूर के स्थान में वह जा सका हो। ___ काशी की नागरी-प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित 'जायसी-ग्रंथावली' (पद्मावत और अखरावट) के विद्वान् संपादक पं० रामचंद्र शुक्ल ने उक्त ग्रंथ की भूमिका में सिंहल द्वीप के विषय में लिखा है कि 'पद्मिनी सिंहल की नहीं हो सकती। यदि सिंहल नाम ठीक मानें तो वह राजपूताने या गुजरात में कोई स्थान हो' यह कथन निर्मूल नहीं है। चित्तौड़ से अनुमान २५ कोस पूर्व सिंगोली नाम का प्राचीन स्थान है, जहाँ प्राचीन खंडहर और किले आदि के चिह्न अब तक विद्यमान हैं। सिंगोली और उसका समीपवर्ती मेवाड़ का __३६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका पूर्वी प्रांत रत्नसिंह के समय चौहानों के अधिकार में था। जायसी पद्मिनी के पिता को चौहानवंशीय गंध्रवसेन लिखता है, यदि यह ठीक हो तो वह मेवाड़ के पूर्वी भाग सिंगोली का स्वामी हो सकता है। सिंगोली और सिंहल के नामों में विशेष अंतर न होने से संभव है कि जायसी और जटमल ने सिंगोली को सिंहलद्वीप (लंका) मान लिया हो। सिंहल अर्थात् लंका पर कभी चौहानों का राज्य नहीं हुआ, इसके अतिरिक्त रत्नसिंह के समय वहाँ का राजा गंध्रवसेन भी नहीं था। उस समय लंका में राजा कीर्तिनिश्शंक देव (चौथा ) या भुवनैकबाहु ( तीसरा ) होना चाहिए। नागरी-प्रचारिणी सभा की हिंदी पुस्तकों की खोज संबंधी सन् १६०१ ईसवी की रिपोर्ट के पृ० ४५ में संख्या ४८ पर बंगाल एशियाटिक सोसाइटी में जो जटमल रचित 'गोरा बादल की कथा' है उसके विषय में लिखा है कि यह गद्य और पद्य में है; किंतु स्वामी नरोत्तमदासजी द्वारा जो प्रति अवलोकन में आई वह पद्यमय है। इन दोनों प्रतियों का आशय एक होने पर भी रचना भिन्न भिन्न प्रकार से हुई है। रचना-काल भी दोनों पुस्तकों का एक है और कर्ता भी दोनों का एक ही है। संभव है, जटमल ने कथा को रोचक बनाने के लिये ही बंगाल एशियाटिक सोसाइटीवाली प्रति में गद्य का प्रयोग किया हो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) काठियावाड़ श्रादि के गोहिल [लेखक-श्री मुनि जिनविजय, विश्वभारती, बोलपुरः] श्रीमान् रायबहादुर महामहोपाध्याय पंडितप्रवर श्री गौरीशंकर हीराचंदजी ओझा ने अपने राजपूताने के इतिहास के चौथे खंड में उदयपुर राज्य का इतिहास लिखते समय राजपूताने से बाहर के गुहिलवंशी राजपूतों का भी कुछ परिचय दिया है। उसमें 'काठियावाड़ आदि के गोहिल' नामक शीर्षक के नीचे काठियावाड़ के भावनगर और पालीताणा आदि राज्यों का, जो गोहिलवंशी राजकुलों के अधीन हैं, वर्णन करते हुए उनके राजाओं का भी मेवाड़ की शाखा में होना बतलाकर उन्हें सूर्यवंशी प्रमाणित किया है और भावनगर, पालीताणा आदि राजकुलों को आधुनिक इतिहास-लेखक, जो भाटों आदि की कल्पनाओं पर चंद्रवंशी बतलाते हैं, अनैतिहासिक साबित किया है। __ हमने म० म० पं० श्री गौराशंकरजी ओझा के लिखे हुए उक्त प्रकरण को खूब विचार-पूर्वक पढ़ा है और उसके पूर्वापर संबंध का ठीक ठीक विचार किया है। ओझाजी का लेख पढ़ने के पहले भी हमारा स्वतंत्र अभिप्राय, जो हमने अपने ऐतिहासिक अध्ययन के परिणाम में स्थिर किया था, यही था कि काठियावाड़ के गोहिल राजपूत उसी प्रसिद्ध राजवंश की संतान हैं, जो आज करीब १३ सौ वर्ष से मेवाड़ की पुण्य भूमि का रक्षण कर रहा है। काठियावाड़ के गोहिलों के चंद्रवंशी होने का कोई भी प्राचीन उल्लेख अभी तक हमारे देखने में नहीं आया। प्रतिष्ठानपुर के जिस शालिवाहन राजा के साथ इनके पूर्वजों का संबंध बतलाया जाता है वह केवल कपोल-कल्पित ही है। प्रतिष्ठानपुर के शालिवाहन का राज्य कभी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका मारवाड़ या मेवाड़ में, जहाँ से इन गोहिलों का निकास बतलाया जाता है, रहा हो ऐसा कोई प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है और दूसरी बात यह है कि प्रतिष्ठान का शालिवाहन चंद्रवंशी न होकर आंध्रवंशी था और संभवत: द्रविड़ जाति का था। उस राजवंश का लोप तो प्राय: विक्रम की तीसरी शताब्दी के ही लगभग हो चुका था जब कि इन वर्तमान राजपूत कुलों के अस्तित्व का भी कोई चिह्न नहीं था। हमारा तो अनुमान यह होता है कि अणहिलपुर के चालुक्यचक्रवर्ती सिद्धराज जयसिंह के समय में इन काठियावाड़ के गोहिलों का मेवाड़ से इधर आना हुआ होगा। सिद्धराज ने मालवे के परमार राजा यशोवर्मा को पराजित कर वहाँ पर अपनी प्राण बरताई उस समय मेवाड़ का राज्य भी, जो मालवेवालों के अधीन था, गुजरात के छत्र के नीचे आया। उसी समय मेवाड़ के राजवंश का कोई व्यक्ति नियमानुसार गूजरेश्वर की सेवा में उपस्थित हुआ होगा, जो मांगरोलवाले संवत् १२०२ के लेख में सूचित किया गया है। इस लेख से मालूम होता है कि गुहिलवंशीय साहार का पुत्र सहजिग सिद्धराज की सेवा में उपस्थित हुआ था जिसके कुल आदि का महत्त्व समझकर सिद्धराज ने उसे अपना अंगरक्षक बनाया था। बाद में उसके पुत्र को सौराष्ट्र का अधिकारी नियुक्त किया जो कुमारपाल के समय में भी उसी पद पर बना रहा और पीछे के सोलंकी राजाओं के समय में भी उनकी संतान इस प्रकार अधिकारारूढ़ बनी रही और शनैः शनैः समय पाकर उन्होंने स्वतंत्र बनकर इन काठियावाड़ के गोहिल राज्यों की नींव डाली। गुजरात में हिंदू राजसत्ता का नाश होने पर और मुसलमानी सत्ता के कायम होने पर इस देश के राजपूत घरानों की बड़ी दुर्दशा हुई। इनके लिये न कोई आधारभूत राजकुल था और न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ काठियावाड़ आदि के गोहिल कोई सहायता देनेवाला आश्रयस्थान था। इसलिये एक प्रकार से ये शुरू शुरू में इधर-उधर मारे मारे फिरते रहे और बागियों की तरह डाकुओं का सा जीवन व्यतीत करते रहे। ऐसी अनवस्था में इनका राजपूताने के बड़े बड़े राजघरानों से संबंध विछिन्न हो गया और ये अपना पूर्व निवासस्थान और कौटुंबिक संबंध भी भूल गए। पीछे से दो सौ चार सौ वर्ष बाद जब ये फिर सँभले और अपने पैर स्थिर कर चुके तब फिर अपने पूर्वजों की देख-भाल करने लगे। उस समय जो भाट-चारण इनके समीप पहुँचे और उन्होंने जो कुछ कपोलकल्पनाएँ दौड़ाकर इनके वंश आदि का नामकरण किया उसी को इन्होंने सत्य मानकर उसके अनुसार अपना इतिहास गढ़ लिया। इन गोहिलों को शायद इतनी स्मृति तो रह गई थी कि इनका पूर्वज कोई शालिवाहन था। इसलिये भाटों ने इतिहास-प्रसिद्ध शालिवाहन ही को इनका पूर्वज बतलाया और उसका चंद्रवंशी होना मानकर इनका वंशानुक्रम उसके साथ जा मिलाया। लेकिन वास्तव में, जैसा कि ओझाजी ने बतलाया है, ये मेवाड़ के गुहिल शालिवाहन की संतान हैं और सूर्यवंशी हैं। भाटों की कल्पना के कारण राजपूतों के वंशों में बड़ी बड़ी अनवस्थाएँ उत्पन्न हो गई हैं यह तो सभी इतिहासज्ञ जानते हैं— जैसा कि पृथ्वीराज रासो की कल्पना के कारण सोलंकी और चाहमानों का भी अग्निवंशी होना रूढ़ हो गया है, जो नितांत भ्रममूलक है। अब जब कि हमारे पास बहुत से सत्य ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं, केवल भाटों की उन निर्मूल कल्पनाओं के ऊपर निर्भर रहना और इतिहास के अंधकार में निमग्न रहना आवश्यक नहीं है। सत्य की गवेषणा कर अपने वंश की शुद्धि का पता लगाकर पूर्वजों के इतिवृत्त का उद्धार करना ही यथार्थ में पितृ-तर्पण और शुद्ध श्राद्ध है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) प्रेमरंग तथा श्राभासरामायण [ लेखक-श्रीब्रजरत्नदास बी० ए०, एल-एल० बी०, काशी ] हिंदी-साहित्य के इतिहास पर दृष्टि दौड़ाने से ज्ञात होता है कि भारतेंदु-काल के पहले उसके गद्य या पद्य दोनों ही भागों में प्राचीन काव्य-भाषा, मुख्यतः ब्रजभाषा का दौरदारा था। उसके साथ साथ अवधी को भी स्थान मिला था। स्थानिक बोलचाल के शब्दों या शब्द-योजनाओं का भी मेल बराबर मिलता अवश्य है पर उनका काव्य-भाषा की परंपरा में कोई स्थान-विशेष नहीं है। इस प्राचीन समय से चली आती हुई काव्य-भाषा का प्राधान्य, देखा जाता है कि, ब्रजमंडल से लेकर विहार की सीमा तक के प्रांत भर में था, जिसके अंतर्गत अवधी भी सम्मिलित है। इस विशद प्रांत, ब्रजभाषा के दुर्ग के बाहर रहनेवाले अन्यभाषा-भाषी जिन कवियों ने हिंदी भाषा को अपनाया है उनमें खड़ी बोली हिंदी ही का प्राधान्य है, प्राचीन काव्य-भाषा का नहीं। इस प्रांत में भी खड़ी बोली हिंदी के जो प्राचीन कवि हो गए हैं उनमें मुसलमान ही अधिक हैं। हिंदुओं द्वारा मुसलमानों की उक्ति के लिये इस भाषा का प्रयोग हुआ है। प्रथम कोटि में अमीर खुसरो, नवाब अब्दुरहीमखाँ खानखाना आदि हैं और दूसरी में भूषण, सूदन आदि । इनके सिवा कुछ ही कवि ऐसे हुए हैं जिन्होंने इस खड़ी बोली हिंदी में कविता की है और वे इन दोनों कोटियों में नहीं आते। इनमें शीतल, भगवतरसिक, सहचरिशरण आदि मुख्य हैं। पर साथ ही यह ध्यान रखना चाहिए कि इन सभी कवियों ने खड़ी बोली हिंदी में मुक्तक काव्य की रचना की है पर आज एक ऐसे कवि का परिचय दिया जाता है जिन्होंने खड़ी बोली हिंदी में प्रबंध-काव्य की रचना की है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड़ी बोली के मनोरंजना कुछ भी ४१० नागरीप्रचारिणी पत्रिका और वह समग्र ग्रंथ पाठकों के मनोरंजनार्थ इस लेख के साथ दिया जा रहा है। खड़ी बोली हिंदी के कविता भाग की प्रगति पर यहाँ कुछ भी नहीं लिखा जा रहा है क्योंकि स्वत: उसके लिये इससे एक बड़े लेख की आवश्यकता हो जाती और जो इस लेख का ध्येय भी नहीं है। कवि-परिचय कवि ने अपने विषय में आभासरामायण तथा गरबावली में इस प्रकार लिखा है काशीवासी विप्र हो रहत राम-तट धाम । पवन-कुमार-प्रसाद सो गाय रिझावत राम ॥ अज शिव शेष न कहि सके महिमा सीता-राम । इंद्रदेव सुरदेव-सुत नागर कवि अभिराम ॥ -पा० रा०। हूँ यूँ अल्पमती नागर ज्ञाती । ब्राह्मण अमदाबादी जाती॥ काशी बसि बुद्धि में माती । करि रघुबर गुण गावा छाती ॥ सुरदेव पंड्या सुत इंद्रदेव । हनुमान-कृपा थित जो अहमेव॥ पूर्वोक्त दोनों उद्धरणों से कवि के विषय में इतना ज्ञात हो जाता है कि यद्यपि उनके पूर्वज अहमदाबाद की ओर के रहनेवाले थे पर काशी ही में प्रा बसे थे। वे नागर ब्राह्मण पंड्या सुरदेवजी के पुत्र थे और उनका स्वयं नाम इंद्रदेव था। वे रामघाट पर रहते थे और उन्हें हनुमानजी का इष्ट था। इन दोनों तथा अन्य रचनाओं में प्रेमरंग' उपनाम बराबर आया है और गरबावली के अंत में वे लिखते हैं कि हनुमान सहाय थाए जेहेन । रघुनाथ चरित्र बने तेहे ॥ गाई सभा लावू → सदा एहेने । करे थे प्रणाम प्रेमरंग वेहेने॥ वास्तव में इंद्रदेवजी प्रेमरंगजी के शिष्य थे, जिनका नाम गोविंदराम त्रिपाठी था। वे भी नागर ब्राह्मण वत्सराजजी के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४११ प्रेमरंग तथा आभासरामायण पुत्र थे और रामघाट ही पर काशी में रहते थे। इनके वंशज अभी तक उसी मुहल्ले में रहते हैं। इंद्रदेवजी 'बाबूजी' के नाम से प्रसिद्ध थे। यह संस्कृत, हिंदी और गुजराती के अच्छे विद्वान् थे। इन्होंने अपने गुरु के उपनाम पर कुल रचनाएँ बनाई और उनका नाम उजागर किया। इनकी रचनाओं का प्रचार काशी के बाहर बिलकुल नहीं था और यही कारण है कि मिश्रबंधु-विनोद से प्रकांड संग्रह में भी इनका नाम नहीं आया है। काशी के बालूजी की फर्श पर कार्तिक सुदी ११ से पूर्णिमा तक इनके बनाए हुए भजन नित्य रात्रि में गाए जाते हैं। काशी की पंचक्रोशी प्रसिद्ध है। इसमें जिस प्रकार कृष्ण-मंडलियों में कृष्ण-लीला होती है उसी प्रकार प्रेमरंगजी के समय से चलाई हुई एक राममंडली रामलीला करती है, जिसमें इन्हीं की रचनाओं से भजन इत्यादि सब लिए जाते हैं। एक को छोड़ इनकी कोई भी रचना अभी तक प्रकाशित नहीं हुई थी। केवल श्लोकावली को एक सज्जन माधो मेहता खंडेलवाल प्रकाशित कर आठ आठ आने पर बेचते थे। कवि के जन्म-मरण का समय नहीं प्राप्त हो सका, पर उनका रचना-काल सं० १८५० से १८७५ तक ज्ञात होता है। रचनाएँ आभासरामायण-रामचरितमानस के समान यह ग्रंथ भी सात कांडों में विभक्त है और इसके प्रत्येक कांड में मानस ही के समान उसी की कथा अत्यंत संक्षेप में कही गई है। कथाभाग कहीं कहीं मानस के विरुद्ध वाल्मीकीय के अनुसार कहा गया है; जैसे-"मग में मिले भृगुनंदन" का उल्लेख हुआ है। कवि ने प्रत्येक कांड के अंत में पुस्तक का नाम 'वाल्मीकीय आभासरामायणे' लिखा भी है और एक दोहे में कहा भी है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका संस्कृत, प्राकृत दोउ कहे इंद्रप्रस्थ के बोल । वाल्मीकीय प्रसाद सों गाए राग निचोल ॥ खड़ी बोली भाषा के विषय में इनका यह कथन कि वह इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) की बोली है, महत्त्वपूर्ण है। आज से १३० वर्ष पहले भी खड़ी बोली हिंदी दिल्ली के आसपास की भाषा मानी जाती थी। कुछ ‘एकैडेमिशियनों' का यह कथन कि खड़ी बोली हिंदी अर्थात् हिंदुस्ताना भाषा को डा० गिलक्राइस्ट की तत्त्वावधानता में फोर्ट विलियम कालेज के पंडितों तथा मुंशियों ने जन्म दिया है, बिलकुल असंगत तथा सारहीन है। उसी प्रकार ब्रज भाषा से उर्दू का जन्म मानना तथा उर्दू में से फारसी अरबी शब्दों को निकालकर संस्कृत शब्दों को भर खड़ी बोली बनाने का कथन निरर्थक ज्ञात होता है। अस्तु, समग्र ग्रंथ में गाने के छंदों ही का प्रयोग है और प्रत्येक कांड के लिये भिन्न भिन्न छंद प्रयुक्त हुए हैं। अंत में बारह दोहों में फलस्तुति तथा रचना-काल दिया गया है। इस ग्रंथ की समाप्ति विक्रम संवत् १८५८ के अधिक ज्येष्ठ कृष्ण ११ को हुई थी। इस ग्रंथ के उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह ग्रंथ पूरा इस लेख के साथ प्रकाशित कर दिया जाता है। गरबावली-इस ग्रंथ की जो हस्त-लिखित प्रति मेरे सामने है वह खंडित हो गई थी पर किसी सज्जन ने अन्य प्रति से उसे पूरा कर दिया है। यह चौहत्तर पत्रों में समाप्त हुई है। साढ़े नौ इंच लंबे तथा सवा चार इंच चौड़े पत्रों पर छः छः पंक्तियों में यह ग्रंथ लिखा गया है। कागज भी अच्छा है और अक्षर भी सुंदर तथा सुडौल हैं। इस प्रति का लिपि-काल नहीं दिया है पर यह प्राचीन अवश्य है। यह ग्रंथ गुजराती भाषा में आभासरामायण के ढंग पर लिखा गया है। इसमें भी बालकांड से उत्तरकांड तक सातों कांड भिन्न भिन्न गाने योग्य छंदों में रचे गए हैं और वाल्मीकीय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४१३ कथानुसार रामचरित वर्णित है। यह आभासरामायण से कुछ बड़ा ग्रंथ है। गुजराती स्त्रियों में गाने की एक प्रथा को गरबा कहते हैं। कजली के गाने के समान कुछ स्त्रियाँ मंडलाकार खड़ी हो जाती हैं और गाती हुई घूमती जाती हैं। दोनों में एक विभिन्नता है कि कजली में स्त्रियाँ भीतरी ओर मुख किए रहती हैं पर गरबा में बाहरी ओर। उसी प्रकार के गीत गाने का यह संग्रह होने से इसका गरबावली नामकरण किया गया है। ___यह ग्रंथ गुजराती भाषा में है इससे विशेष उदाहरण न देकर दो-चार पद उद्धृत कर दिए जाते हैं। इसके विषय में विशेष लिखना भी अपने सामर्थ्य के बाहर ही है। इसमें एक स्थान पर एक श्लोक दिया गया है जो स्थानादि के विचार से इन्हीं कवि की रचना ज्ञात होती है, इसलिये वह भी यहाँ उद्धृत कर दिया जाता है। हो सकता है कि यह किसी अन्य की रचना हो। धन्यायोध्या दशरथनृप: सा च धन्या... धन्यो वंशो रघुकुलभवो यत्र रामावतारः। धन्या वाणी कविवरमुखे रामनामप्रपन्ना _धन्यो लोकः प्रतिदिनमसौ रामवृत्तं शृणोतु॥ प्रभु पंपा तीरे जोय । कमल जलचर दीठा ॥ करे कोकिल गायन लोय । गलां रमणिय मीठां ॥ त्याहाँ कै कै फल ना झाड। फूलनी बेल घणी ॥ एव्हे आव्यो फागुण पाड । पाड़ा विरह तणी॥ मुन्हे रत्य पीडे छे बसंत । कामिनि पाशिविना ॥ गाए भमरा भमि भमि संत । सुगंध पवन भीना । पदावली-इस संग्रह की हस्त-लिखित प्रति सं० १८८६ वि० की लिखी हुई है। यह छोटे छोटे २७८ पत्रों की रेशमी जिल्द बँधी हुई पुस्तक है जिसके प्रत्येक पत्रे के दोनों ओर पाँच पाँच पंक्तियाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका हैं। प्रत्येक पंक्ति में प्राय: सोलह अक्षर हैं। कागज मोटा बाँसी है और लेखक ने बड़े परिश्रम से लिखा है, जिससे अक्षर एक रंग, सुडौल तथा सुंदर आए हैं। पद प्राय: छोटे छोटे ही हैं, इससे उनकी संख्या लगभग चार सौ के है। इनकी भाषा प्राय: हिंदी काव्य-परंपरा की है पर कुछ पद फारसी-मिश्रित खड़ी बोली, पंजाबी तथा गुजराती के हैं। इन सबमें श्रीकृष्णजी तथा श्रीरामचंद्र के चरित्र वर्णित हैं । प्रारंभ में चार-पाँच पदों में शिवजी, विष्णु भग. वान्, अन्य अवतार, ऋषि, भक्त आदि की स्तुति-कथा है। प्राय: सभी पद साधारण कोटि के हैं। कुछ पद विरक्ति तथा भक्ति के हैं। दो-चार उदाहरण दिए जाते हैं। पंजाबी भाषाजांदाई जांदा सुन देवो खबरां न वेदां साँडे हाल बिरह दी । कसम तूं सानूं साँडे जाँव दी कहें दे नॉल चलें दे बिन डिठियन रहे दे॥ 'प्रेमरंग' पाय दुश्नाम न सहेंदे ॥ खड़ो बोली हिंदी का एक उदाहरण-- आज भी हुआ है मुझे इंतजारी में फजर । कर गया करार यार शब को प्रावते फजर ॥ करता निमाज इबादत में हमेशे फजर । आज अश्क सों वजू कराया यार ने फजर ॥ जाना था उम्मेद महासिल हुई 'मैंने फजर । बदकरार ने किया है बेकरार दिल फजर ।। उर्दू-मिश्रित हिंदी तदिय नरेतन दिरनांत दाँनी तरीम् तदीम् दीम् तनम् तनम्। यललिय लललूम यल लल लले ॥ध्रु०॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा प्राभासरामायण ४१५ दिलदार जाता हेच कुनं चार न दारम् । ब उम्मेद लासखुन से इश्तिफाक दिलबदारम् ॥ 'प्रेमरंग' प्रभु वाह भल भले भले ॥ गुजराती भाषा का एक पद जावा दे कन्हैया ह्याँ की सास लड़ाकी । ननदल छोटी दग ड्यारी पीठी । शाशू मुमौ द्यारी लड़वा मां झगड़ा की । पनि डाने जाताँ लाँके पाग गणें छे। झूठी साँची बोले थाके साथ खड़ा की ॥ 'प्रेमरंग' प्रभु थांसों प्रान पग्यो छे। छाती प्रीत राखो ह्याँ की लाज बड़ाकी ॥ श्लोकावली—यह संपूर्ण ग्रंथ प्राप्त नहीं हुआ है। यह भी वाल्मीकीय रामायण की चाल पर सात कांडों में विभाजित है और खड़ी बोली हिंदी में संस्कृत वृत्तों में रचा गया है। इसका किष्किधा कांड मात्र मुझे मिला है, जो संपूर्ण यहाँ दे दिया जाता है, क्योंकि इसमें केवल ग्यारह श्लोक हैं। (स्रग्धरा छंद) देखायं या प्रभू ने जलचर बिचरे बृच्छ ये पति बोलें। बोलें बन के मृगादिक गुलम पुहुप ये भंग उन्मत्त डोलें ॥ डोलें दोनों वियोगी सिय सिय उचरें चाय ओवा न तोलें। तोलें शोभा सुगंधी जनक-कुँअरि की कंठ सो साउँ होलें ॥१॥ आयो भाई बसंत: प्रफुलित कुसुम प्रानप्यारी नहीं है । केकाकाकीयभेका विहरत बन में पार वाकी वही है । कैसे काटे वियोगी मधुरितु रिपु को तर्सते बर्स बीता। बोले लछमन प्रभू को टुक विरह सहो पाइहो राम सीता ॥२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका न में राघो छिपाए कड़क रव किया बालि बाहर निकाला । कुस्ती मूकी लड़े दो रविज घट गयो त्रास स राम भाला ॥ पीड़ा सुग्रीव पाई दवर गिरि चढ़ो बालि ने श्राप मान्यो । आए राघो कपी ए कहत हमहिं को मारबो मन् में ठान्यो ॥३॥ बोले राजाधिराजा सुनहु तुम सखा क्रोध को दूर कीजे । जाते बाली बचा है हनन न किया दोख मोको न दीजे ॥ दोनों भाई सरीखे लड़त नहि लखे कौन बाली दुहुन में । ताते नाहीं चलाया शर मरम बिषे मित्र को घात मन में || ४ || कीजे लछमन सखा को कछुक लख परे कंठ में वेल डाली । ४१६ बन के मुनीको सबन सिर्नए आए मारन कुं बाली ॥ दोनों बन में लुकाने शर धनुस धरे बालि को टेर दीनी । सुनते धायो धराया पकरत ग्रहणी नीत की बात कीनी ॥५॥ मारा भाग फिरा है गहि बलि बल सों टेर को शब्द भारी । कीने राघो सखा है त्रिभुवन विजयी मान नीती हमारी ॥ ल्याओ सुग्रीव भाई अनुजवत करा द्वेष का लेश त्यागो । मानी नाहीं प्रिया की मरन-मुख भि षटू टेर ज्यों तीर लागो ॥६॥ जी सो मारो नहीं मैं गरब परिहरों जाहु तूं रास मेरी । दीनों आसीस भार्या सगुन कर गई बालि ने बारि हेरी ॥ धाया सुग्रीव पाया धर पकर भई मुष्टि की वृष्टि कीनी । पटके फट्के व छट्के गट-पट लपटे क्रेट ले चोट दीनी ॥७॥ ( मालिनी छंद ) खोटा ॥ कपि कहि वपु छोटा बालि का देह मोटा । नहिं तुल बल जोटा प्राक्रमी भाइ धनुख दु शत डारों दुंदुभी भाइ प्रबल रिपु हमारो फेकिए हाड मारी । नारी ॥८॥ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४१७ (शार्दूलविक्रीडित छंद) सेए राम सुभाई के गुन कहे मोको हरावे जबें । बोले तात न कीजियो दुरमती जा जीवता तूं अबे ॥ सेंमि भाई राय के नगर का राजा बनोगा नहीं। तारा अंगद प्राण त्याग करिहैं मैं भी मरोंगा जहीं ॥ (मत्तमयूरा छंद) बोले राजा दासहि आग्या कर दीजे । सीता जाने राम कहें खोज न कीजे ॥ बंदर भेजे चार दिसा की भूई भाखी । जाओ खोजो मासहि आवो मन राखी ॥१०॥ . (शिखरिणी छंद) कहो कैसे जावें कहत हँस वृद्धा कपिन सों। मुंदाओ आँखों को सबन हम काढ़ें विपन सों। ढंपी आँखें काठे मलयगिरि देखा उदधि पें। बड़ी चिंता व्यापी सब मकर बीता जलधि पें ॥११॥ निवेदन जिन प्रतियों के आधार पर आभासरामायण का पाठ संशोधित किया गया है, उनके दाताओं का मैं विशेष रूप से आभारी हूँ। यहाँ उन प्रतियों का विवरण दे दिया जाता है। १–यह हस्तलिखित प्रति संवत् १८६७ के भाद्रपद शुक्ल १ गुरुवार को समाप्त हुई थी। इसमें ३१ पत्रे हैं। प्रत्येक पत्रे में दस दस पंक्तियाँ दोनों ओर हैं। मोटे बाँसी कागज पर लिखा गया है। पाठ विशेषत: शुद्ध है। यह प्रति संपूर्ण है और इसी का विशेष रूप से आधार लिया गया है। इस प्रति को पं० लज्जाराम मेहता के दौहित्र पं० रामजीवन नागर ने सभा को दिया है। मेहताजी ने अपनी जीवितावस्था ही में इस पुस्तक तथा गरबावली को सभा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका द्वारा प्रकाशित कराने के लिये पत्र द्वारा लिखा था और उन्हें संपादित करने को भी वे तैयार थे पर ईश्वरेच्छा से वे इस कार्य को न कर सके और यह कार्य सभा की आज्ञा से मुझे करना पड़ा । २ - यह प्रति भी हस्तलिखित है । आरंभ में पूर्ण होते भी अंत में खंडित है | इसका लेख पहली प्रति के समान सुडौल नहीं है पर पाठ तब भी साधारणत: अच्छा है । इसमें छोटे छोटे अट्ठावन पत्रे हैं और प्रत्येक में आठ आठ पंक्तियाँ हैं । इसमें लंकाकांड प्रायः समाप्त है । आगे का उत्तरकांड बिलकुल नहीं है I इस प्रति को पं० हरीरामजी नागर ने दिया है । ३ – यह प्रति भी हस्तलिखित है पर दोनों ओर से खंडित है । इसका लेख सुंदर है और बाँसी कागज पर पुस्तकाकार लिखा गया है । प्रत्येक पृष्ठ में पंद्रह पंक्तियाँ हैं । यह प्रति राय कृष्णदासजी की है । ४ – यह प्रति इस निबंध के लेखक ही की है। यह पुराने कलकत्ता टाइप में छपी हुई है । इसके प्रारंभ तथा अंत दोनों ओर के एक एक पृष्ठ नहीं हैं । अड़तालीस पृष्ठों में प्रॉक्टेवो साइज की यह पुस्तक है, जिसके हर एक पेज में बाईस पंक्तियाँ हैं । इसका पाठ भी साधारणतः शुद्ध है । यह प्रति लगभग सौ वर्ष पुरानी है । इस लेख के लिखने में पं० हरीरामजी नागर पंचोली से विशेष सहायता मिली है, तदर्थ मैं उनका अनुगृहीत हूँ । पर इतना अवश्य कहना पड़ता है कि इस कार्य में जितना उत्साह उन्होंने पहले दिखलाया था वह बाद को मंद पड़ गया और वे जितना कह चुके थे उतना साधन प्रस्तुत न कर सके। इस कारण यह लेख जैसा चाहिए था वैसा न लिखा जा सका । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभासरामायण बालकांड ( राग अहंग, ताल, छंद रेखता ) गनपति के चरन पूज लाल चंदन दूब स I सुभ काज- करन सिद्ध-सिद्धि - बुद्धि घरुणि सेों ॥ १ ॥ बानी बचन बिसाल और रसाल रस भरी । दिल में करों खुशाल शब्द - जाल ख्याल सों ॥ २ ॥ गुरु कों करों प्रणाम जिन्हें परम इष्ट राम । अज शिव हनु नारद वाल्मीक तुलसि सों ॥ ३ ॥ अगम निगम जिनके कहते हैं दमबदम् । दशरथ - कुमार राम मेघ- श्याम बदन सों ॥ ४ ॥ गुन क्या करों बखान सेस कहत आज लेों । बानी न चल सकेगि शब्द पारब्रह्म सों ॥ ५ ॥ उनका है लाडिला जो भक्त पवन का कुमार । जिन्हें आठ जाम जात राम कहत सुनत सों ॥ ६ ॥ हनुमान हुकम माँग कहें। राम की कथा । वाल्मीक ने कहा सो संक्षेप सजन सां ॥ ७ ॥ कहता हैं। राग गाय भजन सजन रंजन राम | रघुबर स रजा पाय सिर नवाय चरन सों ॥ ८ ॥ तप वेद के निधान ग्यान देवरुख कहा । वाल्मीक सों सुना उसे करोड़ कर कहा ॥ ६ ॥ वहि सों करोड़ छोर उदधि सत्व मथनि काल । चौबिस हजार चौबिस अछर लगाय लिया ॥१०॥ २- खुशाल = ( फा० खुशहाल ) प्रसन्न | -लगातार । ८ - श्जा = श्राज्ञा । ३८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ४ -- दमबदम् = बराबर, www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० नागरीप्रचारिणी पत्रिका सीताकुमार सीख किया नुगु जुबाँ सभी । रघुनाथ कों सुनाय के लोभाय बस किया ॥११॥ स्वर तान ताल राग रंग सएर की मजा । स्रवनन् पियाले भर भर पायूख सब पिया ॥१२॥ लवकुश कहें औ राम सुनें सुर नर मुनि बीच । रघुनाथ ने किया सो आखिर तलक भया ॥१३॥ एक अवधपुरी भरी पुरी जरजरी निशान । खुशदिल बसें बसिदे मुतलक सेंगम गया ॥१४॥ अज के कुमार दसरथ महारथ छतर धरै। नवखंड सात द्वीप मों करे दया मया ॥१॥ पटरानि तीन तीन से पचास महलसरा। हुए साठ हजार साल छत्र चँवर रण दिया ॥१६॥ दसरथ उमर बुढ़ानी बिना पुत्र फिकरमंद । कहा जग्य मैं करौं जो गुरु बसिष्ठ सिध करें ॥१७॥ सुमंत्र कहे मैं सुना सनत्कुमार से। ऋषिशृंग को बोलाय जगन सदन में धरें ॥१८॥ ऋषि ल्यावने दसरथ गए घर रोमपाद के। सनमान सों बोलाय सकल जन पायन परें ॥१॥ सरजू के पार जग्य करो ब्रह्मऋषि कहे। न्योता पठाओ सबन को मंडलेश के घरें ॥२०॥ ११-जुबाँ = कंठाग्र, याद। १२-सएर =शेर, फारसी का पद । १३-आखिर तलक = अंत तक । १४-जरजरी निशान = जहां पुराने चिह्न वर्तमान हैं या (जर+जड़ी) जहाँ सुनहले मंडे फहरा रहे हैं। बसिदेबाशिंदः, नागरिक । मुतलक =(अ.) वर्तमान । १९-महतसरा = अंतःपुर, रनिवास। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा प्रभासरामायण होता है ऐसा जग कहीं नहीं हुआ सुना । जो कुछ कोई कि माँगे वहीं उसे भरे ॥२१॥ सब देव की सभा मिल गोविंद सरन जाय । बिनती करे पोकार के रावन की डर डरे ॥२२॥ धरेंगे | मनुख - जनम सुन करार सुर गए । पायस दिया निकल के जहाँ जग-गिन जरे ||२३|| पायस खिलाए तीन को कीने विभाग चार । ब्रह्मा के बचन देव कपी - जन्म तरे ॥२४॥ ऋषि को चलाय चाह सों चकोर - चित नरेश । इस बरस हिरस ग्रास दरस परस चैत चंद ||२५|| दिन चैत सुदी नामी ग्रह पाँच जब बुलंद | करकट लगन विकटहरन प्रगट भए मुकुंद ॥२६॥ शंख, शेष, चक्र तीन अनुज फिर भए । श्रीराम भरथ लछमन शत्रूघन नाम द्वंद्व ॥ २७॥ कंज- नैन मेघ- श्याम राम, लछमन गोरे । वैसे भरथ शत्रूघन दोनों हैं एक जिंद ||२८|| ऐसे कुमार चार चारों बेद गुणनिधान । दशरथ के दिल के हार जग सुजन के आनंद कंद ॥२॥ सुंदर सरूप सर-धनु-धर रघुबर रनधीर । दशरथ के दिल को दिन दिन शादी को फिकिरमंद ॥३०॥ गाधी कुमार झगड़ लछन - राम ले चले । बाम्हन के बन जगन बिधन-हरन मारन को रिंद ॥ ३१ ॥ · ४२१ * दुरदुरे | + करेंगे । २५ – हिरस = इच्छा । २८ – जिंद = ( ० जिंस ) ३१ – जगन = यज्ञों । रिंद = निर्भय I समान । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका प्रतीबल पढ़ाय बन देखाय ताड़का मराय । अस्त्र ले जे निशिचर हते अपसुंदसुंदनंद ॥३२॥ टारे बिघन जगन के जंगल किए हरे । ऋषि कुल मुलक सुना चले कमान-जाग में ॥३॥ गंगा के गन अगनित बिख्यात जगत सब सुने । सागर भरे भगीरथ पितरों के भाग में ॥३४॥ विशाल पुरी पैठे जहाँ मारुत प्रगटे । गौतम शिला अहल्या तारी सोहाग में ॥३॥ गौतमकुमार शतानंद जनक ने सुना। आए हैं ब्रह्म-ऋषी दो कुमार बाग ॥३६॥ कुशल पूछ शतानंद जनक जी कहे । दो देव कौन ल्याए महबूब जाग में ॥३०॥ खुश नैन खूब रूप सुरज चंद दिल हरे । चहिए धनुष धरें करें सीता सोहाग मों ॥३८॥ रघुबीर हैं रनधीर दो दशरथ के लाडिले। आए हैं लछन-राम काम धनुष-जाग में ॥३॥ सुन मन अनंद शतानंद राम से कहे । यह नृप सो ब्रह्म-ऋषि भए बसिष्ठ भाग मों ॥४०॥ ऋषि की कथा सुनाय शतानंद जनक चले। कल आय धनु चढ़ाइए सीता बिहाइए ॥४१॥ शंकर-कमान मान असुर-सुर-नर तरसें। रघुनाथ तुरत तोड़ा बल को सराहिए ॥४२॥ रीझे जनक तिलक किया सिय माल गरे डाल । दशरथ को दूत जाकर जलदी बोलाइए ॥४॥ ३२-प्रतीबल = मंत्र हैं। ३७-महबूब =(40) प्रिय, अत्यंत सुंदर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ प्रेमरंग तथा आमासरामायण शादी की शुगल सुनकर खुश दिल से सब चले। दिन-रात चल बरात जनकपुर पोचाइए ॥४४॥ कुशध्वज बोलाय लाए युधजित अवध से आए। गुरु जनक कुल बखान कहा गोदान कराइए ॥४॥ जनवास आय कह पठाय जनक सों मिले। मंडप बनाय चारु चारों बर बोलाइए ॥४६॥ दशरथ-कुमार चार चार कुँअरि जनक की। बिहा दिया बिदा किया अवध को जाइए ॥४७॥ मग में मिले भृगुनंदन रघुनंदन घेरे। लेकर धनुष कहा महेंद्रगिर को धाइए ॥४८॥ राम राम चीन्हे कीन्हें बखान वेद। ब्राह्मन गए नृप सज भए नगर सजाइए ॥४॥ तुरत भवन आय भरत कों बिदा किए। शचिपत सों 'प्रेमरंग' सियावर रमाइए ॥५०॥ इति श्री प्राभासरामायणे बालकांडः समाप्तः । अयोध्याकांड ( लावनी की चाल, रागिनी बरवै) भरत शत्रूधन ले गए मामा खिजमत लछमन राम करी। राजा दशरथ को राज देन को सालगिरह सायत ठहरी ॥१॥ नहीं राम सा नर है जग म जग-मोहन औ जसधारी। मँडलेश्वर मंजूर किया तब नृप करवावत तैयारी ॥२॥ राम-राज का हुआ हँगामा घर घर खुशियाँ फैल गई। कैकेयी की लौड़ी भीड़ी देखत जल बल खाक भई ॥३॥ ४४-शुगल =(१०) विषय । ३-हँगामा =समारोह। -खिजमत = (अ. खिदमत) सेवा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका कैकेयी को यों समुझाया रामराज मत होय कधी। भरत बिचारा वहाँ पठाया तुज पर होगी ऐन बदी ॥४॥ क्या जानें क्या जोग सुनाया बस कर राजा बचन लिया। कैकेयी बरदान माँगकर आज तिलक मौकूफ किया ॥५॥ कैकेयी ने राम बोलाए बिदा कराए गुरु जन सों । कौशल्या परि पाय मनाई लछमन कुढ़के तन मन सों॥६॥ माँगी सीख सिया घर आये रहन कहा तब मरन लगी। सर्बस दे निकसी मग में लख रोवत नगरी रैन जगी ॥७॥ कैकेयी सब मिल समुझाई धिधिक पाई गुरुजन सों। पहिर चीर जब बाहर निकसे बिरह आग लागी तन सों ॥८॥ रथ पर बैठ चले जब बन को थावर-जंगम संग चले। नहिं कोइ वैसा रहा नगर में जिनके नैन न नीर ढले ॥६॥ राम चले बनबास रि सजनी उठ घर में क्या काम रहा। सीता राम लिए लछमन सँग मुख सों राजा जाहु कहा ॥१०॥ हा हा करत चले नर-नारी जब लग रथ की धूर दिसी । तनमनधन की सुध बिसराई बिरह-आग हिय सेल धंसी ॥११॥ पहिली रात बसे सब बन में बिना कहे चुपके सटके । उठत, राम नहिं देखत रोवत घर पावत जिय जन हुटके ॥१२॥ गंगा दरस परस हिय हरखे शृंगवेर की मँजल लिया। गुह मलाह की जात कौन सी दिल भर अपना यार किया ॥१३॥ गुह सों मिलकर नदी उतरकर भरद्वाज से जाय मिले । एक दिन रहे फलहार खाय कर चित्रकूट मों गए चले ॥१४॥ दंडक बन को से बिहारी बनचर मृग मुनि अभय दिए । कुटी बनाय भुलाय राज को अचल अचल पर बास किए ॥१५॥ ४-ऐन = ठीक। बदी =बुराई। ५-मौकूफ किया=रोक दिया । १३-मॅजल =मंजिल, पड़ाव ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४२५ वहाँ सुमंत्र बसत सुन बन में रोवत रथ को फेर लिया। रोए तुरँग कुरँग भुंग जल थल बन पंछीहू रोय दिया ॥१६॥ पूछत नर नारी सब मिल कर कहा राम तुम त्याग किए । कौशल्या नृप जब पूढेंगे कौन बचन तुम कंठ किए ॥१७॥ सुन सुमंत्र का रथ जब आया झटपट राजा उठ बैठे। नहीं राम खाली रथ आया सुनत खाट पर फिर ऐंठे ॥१८॥ कहत सुमंत्र बसत हैं बन में कह पठवाया गुरुजन सों। चौदह बरस बिताय प्राय कों फिर लागोंगा चरनन सौ ॥१॥ सुन कौशल्या बचन हमारा श्रवन-सराप-पाप जागा। जैसा करै सो तैसा पावै राम बिरह से फल लागा ॥२०॥ आधीरात पोकारत रोवत हाय राम लछमन सीता। इतनी कही सो कही नहीं फिर बोले राजा जग जीता ॥२॥ कौशल्या उठ प्रात पोकारी पति देखे परलोक गए। जन रनवासा रोता सुनकर अवध-निवासी दीन भए ॥२२॥ कहत बसिष्ठ सभा कर सब कों बिन राजा नहीं काम चले । तेल-कुंड में रख राजा को भरत बोलावन दृत चले ॥२३॥ भरत लैन कों चले दूत जब वहाँ सैन में सपन भया। खान-पान की सुध बिसराई सखा सबन सों स्वाद गया ॥२४॥ पहुँचे दूत बोलावत गुरुजन जलदी चलिए अवधपुरी। कुशल पूछ कहि चले पंथ मों किया मुकाम न एक घड़ी ॥२५॥ सात रात दिन चले पंथ मों पुरी जरी सी देख डरे । रथ से उतर गए घर में फिर कैकेयी के पाँव पड़े ॥२६॥ कहत पिता नहिं भाई देखों नगर उजर सा देख परे । जितनी भई कहीं सब तितनी सुनत पड़े जो बृच्छ गिरे ॥२७॥ धिक् जननी तू नहिं मैं तेरा, पतिघातिन नागिन जैसी। रामदास मोहिं जानत सब जग क्या उलटी हिय बुद्धि बसी ॥२८॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका रैन बिहानी कौशल्या घर गुरु के कहे सौ क्रिया करी। राज देन लागे सब मिल तब हाय राम कहि आँख भरी ॥२८॥ कहत भरत सब सुने मंत्रि गुरु राम ले पावन अहद करो। जो नहिं माने कहा कधी तो बैठ साम्हने से न टरों ॥३०॥ राम लैन को चले सबन मिल नर-नारी सभ ही निकसी* | शृंगबेर में जाय पड़े तब गुह बोले अपने जन सों ॥३१॥ मिले भरत गुह कुशल पूछ कहि क्यों रघुबर से लड़न चले । दास मुए बिन पास न पहुँचो सुनत भरत दृग नीर ढले ॥३२॥ कहत भरत गुह बचन-बान से मत बेधे-हिय बेध करो। राम लेन कों जात जातिसँग चलो नाव पर तुम उतरो ॥३॥ सुनत बचन गुह नाव बोलाई किया गुजारा लश्कर का। भरद्वाज सो जाफत लेकर मिला ठेकाना रघुबर का ॥३४॥ लश्कर छोड़ा पावन जोड़ा संग लिए शत्रूघन को। धुंआ देखकर हुए खुशाली इहाँ राम आए बन को ॥३५॥ वही समे सियपाते बन बिहरत काग आँख पर तीर लगा। लश्कर देख डरे लछमन प्रभु भरत प्राय मत करत दगा ॥३६॥ मत लछमन यह बात बिचारो मुकर राज देगा मुझको । तुम चाहो तो तुम्हें दिखाऊँ भरत नहीं दुशमन तुमको ॥३७॥ पहुँचे भरत राम कों देखे दौड़ गिरे नहि पहुँच सके। लिए उठाय गोद बैठाए लगी टकटकी रूप छके ॥३८॥ पिता-मरन सुन अति दुख पाए नदी नहाय आय बैठे। भरत कहत कर जोड़ गोड़ गिर तोन भ्रात सें प्रभु जेठे ॥३॥ * नरनारी चिकसे घर से। कुड़े। ३०-अहद-प्रण, प्रतिज्ञा । ३४-गुजारा = उतार । जाफत =(अ0 जियाफत) जेवनार, भोज । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायण ___४२७ तुम राजा हम दास तुम्हारे चलो अवध पुर राज करो। जननी की तकसीर माफ कर राजसिंघासन पाँव धरो॥४०॥ ऐसे बहुबिध बचन सुनाए नहिं रघुबर को एक लगे। चौदह बरस कहे सो कहे नहिं कहे किसी के राम डिगे ॥४॥ नेम किया जब भरत मरन का करुणानिधि यह बिधि बोले । यही पाँवरी राज करेगी जैसे हम पर छत्र ढले ॥४२॥ कहत भरत सब सुने सभाजन अहद अवध लग देह धरों। जो नहिं देखो चरन-कवल तो पैठ अगिन में वोहिं जरों ॥४३॥ पाँवर लेकर बिदा होयकर सिर पर धर परनाम किया। आय अवधपुर उजर देखकर भरत आँख भर रोय दिया ॥४४॥ नंदिग्राम में बसे बैरागी चौदह बरस बितावन कों। वहाँ राम गिरिराज त्यागकर चले अत्रि के आश्रम को ॥४५॥ मुनि पद परसे अनुसूया ने सियमुख सुना स्वयंबर को। 'प्रेमरंग' प्रभु सुख से बसे धसे बनघन सर धनुधर को ॥४६॥ इति श्री आभासरामायणे अयोध्याकांड: समाप्तः । मारण्यकांड (रागिनी सोरठ, ताल धीमा तिताला, छंद रेखता) पैठे हैं बन सघन में कर धर बान औ कमान । क्या खूब रूप महबूब जटाजूट मुकट से ॥१॥ लटकीले नैन बैन मधुर बोल बस किए। टारे न टरें तापस लटके हैं लटक से ॥२॥ एक एक की कुटी जायकर फल मूल रहे खायकर। आगे से बन बिकट से ठठके हैं खुटक से ॥३॥ ४०-तकसीर = दोष। ४३-अहद =समय । ३६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका एतने में दौड़ आकर निशिचर ले चला सिय को। लछमन के कहे झपटे छोड़ाया है दपट से ॥ ४ ॥ सीने में बेध पाय कर रख सीय ले चला दुहुँन को। सीता को देख रोते कर तोड़े हैं चटक से ॥५॥ बिराध मैं अमर हो नहिं मरता हों किसी से । रघुनाथ जो तुम्ही हो गाड़ोगे पटक से ॥६॥ गड़हे मो गाड़ निशिचर आगे को चले हैं बन में। शरभंग राम रंग हुए जल खाक झटक* सें ॥७॥ मिल मिल को मुनि आए रघुबर-रूपगुण लोभाए। भय पाय अभय माँगे रावन के कटक सें ॥८॥ यमराजदिक् में सुनते मुनिवर अगस्त कहाँ रहते। दश साल यों गुजर कर सुतीक्ष्ण राह बताए ॥६॥ पहुँचे हैं दरस परस कर मुनिवर पास रहैं रघुबर। शमशेर कमान अछै शर अपनी अमान पाई ॥१०॥ रहना है हमैं बरसों कोई खुश ठौर हुक्म कीजे। तप ज्ञान जान प्रभुको जनस्थान बास बताई ॥११॥ जटायु प्राय मिलकर कर कुटिया में रहे कोइ दिन । गुलबहार निहार सरोवर जल्दीहि नहाए भाई॥१२॥ एक बेर कहें शुगल में वहाँ सूपनखी आई। भोड़ी सी सकल निगोड़ी सुंदर सरूप लोभाई ॥१३॥ दो चार दफे दौड़ाई ब्याह करने को दोनों भाई। हँस सुजान कान काटे हो नकटी वहाँ से धाई ॥१४॥ रघुनाथ सरूप कहे ते नाकों में खून बहते । चौदह चलाए खर ने निशिचर चढ़ाइ ल्याई ॥१५॥ * चटक । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४२६ देखे हैं बड़े भयानक प्रभु लछमन को सौंप थानक* । मारे हैं सभी सहज में जमराज पुरी देखाई ॥१६॥ राकसू को मारे सुनकर खर चौदहो हजार लेकर। ल्याया दूखन वगेरे त्रिशिरा, रघुबर से मराया ॥१७॥ खर एक देख रथ पर कहि दो-चार बात सखती । लड़ भिड़ को थका जाना सर बेधि सिर गिराया ॥१८॥ सुर मुन ने सुना नहाए तज रनभूम कुटी में आए । बन ब्राह्मन अभय पाए हँस सियाराम गरे लगाया ॥१६॥ एक सुर्पनखी अकंपन डर दौड़ गई है लंका । सीता को हरन बताया मारीच मदत ठराया ॥२०॥ मारीच डरा डराया बल रघुनाथ का सुनाया। जंजाल घेर ल्याया जनस्थान हरिन चराया ॥२१॥ सिय देख फूल चुनते अजब सुवर्न हरन चुगते । मन नैन हरे हरिन ने रघुबीर को दौड़ाया ॥२२॥ भरमे हैं दूर जाकर लगी सर बेध गिरा निशाचर । मरतेइ कहा हो लछमन सिय प्राण डराया ॥२३॥ आतेहि अवाज लछमन सिय बरजोर पठाया। रावन ने सियाहरन कर खगराज कटाया ॥२४॥ पर काट चला गगन से सिय रोती हि डाल गहना। धर अंक लंक पहुँचा सुरबर खीर खिलाया ॥२॥ मारीच मार फिरते खग-मृग बाएँ भौंर करते । लछमन को देख डरते कहा सिया को कहाँ गँवाई ॥२६॥ कुटिया को देखि खाली फल गुल बेल फूल पूछे। बेकरार बेहाल बेबस ढूँढे हैं कहीं न पाई ॥२७॥ * 'थानक' यह शब्द एक प्रति में छूट गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० नागरीप्रचारिणी पत्रिका रोते हैं गम से गश में कहाँ जाती हो तुम्हें देखा। बनवास हास कैसी कहे कदलि को गले लगाई ॥२८॥ गोदावरी डरी सी लख मृग दीन दखिन को दौड़े। अत क्रोध काल अगिन सो रनभूम लछमन देखाई ॥२६॥ रथ छत्र बान कमान कर धर हाथ कबंध किसके। इतने में देख खग को कहा सिया इसी ने खाई ॥३०॥ रोते हैं सुने सर धर बिन पर दर्द मों राम देखे । सीता की हरन सुनाई रघबर गोद मों मौत पाई ॥३१॥ चाचा से सेवाय गम कर करनी सो चलाय सुरपुर । कबंध बंध काटे तन जरने सो मदत बताई ॥३२॥ सुग्रीव सहाय सुनकर 'प्रेमरंग' मतंग-बन को। देखे शवरी सती की गत कर पंपा की सर* सोहाई ॥३३॥ इति श्री आभासरामायणे पारण्यकाण्ड: समाप्तः । किष्किधाकांड (रागिनी सावंत, ताल दानलीला की चाल से, सवैया छंद) फूलन की द्रुमनु की झखन की बहार निहार सरोवर झार जरे हैं। कोकिल कूजत भंवर गूंजत मोरन कूकत पंख झरे हैं । कुंद कदंब नितंब से ताल तमाल नए नए भार भरे हैं। आज अकाज बसंत असंत मरें न बिहंग अनंग धरे हैं ॥१॥ लछमन तुम जाय कहो सब से जब से हम प्राण धरे तन माहीं। जानकी जानकी जानकी गाहक नाहक भर्तकर मत झाहीं ॥ आज समाज करें कपिराज तो राक्षस राजपुरी कुल नाहीं । सौमित्र सरूप जगावत ही प्रभु पैठे पहाड़ पिंगेश के माहीं ॥२॥ • पवन । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४३१ गोलांगुल बानर रीछ के ईश बसे बन बाली बली यह नेरे । कुह कंदर अंदर बंदर हैं मुनि ताप प्रताप पहाड़न हेरे । सुग्रीव के जीव को चैन यही चलि जाय मिले दिन-रात हैं दौरे। बन से निकसे कपियों हद से उठके छटके एक ठोर न ठहरे ॥३॥ महाबीर बली रनधीर हरी हनुमान कहो अनुमान से जाने । दूत सपूत सँवारत काज समाज किए बिन कौन पैचाने ।। द्विज रूप सो आय परे प्रभु पाय स्वरूप सुनाय रिझाय बखाने । नरेंद्र कपिद-समाज करें उनकी सुन कों प्रभु जो मनमाने ॥४॥ सनेह से बाँध धरे दोउ काँध ले आय नरेश कपीश मिलाए। वरु डार बैठाय को आग जराय को मित्र कराय सभी सुख पाए । सिय को हरना सुन को गहना यो गिराय गई सो देखाय रोवाए। सुग्रीव सँदेस सुने सो प्रभू कर कौल कहा कलि बालि मराए ॥५॥ कौल सुने सो कलोल किया बली बालि बके सो बिचार से जाने । प्रतीत न होत सियापत से तब दुंदुभी देह देखाय डराने ॥ दुदुभी देह गया दसयोजन ताल पताल बिधे सरमाने । नाथ सनाथ किया मुजको धर हाथ अनाथ कहाँ लो बखाने ॥६॥ प्रभु को संग ले को चले लड़ने बल बालि बढ़े तब काल से लागे। पराय लुकाय रहे गिरि आय कहें प्रभु मार खेवाय को त्यागे॥ राम कहे दोनों भाइन में तब चीन्हि परे रन सों जब भागे। इतनी कह कंठ लगाय लता फिर ताल ठोकाय लिया धर आगे॥७॥ बन ब्राह्मण आय प्रणाम कराय बैठाय सभी सुख* सो ललकारा । सुन दाँत बजावत ताल लगावत धावत आवत रोकत तारा ॥ नाथ छिपा कोइ साथ में है रघुनाथ के हाथ सहाय पोकारा । तिय को समुझाय भिड़े बन में नग शृंगन मूकिन जंघन मारा ॥८॥ * छिपाय। ३-कुह = पर्वत। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका दपटें लपटें पटकें उठकें कर दाँत कटाकट देह विदारे । शृंगन बृच्छन अंगन से बर अंग भड़ाक पहाड़ से फारे ॥ मुष्टि के कष्ट कनिष्ट हटे तब दृष्ट के घृष्ट से इष्ट पोकारे । अगस्त के दस्त के तोर की सिस्त में काल के गस्त में बालि को मारे ॥६॥ हिय फाड़ गड़े से पहाड़ डिगे तब दूर से दीनदयाल देखाने । पास बोलाय कहा लड़को तुम राजकुमार कि चोर छिपाने । तीर कमान वही सनमान जवान जताय को बान को माने । तिया बरजे गरजे न सहा तृण-कूप को यूप धराधर जाने ॥१०॥ राम कहें कपि क्यों कलपे अलपे अपराध न बाधत प्रानी। भत के भ्रात सो उर्त नहीं तिय बंध बधू तुम भोगत मानी ॥ हम दीनदयाल निहाल करें जिहिं हाथ धराय बँधाय जबानी। एतनी सुन बालि धरे कर भाल कृपाल कृपा करो मैं अब जानी ॥१२॥ बँदरी बँदरा मरना सुन के बन आय को बालि बिलोक को रोवे । अंगद अंग छुवे पर पाय उठाय को गोद* बैठाय को रोवे॥ तात तजो तुम जाति-सुभाव सहो सुख दुःख चचा खुश होवे । एतनी कह माल पिन्हाय सुग्रीव कों बान निकासत प्रान को खोवे ॥१२॥ सुषेण-सुता तारा सिगरी पति-अंग उठाय प्रालिंगन देहैं। लछमन हनुमान कहे करनी करने को चले कपि यान गहे हैं । अंगद अंग दहे पितु के सब स्नान किए हरि नग्र चले हैं। हनुमान कहे प्रभु नग्र चलो ऋतु पावस मास में पास रहे हैं ॥१३॥ राम कहे हम काम तजे बनबास सजे नहिं नग्र चहेंगे । तुम भामिनि भूम सिराय को आओ हम न घन दामिनी झार जरेंगे। * पास। + टोवे। --घृष्ट = इशारा। दस्त = हाथ । सिस्त = श्राब, धार। गस्त - फेर। १०--तृण-कूप =जिस कुँए का मुख घास-पात से छिपा हो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३३ प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४३३ तुम चातुरमास बिलास करो हम चात्रिक बूंद की आस गहेंगे। रविनंदन राज बैठाय को अंगद दे युवराज सबी सुख लेंगे ॥ १४ ॥ लछमन बदरा उमड़े घुमड़े गरजे बरसे जिय को ललचावें । दादुर कोकिल मोर के सोर घटा घन-घोर सि घेरत आवे ॥ जलधार धरा सों मिले ऋतु में हमें प्रान-प्रिया के बियोग सतावे । सावन की सबजी लख जी को नजीक सिया बिन नैन ढरावे ॥१५॥ देखो भादो नदी उमही ओ मही धन-धान्य-भरी ऋतु त्यागत मीता। हम सूखत स्वल्प सरोवर से इस आश्विन मास में पास न सीता ॥ जल सीत भए जल दाह गए फल फूल नए बरखा ऋतु बीता। लछमन समुझावत तो नहिं मानत उन्मत्त से मन्मथ अब* जीता ॥१६॥ मग सूख गए जल साफ भए नभ निर्मल चाँदनि चंद्र बिकासे । कातिक मास करार किया कपि कारन कौन न सैन निकासे ॥ उन्मत्त को लत्त लगावत लछमन, बाल के काल के बान हैं खासे । लछमन सुन सेस से साँस भरे सर साज सजे धस क्रोध प्रकासे ॥१७॥ डरपे बदरा बँदरी न डरी समुझाय रिझाय कपीस मिलाए । अंगद बीर हनूमान जांबवंत नल नील सुषेण अनेक देखाए । हरीश नरेश के पास चले सो चले तिहुँ लोक भलै डरपाए । दृग हाथ से पोछत हैं रघुनाथ जोजक्त के नाथ अनाथ से पाए ॥१८॥ सरदार गिनाय बैठाय कह कर जोर कपी प्रभु जो फरमावे । राम कहें सब काम किए सिय खोज लगाय को फौज लड़ावे ॥ उदयाचल दक्खिन अस्तगिरी कपि उत्तर कूल लौं देस बतावे । कपिचारबोलाय को चार दिशा पठए कहि एकहि मास में आवे ॥१॥ तीन दिशा तीनों फौज गई हनुमान बखान मुंदरी पठवाई। कै कोट जोजन के भुवन हे कपी तुम कैसे लखी किसने देखलाई ॥ * मन । १५-नजीक = नजदीक, पास । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका प्रभु बाल के बैर में भागत में कर गोपद सी कै बेर घुमाई । तीन दिसा फिर आए कपी हनूमान सँदेस की आस बंधाई ॥२०॥ दंडक बिंध्य मलाद्रि सहेंद्र को ढूँढ़त भूख पियास के गाढ़े। बिल देख फँसे फल फूल दिसे कोई रोज बसे सो स्वयं प्रभु काढ़े ॥ ऋतु बीतु गए सो लगे मरने संपाति संदेश सो बाँदर बाढ़े। छाल गिनाय थके न सके जांबुवान कहे हनुमान से ठाढ़े ॥२१॥ जन्म समै शिशु रूप तुम्ही रवि लेन चले तब राहु चलाए । राहु को छोड़ गजेंद्र पै धावत वज्र लगे हनूमान कहाए ।। वायु के कोप से देव बोलाय अवध्य कराय अती बल पाए। 'प्रेमरंग' प्रभू को प्रतीत तुम्हीं उठ काज करो सँग अंगद आए ॥२२॥ इति श्री आभासरामायणे किष्किंधाकांड: समाप्तः । सुंदरकांड ( राग भैरव, धीमा तिताला, पद की चाल सों कवित्त) हनूमान जीवन सब के तुम उठ सीता की खोज करो ॥ हनू० ॥ कहि संपाती पार जान की उछाल लगावन बल सुमिरो ॥ हनू० ॥ तब रावन रिपु सिया खोज की सुध पाए बल बदन बढ़ाए । जांबवान अंगद सुख पाए कहा सभन को यहिं ठहरोहिनू०॥१॥ एतना कहत बढ़े मारुतसुत कही अंगद को धीर धरो। लंक उठाय धरों उत ते इत सुखी होय बानर विचरो ॥हनू०॥२॥ चूरन नग कर गगन गती धर कर धर के मैनाक कका पर । नाग-मात कों गर्व हरन कर मार सिंहिका पार परो ॥ हनू०॥३॥ मारजार सम बपु कर निसिमुख लंक जीत देखत डगरो । चंद्र चाँदनी चमक चहू दिस बन उपबन सब ढूंढ़ि फिरोहनू०॥४॥ २१--छाल = उछाल, कुदान । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४३५ घर घर घूमत कूदत धावत निकसत पैठत कहीं न बैठत । रावन सदन बदन तिय देखत स्यंदन बिमान हेरन निकरो॥हनु०॥५॥ तिल तिल जल थल महल हेर हरि हार हदस चिंता चित बाढ़ी। कहीं न देखानी रैन बिहानी पुन खोजत घर घर सिगरो॥हनु०॥६॥ बनिक असोक लखी मृगनैनी अल्प रहो पिछली जब रैनी। शिंशु शाख शुक* रूप धरयो तब रावन आवन शबद परो ॥हनु०॥७॥ नरम गरम कहि सिय धमकाई रावण तृण लख कोपत माई । धिक तोहे मोहे रघुनाथ नाथ बिन नहिं दुसरो नर दृष्ट परो ।हनु०॥८॥ खड्ग काढ़ मारन कों धायो मंदोदरी समुझाय फिरायो । यातुधानि बमकी दबकी त्रिजटा सपने दशकंध मरो ॥हनु०॥६॥ भर्त्ता-बिजय सुनत सिय हरखी बाई ओर बाई भुजा फरकी। उखताय मर नगर में धरि बेनीतब हरिरघुबर जस उचरो॥हनु०॥१०॥ चकित होय चितवत चहुँ दिस कपि बर मुख निरखत हरख डेरानी। धीरज देवतिया लैके रघुनाथ कुशल कहि काज सरो।हनु०॥११॥ सुनि सुग्रीव सनेही सँग में राम लच्छन के लच्छन अंग में । दूत हरी लख आँख भरी अँगुरी मुंदरी दै पाय परो ।।हनु०॥१२॥ श्रवन सुनत सिय नैन अवे कपि कहतराम आवत इत जलदी । दिन नहिं चैन रैन नहिं निद्रा सिया नाम को मंत्र ठरो॥हनु०॥१३॥ बिदा करत मनि देत चिन्हाई काक तिलक की कथा सुनाई । लछमन मनाय रघुबर ले आय सुग्रीव सहाय समुद्र तरो॥हनु०॥१४॥ एक मास जीवन सुन मणि ले बिदा होय मन तोड़ दियो । बना गिराय बनपाल मार जै राम दूत कहि सोर करो ।हनु०॥१५॥ असी हजार किंकर बिदार पुनि सात पाँच मंत्रिन सँघार । अक्षकुमार मार सुरबर-रिपु हार संभार न अस्त्र धरो ।।हनु०॥१६॥ * शिशु। ४० गृह । १६-सुरबर-रिपु=इंद्रजीत । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका ब्रह्मा- बचन सुमिर मारुतसुत अत्र सूत्र सों अंग धरयो । नृप दरसन भाषन बिफरन बिचरन स्वतंत्र तन जंत्र करो || हनु०||१७|| बाँध निशाचर नृप देखलाए कहो बाँदर तोहें कौन पठाए । राम* हरीश कुशल कहि तुमको कुशल सिया ले पाय परो || हनु०॥१८॥ रामबान से बाल गिरे खरदूखन त्रिशिरा ठौर मरे । अज महेंद्र शिव शकति नहीं सिय-चोर बचावन बचन धरो ॥ हनु० ॥ १ ॥ स्पंदन चढ़ लड़ना बिसरायो भय पायो मारन फरमायो । अनुज बिभीषन कहि निषेध पुनि पूँछ जरन को मंत्र ठरो || हनु०॥२०॥ पूँछ जरावत नय फिरावत हरकारा कहि टेरत मारत । लघु होय बदन छोड़ाय अगिन सों तज स्वकीय गढ़ लंक जरो || हनु०॥ २१ ॥ कारज सिध कर पोंछ बुझायो हाँक सुनाय उदधि लँघ आयो । जांबुवान अंगद जस गायो मधुबन पैठ बिनाश करो || हनु० ||२२|| दधिमुख जाय हरीश पोकारा हनूमान अंगद मोहे मारा । मुकर सिया को देखि बिचारा जाओ पठाओ माफ करो || हनु०||२३|| राम समीप पहुँच पद परसे देखी सिया निशाचर घर से | रुदित मुदित मुखपंकज-मनि ले सुमिर सनेह बिरह बिफरो || हनु० ||२४|| कहो सँदेस यासों सुने सब यहि जीवन की आस रहि अब । काक तिलक की कथा सुनत प्रभु हाय सिया कहि आँख भरो || हनुः ॥२५॥ 'प्रेमरंग' श्रीराम परम द्युति सर्वस ज्ञान अलिंगन दीनो । कृत कृत मानत कहत पवनसुत प्रभु प्रताप ऐसा सुधरो || हनु० || २६॥ इति श्री प्रभासरामायणे सुंदरकांडः समाप्तः । युद्धकांड ( रागिनी पहाड़ी ताल, छंद पंचपदी सूरबीर की चाल से पँवाडा ) सुनकर जो कुछ हुआ सो हनुमन् सराहे राम । दूजा नहीं न होगा निशिचइ में काढ़े काम ॥ * भ्रात । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभास रामायण ४३७ यही हनुमान अकेला । गगन गत मारे हेला ॥ जाय सिया कों संदेसा मेला लंका कीनी आग का ढेला ॥ आय मुझे जीवन सों मेला ॥ १ ॥ सर्बस देते बकसीस कपीस कों उठ गले लगाय हनुमान बली अंगद दोनों रघुबर लिए फौजें बादल सी दौड़ीं । गजैं जों जमीन सी हथियार हाथों में डारे तोड़ी । बँदरों ने बागें मुतलक मरने की डर भी छोड़ी ॥ २ ॥ उठाय ॥ फोड़ी ॥ मोड़ी ॥ साइत कों साध चलने सों सगुन पवन सहाय । रघुनाथ के हुकुम सों खेतों कों कूद बचाय ॥ डेरा दर्याव पर दीना । बंदरों कों गिर्द में लीना ॥ रीछ लंगूर को पीठ में कीना । बिरहानल सों सीना भीन्हा ॥ हाय सीता जोबन होयगा हीना ॥ ३ ॥ लंका की दसा देख क रावण को निशिचर सभा बोलाय कों सब मिल करें मुझे अब क्या सल्लाह है । मैंने उठाय गिरी कैलास हिला है । लड़ने को राम यमराज संग उसे बंदरा बेकरार | बिचार || दला है । चला है ॥ मिला है ॥ ४ ॥ सरनाम । बंदर समुद्दर पार कै बली बड़े जल थल बनाय ल्याय कों लड़ाय मारेगा राम ॥ मुझे खतरा है जी का । मनसूबा बतलाओ उसी का ॥ हरन किया मैं सीता सती का । महल्ल मुझे लागे फीका ॥ सुभोग सिया सँग लागे नीका ॥ ५ ॥ २—मुतलक = सब, बिलकुल । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका सुनकर उठे निशाचर हार्थों में ले हथियार । इंद्रजीत प्रहस्त महोदर लड़ने को पल्लेपार ॥ सभी को मारेंगे सोते । जीवेंगे सो जायँगे रोते ॥ कै एक दर्याव में खायेंगे गोते । उनों की प्राइ है मोते ॥ जो कोइ हमन से बैर बोते ॥६॥ धीमान सुन बिभीषन कहते हैं सिर नवाय । सुंदर सलाह सिया द्यो रघुबर की सरन जाय । लंका को उजाड़ डालेंगे। भाई तेग मार डालेंगे॥ बँदरे बेटों को बिदार डालेंगे । बरदान बहाय डालेंगे। दस सोस बानों से काट डालेंगे॥७॥ रावण कहे अमर हो मैं अगिन को द्यों जलाय । मौतों को मार डालों सूरज कों द्यों गिराय ॥ तैंने मुझे क्या बिचारा । नदियों की उलटाय द्यों धारा॥ कैयक राजों की हर ल्याया दारा । बंदर निशिचर का चारा॥ मुकर मैंने रघुबर को मारा ॥८॥ धिक्कार है भाई तुझे नहीं मेरा दुशमन । बातें बनावता जलावता है मेरा तन ॥ बिभीषन सुन को रूठे। मारे सभी जाओगे झूठे ।। संग संगी चारों यार भी ऊठे। आए हैं हरीश जहाँ बैठे। बीच देषे रघुनाथ अनूठे ॥६॥ आकाश सौ पुकारा रघुनाथ की सरन । लंका सदन सजन छोड़ा एक मासरा चरन ॥ बिभीषन नाम है मेरा । हरीश ने हरीफ सा हेरा ॥ हनुमान कहैं इनकों दीजिए डेरा । प्रभु कहे भाई सा चेरा ॥ जो कइ एक बार सरन का टेरा ॥१०॥ १०-हरीफ शत्रु। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा प्रामासरामायण ४३६ बोलाय को मिलाय को चरन धराय कों। लंका का भेद पाय को राजा बनाय को॥ सभी सुख सो बिराजे । चेरा शार्दूल पर राजे ॥ देख दौड़ा रावन दरवाजे । समुदर पर बंदर गाजे ॥ सुन सुबा सो सल्लाह साजे ॥११॥ गगन सों सुआ बोला रघुनाथ के समीप । रावन कुशल कहा बखानता है लंक दीप ॥ लंकेश है काल का जैसा । दरियाव दान में वैसा ॥ हरीश-नरेश जीतोगे कैसा । बंदरों ने रौंदा ऐसा॥ कसम् करता औ मरता है तैसा ॥१२॥ सबकी सलाह सों किए बासर उपास तीन । शेष तज सीराना रघुनाथ हाथ कीन ॥ दया दर्याव न जानी । उठकर कमान को तानी ॥ काँपगए तीन लोक के मानी । कर जोड़ को गोड़ गिरा पानी ॥ प्रभू की कीरत बखानी ॥१३॥ सर को फेंकाय मारवाड़ देश सुध कराय । नल कों बताय पुल को पानी गया परि पाँय ॥ दिन पाँच मो पुल बनाया । लश्कर पते पार चलाया ॥ हनूमान अंगद दोनों बीर उठाया। सुबेले मुक्काम कराया ॥ सुबा छोड़ने का हुकुम फुरमाया ॥१४॥ सगुन् मुमारख देख को लछमन सो कहे राम। दिल सो हुलास यों है सुर-मुन के साधे काम ॥ मुक्काम मोर्चे पर साजे । लंका में नक्कारे बाजे॥ सुन बंदर बमके ओ गाजे । सुबा के संदेश सो लाजे॥ रावन आगे सारन बिराजे ॥१५॥ १५-मुमारख=राम। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० नागरीप्रचारिणी पत्रिका दोनों जाओ खबर ले आओ सिरोपाव पाओगे। सरदार सब समुझ को मुजको जताओगे। दोनों बंदर बने हैं। सर्दार के ए गिने हैं। पैचान बिभीषन ने धर लीने हैं । मंत्री सुक सारन् चीन्हे हैं। छोड़ाय प्रभू को देखन दीने हैं ।।१६।। सारन ने सुन संदेशे रावण से सब कहे । लंका निशाचर राजा सिय को दिये रहे। राघो जी से रन पड़ेंगे। लछमन श्री सुग्रीव लड़ेंगे। भेदो बिभीषन भाई भिड़ेंगे। हनुमान अंगद बढ़ेंगे । उनके मुकाबिल कौन अड़ेंगे ॥१७॥ जांबुवान नील नल सुषेण शत बली रभस । मैंद द्विविद कुमुद तार डंभ गज पनस ॥ गवय शरभ गंधमादन । गवाक्ष श्री केसरी तपन ॥ काढ़ेंगे कराल रदन । सुनकर मलीन कर बदन । चढ़े हैं प्रसाद सदन ॥१८॥ रावण कहे सारन से बंदर का कहो सुमार । कुमार किसके बल क्या दल क्या कहे पोकार । सारनु कहे सुन दीवाने । तुससे जबर चार बखाने । राम लछमन के निशान फर्राने । बिभीषन सुग्रीव टर्राने ।। कइ कोट अर्बुद बंदर अर्शने ॥१८॥ मद देवों के कुमार तेरा बर औ बल बिचार । बाँदर लँगूर रीछ सों छाया है आरपार ।। सीया दे जीया जो चाहे । दसो सीस खावेगा काहे ॥ निर्लज्ज तुझे मैंने जाना है। राजा को चोरी बेजा है ।। सीता इहाँ जमराज भेजा है ॥२०॥ १६-सिरोपाव = खिलश्रत, पुरस्कार में पाए हुए वन । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा प्राभासरामायण ४४१ सुन दाँत पीस रावन सारन् सों लड़ पड़ा। दुसमन का बल बखान बाण दिल मेरे गड़ा ॥ लड़ा हों मैं देव दानो से । परे हो जा दूर कानों सो॥ मार डालो दोनों को जानों सो। नकारे बजवाय निशानों सों॥ दाजे सजवाय ज्वानों सों ॥२१॥ शार्दूल सब बोलाय कहा राम पास जाओ । सरदार सबके दिल की जलदी खबर ले आओ। निशिचर लशकर में आए । बिभीषन पहेचान पाए॥ पकड़ दो-चार को मार दिवाए । रघुबर का हुकुम बचाए। आय रावण को घाव देखाए ॥२२॥ घबराय कों सभा कर चौकी सजाय कों। बिजली की जीभवाला माया बनाय क॥ निशाचर संग में लीना। रघुबर का सिर कमान कीना ।। सीता को देखाय भी दीना । सीया मन में शोक सा भीना। देख सरमा ने माया है चीन्हा ॥२३॥ दौड़ा अाया निशाचर रावण को ले गया। नाना कहे न लड़ झिड़क सुनी खफा भया॥ सरमा सों सीता संतोषी । रावन मारा जायगा दोषी । चौदो भुवन में कर्ता हैं शोषी । मंदोदरी छोड़ अनोखी । दुर्बुद्ध कहता है सीता को चोखी ॥२४॥ माल्यवान खफा हुए उठ गए अविंध्य । सब सज खड़े निशाचर दूजा है मानों सिंध ॥ प्रहस्त को पूरब दरवाजे । महोदर दखिन बिराजे॥ इंद्रजीत खड़ा पश्चिम में गाजे । अपने अपने दल को साजे ॥ __ आप चढ़ा उत्तर सो राजे ॥२५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका मध्य गोल खड़े करन विरूपाक्ष से कहा। लंका सजी सभा तजी राजी महल रहा । राघो जी ने सभ्य बुलाए । लछमन ौ सुग्रीव सब आए । हनूमान अंगद बिभीषन बैठाए । दुश्मन के मकान देखाए । इस लंक ने देव दानो हटाए ॥२६॥ रघूनाथ सो बिनय सों कहते हैं बिभीषन । मेरे रफीक चारों आए हैं इसी छिन । लंकेश लंका त्यार कराई। प्रहस्त पूरब जिम्मे पाई॥ पश्चिम दल पूत पठाई । दखिन दरवाजे दो भाई॥ उत्तर आया आप चढ़ाई ॥२७॥ बिभीषन का वचन सुन को नील कों दिया प्रहस्त । दखिन दिया अंगद को महापार्श्व महोदर मस्त ॥ हनूमान को रावण का बेटा । मेरा है लंकेश से भेंटा॥ सुग्रीव रहे बीच फौज लपेटा । निशिचर को देखाय दपेटा ॥२८॥ सरदार संग ले प्रभु सुबेल गिरि चले। देखि चाँदनी सुगंध पवन-बिरह से जले ॥ लंका को निहार बखानी । खाई में दर्याव सा पानी॥ अगम देखी लंका राजधानी । बागीचे नंदन के सानी॥ महलात मानों कैलास देखानी ॥२६॥ सुवर्ण की देवाल रतन मोतियों मढ़ी। प्रवाल थंभ घर घर पर्वत बनी गढ़ी। धनेश का विमान ले आए। इंद्र का ऐश्वर्य गिराए । पास बरुण ने छिपा बचाए । यमराज ने दंड छिपाए ॥ तीनों भुवन की तिरिया हर ल्याए ॥३०॥ २७-रफीक = मित्र । २१-सानी-परापर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४४३ ऐसा जो दुष्ट देखा हरीफ को हरीश। सिर छत्र चवर दुरे बुरे दश बिराजे सीस ॥ मुकुट दश चंद से चमके । बाँदर राजा देखते बमके ॥ छलांग मारी दशग्रीव पर धमके। छिन एक गारी देन को ठमको। उछल्ल पटका दोनों जंघ में लपटे ॥३॥ झपट लपट मुकुट पकड़ पटक दीया धर केश । गटपट भए अटा पर मर्कट भए पिंगेश । लंकेश को हारा है जाना । माया बल करेगा माना । होठ दाँतों सों पीस गरमाना। सिर में थोपी मार उड़ाना॥ समीप राघो के पर पाय सरमाना ॥३२॥ हित राम कहें हरिवर तुम्हे उचित नहीं साहस । आफत जो होती तुम पर मुजकों होता अपजस ॥ ऐसा काम फेर न कीजे । बैठो फलाहार कीजे ४ ॥ हिस्सा लगाय सभों+ को दीजे । सबों की सल्लाह लीजे ॥ सगुन होते हैं दुशमन जो छीजे ॥३॥ सुबल सो उतरकर लशकर मों आय मिले । हनुमान नील अंगद मोर्चे में गए चले ॥ प्रभु सुग्रीव सों बोले । देखो उतपात के डोले ॥ मौतमांगे निशिचर के गोले । कपिवर को संग लिए डोले ॥ तर्कश औ कमान को ताले ॥३४॥ रावण ने सुना बंदर दरवाजे आय अड़े। दहशत से क्रोध कर कों निशिचर किए खड़े। पकड़। 8 आता। * जेईजे । * उड्डान। जंग में जमके। + सभो। ४१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका राघो जी ने दूर सों जाना । लड़ेगा मुकर्रर गरमाना ॥ दीनदयाल दया पहेचाना । वकील से कहलाय पठाना* ॥ अंगद सब सुन संदेस उड़ाना ॥३५॥ निशिचर की सभा जाय को अंगद खड़े रहे। रघुनाथ के संदेसे रावण से सब कहे ॥ जीवन का जतन करेगा। भाई ओ बेटा मरेगा। राजधानी लंका शहर जरेगा । सीया दे शरन परेगा। बचाव यही जो वचन धरेगा ॥३६॥ सुनकर पकड़ा निशाचर चारों को कहा धरो । मानुष का दूत बंदर को बंध में करो॥ राखस चारों अंगद सों चिपटे । छलांग सौ छूट पड़े रपटे । प्रसाद महल पर झपटे । अटारी को तोड़ उछल दपटे ।। रघुबर के चरण से लपटे ॥३७॥ अंगद की बात सुन को लंका तैयार देख । कुढ़के सिया निरोधथान लेख बिरह के भेख ॥ बंदरों ने नजर पहेचानी । भिड़ना है सल्लाह जानी ॥ उछल चढ़े लंका राजधानी । प्रभू ने कबूल कर मानी । हुकुम किया लड़ना है ठानी ॥३८॥ नल पनस चढ़ नगर उपर अनेक संग सहाय । रावन को खबर पहुँची गढ़ी को घेरी आय ॥ लड़ने को हुकुम फरमाया । नक्कारे औ शंख फुकाया । निशिचर कोललकार लड़ाया। एकेक बंदर धर नीचे गिरवाया ॥३॥ पहाड़ पेड़ दाँत नखों सो गिरावते । राखस भी प्रास बाण पेड़ोंx से लड़ावते ॥ * कहलावना ठाना । | कोप कर। डेवढ़ी। 8 के एक । ४ पटों। ११-दहशत = डर। मुकर अवश्य । ३८-निरोधथान = कारागार । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४५ प्रेमरंग तथा आभासरामायण मारों की घात बचावें । अपना अपना नाव सुनावें॥ महल तोड़ें ओ खंदक पटावें । निशिचर जमपुर को जावें ॥ रघुनाथ सेवक वैकुंठ को धावें ॥४०॥ नदियाँ बहीं रुधिर की मुरदों का हुआ कीच । जोड़ों सों जोड़े गठ गए बाजे बजे रण बीच ॥ अंगद इंद्रजीत हराया। हरिश से प्रघस मराया ॥ हनुमान जंबुमालीमार गिराया। लछमन विरूपाक्षसों लाया।। मित्रन्न रावण के भाई ने खाया ॥४१॥ सुप्तधन जघन कोप सों रघुबर से लड़े चार । एक एक कों एक तीर सों चारों को डारे मार ॥ कैएक बंदरों ने मारे । राखस सब जोड़ों से हारे ॥ भाग गए सो लंकेश पोकारे । हाथी रथी अश्व बिदारे । कबंध उठे मारो मार पोकारे ॥४२॥ कालरात कतल की सी रात हो गई। कोई को कोई न देखे* ऐसी कटा भई॥ हारा इंद्रजीत भी परता । छिप को माया-बल को करता। हराम जमीन मों पाँव न धरता । अस्तर बरसात सा करता ॥ कै कोट काटे सिर भुटों सा गिरता ॥४३॥ सोय गए सब कोई नहा खड़ा दिसे । रघुबीर दोनों बीर को नख-सिख लौं सर धसे ॥ कसे दम ज्वान गिरे से । बिभीषन सुग्रीव डरे से॥ सर जीत चलामानों काम सरेसे । सीता को देखाय मरे से॥ समुझाय त्रिजटा ने ले जाय परे से ॥४४॥ ७ जाने। + अस्तर सर बरसात सा भरता। ४३-कटा=मार-काट । हराम= पिशाच । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका गश सो उठे जब राम पास अनुज गिरा देख । अनेक सर बिधे रुंधे से प्राण हैं बिसेख ॥ ब्रह्मा के बचन को पाला । सुषेण संजीवनी माला ।। सुपर्ण आए साँप सीस को ढाला । सखा कहके भेंट बैठाला ।। निवृन उठे सभी सेन सम्हाला ॥४५॥ धीरज दिया टंकार कर चिक्कार कपि करे। सुन भूपती भुवनपति भूतों के पति डरे ॥ रावण को संभ्रम ने घेरा । उठे सब कहता है चेरा॥ राम आय लंका द्वार पर डेरा । लंकेशजाना मौत है मेरा ॥ ललकार धूम्राक्ष लड़ने को प्रेरा ॥४६॥ धूम्राक्ष को निकलते होता है अपसगुन् । मुकर जाना मरणा है सनमुख देखे हनुमन् ॥ बानों की बरसात बरसाई । बंदर मारे फौज भगाई ॥ यह देख हनुमान शिला उठाई । निशिचर ने गदा चलाई। बचाय मारी शिला मौत ही पाई ॥४७॥ धूम्राक्ष मरा सुनकर रावण को चढ़ा काल । बज्रदंष्ट्र भेजा रघुबर को मार डाल ॥ फौजें अपनी संग ले चढ़ता । सगुन् भोड़े देख को डरता ॥ दखिन दरवाजे अंगदो लड़ता । अगिन औकाल सा बढ़ता ॥ देख अंगद भी ललकार को भिड़ता ॥४८॥ एक पेड़ कपि ने फेंका निशिचर ने दीना तोड़। नग-शृंग चलाए रथ पर तिल तिल सा दीना फोड़। कूदा निशिचर लपटाना । कुस्ती मुकी हारा जाना ॥ उठाय वेगा ढाल लड़ना ठाना । अंगदखाईचोट घुमड़ाना ॥ __ सँभाल मारी तेग सीस मिन्नाना ॥४॥ ४५-सुपर्ण =गरुड़। निवृन = (निव्रण) व्रण या घाव से रहित । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा प्रामासरामायण ४४७ बजदंष्ट्र मरा तब अकंपन आया। फौज सज चला जरा असगुन सो डरपाया । हरीगण की फौज भगाई। पटे औ तरवार चलाई ॥ प्रास तोमर की मार कराई । कुमुद और मैंद भगाई ॥ ललकार निशाचर फौज परताई ॥५०॥ हनुमान् पैठे दल में राखस को घेर लिए । लोहू-नदी बही मही मुरदे बिछाय दिए । दरखत निशाचर ने छेदा । शिखर सो निशिचर को खेदा*। छितराय दिया हाड़ चाम औ मेदा । अकंपन हनुमान रगेदा ॥ दरखत सों मार सरीर सब भेदा ॥५१।। हनूमान बल बखान को सभी स्तुती करें। रावण सुना अकम्पन हनूमान सों मरें। डरे टुक प्रहस्त बोलाया । बखाना बहोत बढ़ाया ।। सरदार सेनापत तैयार कराया। बिभीषन ने नाव बताया। रथ चढ़ निशिचर बेशुमार ले आया ॥५२॥ नरांतक औ कुम्भहनू महानाद समुन्नत । द्विविंद तार दुर्मुख जांबुवान सों पाई गत ॥ राखस को बंदर बिदारे । कैएक बंदर निशिचर सों हारे ।। रुधिर के दर्याव कर डारे । प्रहस्त सेनापति नील ललकारे ॥५३।। नग-शृंग ले पिला मिला सेनापती प्रहस्त । बानों से काट पर्वत बंदर को किया सुस्त ॥ नील को होश जोश जब जागा । लशकर निशाचर का भागा ॥ प्रहस्त कूदा टूटे रथ को त्यागा। मूशल लेकर नील सों लागा ॥ घुमाय बल सो छाती नील की दागा ॥५४॥ ७ फेदा। १-मही= पृथ्वी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका चोटें सँभाल नील पिला शिला उठाय मस्त । जबर्दस्त प्रहस्त का मस्तक छितराय गए अस्त । सेनापत रावन का मारा । जस लै नील सेना संभारा॥ निशिचरने जाय रावन पोकारा। डरपाय हिम्मत भी हारा ॥ आप आया सब सहाय को टारा ॥५५॥ रथ पर देखो लंकेश को सब सज खड़े सहाय । सबके नाम राम पूछा बिभीषन दिया बताय ॥ इन्हीं ने त्रैलोक्य हराया । रावन ने सब को रोवाया । परधान मरासुन प्रापचढ़ आया। जिनने प्रभु की नार चोराया। देव दानो का मक्कान छोड़ाया ॥५६।। रघुबर कहें मारो मुकर न जावता फिरे । सब देव सजन देखें बाणों सों सिर गिरे ॥ अकेला रावन पिला है। सुग्रीव सजीव गिरा है। हनुमान मुष्टीसों कष्टी हिला है । नील की फुर्ती देख खिला है। - लछमन बली को बर्थी कीला है ॥५७।। लछमन उठाए ना उठे हनुमान ने लखा। रावन गिराय ल्याए लछमन को निज सखा । देखा रघुनाथ रिसाने । सनमुख सिया-चोर देखाने । रामबान लगे नंगा होय पराने । भागा रावन देव हरखाने । - लछमन बाँदरों के जखम झुराने ॥५८।। यों सहज बान चीखे तीखे लगे कठोर । कहा कुंभकरन जागे लागेगा मेरा जोर ॥ मुश्किल सो भाई जगाया। उठा जो पर्वत देखाया । आय रावन सों सनमान को पाया।महोदर को डाँट दबकाया॥ सिरपाव पाय लड़ने को धाया ॥५॥ %3D Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४४६ रावन के पास जाते कपि को नजर पड़ा। परबत सा देख कों डरे अंगद हुआ खड़ा॥ बिभीषन को राम देखावे । भाई पराक्रम बतावे ॥ जंतर करो बंदर भाग न जावे । नील को यों हुकुम् फरमावे ॥ ललकारो मारो यारो राम बचावे ॥६॥ निशिचर कों संग ले चढ़ा बढ़ा बलाय सा। उलका गिरी अकाश से त्रिशूल में गिद्ध धंसा ॥ आया महाकाल का जैसा । बंदर जाना मौत है तैसा ॥ घमासान करे जैसा जल मों भैंसा । अंगद भी ललकारे ऐसा ॥ उड़ाय देता आँधी पौन है तैसा ॥६॥ ऋषभ शरभ मैंद धूम नील रंभ तार । कुमुद द्विविंद पनस हनु इंद्रसुतकुमार ॥ ललकार सुन सामने पड़ते । मरने सों मुतलक न डरते॥ बरसात बिछों निशाचर शिर करते । हजारों रगेद सों मरते ॥ तिस निशचर मर जान सों गिरते* ॥२॥ द्विविंद ने पहाड़ कुंभकरन पर हना। टुक बच गया निशाचर सेना का चूर बना ।। सबों ने बिछौं सो मारे । राखस त्राहि त्राहि पोकारे । हनूमान अंगद ने मार बिदारे । रुधिर के दर्याव कर डारे ॥ कैएक निशिचर को हनूमान ने टारे ॥६॥ निशिचर ने खेंच मारा हनूमान कों त्रिशूल । ललकार पहाड़ सा फाड़ घूमे साला जरा एक हूल ॥ *ता बिचरते। + निशिचर को हनुमान चोटारे। चोट गिर की सिर के चीथरे फारे॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० नागरीप्रचारिणी पत्रिका ऋषभ कपि पाँच मिल पाए । पाँचों को बेदम सोलाए ॥ अंगद कैएक पहाड़ बरसाए । निशिचर तिल तिल उड़ाए । त्रिशूल मारा अंगद छोड़ बचाए ॥६४॥ अंगद उछल तमाचा लगतेहि घुम गिरा । उठ हँस को एक डुच सों कपि को गिराय फिरा ॥ बंदर का बिछौना कीना । सुग्रीव को साम्हने लीना ॥ छाती में भिन्नाय त्रिशूल को दीना। हनूमान ने अधर में छीना॥ दो टूक कीया लागन न दीना ॥६५॥ चिढ़ को पहाड़ फेंका सुग्रीव को लागा। उठाय ले चला लंका मो टुक धीर सों बीर जागा ॥ मनसूबा कर कूख को फाड़ा । कानों नाकों नोच उखाड़ा। डरपाय रघुबर सरन में ठाड़ा । नकटे ने मुग्दल को झाड़ा । भगाए बंदर धर लीना धाड़ा ॥६६।। साथ ले बिछाय आवता लछमन अड़े लड़े। सर सो रिझाय राम को देखाय दिए खड़े॥ अचल सा अचल पर धाया । निशिचर बंदर दोनों खाया ॥ हाथ आया मुख में डाल चबाया । रघुबर ने अस्तर चलाया ॥ घुमता आया लोहू माँस नहाया ॥६॥ निशिचर ने कहा राम मैं बिराध नहीं कबंध । बाली नहीं न मारिच मैं कुंभकरन धुंध ॥ मुग्दल से मैं देव भगाए । कहते दोनों हाथ उड़ाए ॥ धाय आए दोनों पाव कटाए । सच्चा राम बान चलाए । सिर काट लंका द्वार बाट छेकाए ॥६॥ बाजे बजाय देव पुहुप पावस बरखें। गंधर्व नाग यक्ष मुनी देखें हरखें ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ प्रेमरंग तथा आभासरामायण निशिचर जो बचे सो भागे । रावन तन में आग सी लागे । दाँत काटे रोवे दुख मों पागे : जाने राम रूप में जागे ॥ हदसाय आसा जीवन की त्यागे ॥६॥ रावन को सुना रोते त्रिसिरा उठा बमक । चार भाई दो चाचा लड़ने की दीनि धमक ॥ हमने तीनों लोक को जीता । मारेंगे बंदर के मीता ॥ भाग जावें सो जावेंगे जीता । युद्धोन्मत्त मत्त सा जीता ॥ महापार्श्व महोदर रन सजीता ॥७॥ देवांतक औ नरांतक अतिकाय त्रिशिर चार । रावन सों खुश खिलत ले लड़ने चले तैयार ॥ सेना सब सर्दार संग दीने । बंदर भी पहाड़ को लीने ॥ हथियार मोर्चे मों मुक्काबले कीने । निशाचर के बंदर ने सीने ॥ फाड़ दाँतों सों हथियार को छीने ॥७॥ घोड़े चढ़ा नरांतक बल्लम सों मारता । कोटों कपी कटे हरीश अंगद पोकारता ॥ भेजा मार स्वार घोड़े का । दौड़ा घेरा ज्वान जोड़े का ॥ प्रास छाती लीनाहाथ कोडेका। ताजुब तिल तिल तोड़े का ॥ तल सों मारा घोड़ा आँख फोड़े का ॥७२॥ नरांतक ने बालिपुत्र के मस्तक चलाई मुष्ट । अंगद की लगी सीने में घुमड़ाय को गिरा दुष्ट ॥ आँखें फाड़ मौत ही पाई । अंगद की जै देव सुनाई। हनुमान सुग्रीव सो बेसवास पाई । राघोजी श्याबाश सुनाई। बमके बंदर निशाचर फौज भगाई ॥७३॥ नरांतक को मरा सुन को देवांतक दौड़ा। अंगद को दे हटाय तीनों ने हनूमान सो जंग जोड़ा। ४२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका घूसे से सिर फाड़ डाला है । महोदर को नील ढाला है । रन में त्रिशिर पर हनुमान बाला है।तीनों सीर को काट डाला है।। ऋषभ महापार्श्व को मार डाला है ॥४॥ अतिकाय अति प्रचंड है पराक्रमी महा । बिभीषन को राम पूछा रावन कुमार कहा ॥ बंदर कों बिस्तर सा कीना । लछमन ने सन्मुख सों लीना ॥ कैएक अस्त्र से हराय भी दीना । पवन के कहे से चीन्हा ।। ब्रह्मास्त्र मारा सिर कंकरी बीना ॥७॥ सेना बची सो जाय को रावन को डराया। जाना प्रभू हैं राम कों हिम्मत से हराया ॥ चौकी चारों ओर सजाई । इंद्रजीत ने आज्ञा पाई ॥ ब्रह्मास्त्र विद्या अंतरध्यान देखाई । बंदर गर्दी कर देषलाई । साठ करोर निशाचर फौज मँगाई* ॥७६॥ सरदार सब सोलाए कोई नहीं बचे। हनुमान बली बिभीषन निरबंच हैं बानर बचे ।। डंका दै लंका को परता । रावन सुन संतोख को धरता ।। सुत गोद बैठाय चुंबन कों करता। बिभीषन हनुमान बिचरता ।। पहेचान जांबवान के गोड़ पर गिरता ॥७७|| सुनो पवन के कुमार जांबवान ने कहा। औषध ले आय जिवाओ प्रभु ब्रह्मास्त्र को सहा ॥ सुनते ही बदन बढ़ाए । औखद के पहाड़ को ल्याए । आते ही लश्कर में बंदर जिलाए । लछमन बालाराम उठाए। धर आय गिर कों किलकार कराए ॥७॥ हुकुम हुआ रघुनाथ का लंका जलाय दीया । राखस त्रियाँ सर्वस जला दरियाव लाल कीया ॥ ** सड़सठ करोड़ निज फौज काम प्राई । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४५३ महलों को बंदर जलावें । लछमन राघोनाथ सोहावें ॥ टंकार करके निशाचर डरपावें । यूपाक्ष प्रजंघ दो आवें ॥ संग शोणितात कंपन भी धावें ॥७॥ अंगद द्विविद ओ मैंद तीनों यह चार सों लड़े। मारे हैं चारों निशाचर जो द्वंद जुध जुड़े ॥ निकुंभ का कुंभ जो भाई। अंगद की आँख गिराई॥ मैंद द्विविंद की जोड़ी सों लड़ाई। जांबवान की फौज भगाई। जाय सुग्रीव सों जंग मचाई ॥८॥ सुग्रीव ने बल बखाने सों मद कुंभ को बढ़ा। कुस्ती में लड़ थका तब हारि मूकियों गढ़ा ॥ उठाय को दर्याव में डाला। जल में से उछल के बाला ॥ मुष्ट मारीमानों मौत सँभाला। घड़ी दो में हरि होश सँभाला॥ बज्र मारी मुष्टि शैल सा ढाला ॥१॥ निकुंभ सुना कुंभ को मरे सों जोश भरा। कर परिघ ले पिला मिला हनुमान पहेचान ठहरा ॥ बंदर भागे राम सरन में । परिघ तो हनुमान के तन में। तिल तिल हुआ वज्रांगबदन में । मूर्छा सी बचाय कोरन में ॥ निकुंभ उठा मूकी खाय को छिन में ॥२॥ निकुंभ ने हरी को हर गगन ले उड़ा। मस्तक में मुष्टि खाय को मुख बाय को पड़ा। पकड़ को जमीन में पटका । गर्दन घुमाय को झटका ॥ उखाड़ फेंका सिर कियामरघट का।टारातीनों लोक का खटका ॥ निशाचर बचा सो भय पाय को सटका ॥८॥ रावन ने दाँत पीस को मकराक्ष से कही। तुम जाओ फते सुनाओ सुनतेई कमान कर गही॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका मोछों पर ताव को फेरा । कहता है बल देखो मेरा ॥ जाहि डालों रघूबर पर घेरा । बंदरों कों भगावता हेरा ॥ श्रीराम कहैं खर सा हाल है तेरा ॥५४ || ४५४ पर कुढ़ा । खर मारन की नोक सुन को राम लड़भिड़ को रथ को तोड़ा तब शूल ले बढ़ा ॥ मारा सो रघुनाथ ने तोड़ा । राक्षस मूकी बाँध को दौड़ा ॥ अगन्यास्त्र से राम ने सीना फोड़ा। खर के खर ने प्रान को छोड़ा | सेना सब लंका भागी पीठ न मोड़ा । ८५॥ मकराक्ष को सुन रावन ने दाँत बजाय । मेघनाद भेजा जाता है सिर नवाय ॥ अपना इष्ट होम बर दीना । छिप कपि में कतलाम सा कीना ॥ राम लछमन को भी पेंच में लीना । रावन का कुमार है चीन्हा ॥ ब्रह्मास्त्र सों भागा दर्शन न दीना ॥ ८६ ॥ पछिम तरफ गया सिया माया बनाय को । हनुमान हग ढराए सिया-बध देखाय क ॥ बंदर ज्यों बादल उड़ाए । लाखों लोथ कर दिखलाए || हनुमान पिलचे सब कपी पर धाए । नगशृंग सों मार हटाए ॥ पछताय फिरते रोते राम सेवाए ॥८७॥ मरा सिया मरन हनुमान कहा राम सुन बदन फिरे । कदली कटे पटे से ऐसे घूम घूम घरराय गिरे ॥ लछमन ने संबोध सुनाया । बिभीषन दौड़ा आया ॥ उठाय प्रभु को हथियार सजाया । भतीजे का भेद बताया ॥ संग लाय लंका पर लछमन चढ़ाया ॥८८॥ बिभीषन का बचन सुन प्रभु सौमित्रि सों कहा । हनूमान् अंगद मिल दुष्ट मारो मैंने कष्ट बहुत सहा ॥ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायणे ४५५ लछमन सुन कमान कों लीना । बिभीषन की बात को चीन्हा ॥ हनुमान अंगद की फौज संग दीना । रघुबर की परदछिना कीना ॥ आय निकुंभिला सीम को छीना ||८|| बिभीषन कहे लछमन सों यहि गोल जो गिरे । बिन होम हुए चिढ़ कों बिन रथ मिले फिरे ॥ मारा तभी जायगा दुशमन । सुन बान बरसाए लछमन ॥ बंदर लड़ावें ललकार बिभीषन । निशिचर देखें कीन्हे कदन ॥ वहीं दौड़ा चढ़ पहले स्पंदन ||२०|| I हनूमान पर चलाया एक तीर बेकदर | ललकार को बिभीषन लछमन मोहोब्बिलू कर ॥ हनुमान पर स्वार कराए। इंद्रजीत के सामने आए ॥ बढ़ा बरगत बिन पर छोड़ाए । लछमनजी को भेद बताए ॥ अंतर्ध्यान होते इस को हाथ लगाए ॥ ६१॥ चाचा को चिढ़ भतीजा कहता कटुक बचन । चाचा कहैं बके जा मरने को तेरा चिह्न ॥ लछमन सों बकवाद करता है । हथियारों की मार करता है ॥ हनुमान पर चढ़ लछमन भिड़ते हैं । रन में बराबर लड़ता है लछमन कहें नीच आज मरता है । ६२ । कवच कटे दुहुँन के सर-जाल भरे अकास । एक एक के बान काटे गटपट भए सब पास ॥ बंदरों ने घोड़ों को फारा । रथवान का सिर उतारा ॥ लछमन ने निशाचर के गाल बिदारा । कै एक बिभीषन ने मारा | छिप जाय रथ ल्याय इंद्रजीत ललकारा ॥ ८३॥ 11 अस्तर लछमन निशाचर निवारता । अन मार कों बंदर बिदारता ॥ ६१ ~~मोहोब्बिल् = ( श्र० मुहिब ) प्रीति से । चलावे अपाना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका लछमन कमानसोंबान है झरता।बानों पर बानों को सरता ॥ इंद्र का दीना बान कर में धरता । रघुबरका कसम सत करता॥ चटाक मारा सिर भुट्टाक सा गिरता ॥४॥ इंद्रजीत मरा इंद्र के अस्त्रों सों। सब देव ऋषी देख हरष पुहुप बरखे स्तोत्र सों॥ लछमन की जै कहे सिधारे । रघुबर के पर पाय निहारे ॥ तब गोद बैठाय बखान पुचकारे । सुषेण ने घाव सँभारे ॥ तय्यार ठाढ़े बंदर मोर्चे मारे ॥६॥ मेघनाद मरा सुन रावन ने रोय दिया। दाँतों सों ओठ काटे सिया मारन को तेग लिया। दौड़ा देख जानकी डरती । रघुबर की फिकर को करती ।। समुझाय सुपार्श्व ने बुद्धि फेर दी । सभा बैठे छाती जरती ॥ बिल्कुल भेजी फौज हल्ले करती ॥६६॥ रघुबर को प्राय घेरे मकड़ी में लिए छाय । गंधर्ब अस्त्र मारा आपुस मों दिना कटाय ॥ टिड्डि तोड़ राम लखाने । अंत्री खुमे से देव हरखाने । निशिचर कों निशिचर सभी राम देखाने। स्वजन से अस्ख बखाने । इस बल को हम औ शंकर माने ॥६॥ घर घर में पड़ा रोना रावन श्रवण . सुना। महाकाल सा क्रोध कर कहा लड़ना बना अपना । मोछों पर ताव दे बोला । डर को तीनों लोक भी डोला ॥ बड़ाई अपनी कहता बावल भोला । जिसको दे उसी का मौला ॥ राम मारों कह कमान को तोला ॥८॥ प्रथम पाँव धरते सनमुख से हुई छींक । अपसगुन मरने को कहने लगे नजदीक ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ प्रेमरंग तथा आभासरामायण रथ परभारी जोम चढ़ दौड़ा। महापार्श्व विरूपाक्ष का जोड़ा॥ भाई महोदर जंग में छोड़ा । बंदर कोटी कोट को तोड़ा। सुग्रीव लड़ को निशिचर को मोड़ा || बिरूपाक्ष गज चढ़ा बढ़ा सुग्रीव से लड़ा। एक पेड़ से गज गिराया बिरूपाक्ष उछल खड़ा॥ तेगा ढाल लै को लड़ता । सुग्रीव शिला-वृक्ष से भिड़ता। चोट तेगाखाय निकल को उड़ता। उछल लात छाती में जड़ता ॥ प्राण छुटे आँखें फाड़ को गिरता ॥१०॥ हुकुम सो महोदर ने बंदरों को भगाया। सुग्रीव ने ललकार शिला सिर में लगाया ॥ निशिचर तिल तिल उड़ाई । रथ तोड़ जमीन देखाई ॥ हथियार तोड़े मूकी लात चलाई । तेगा ओ ढाल की लड़ाई ॥ सुग्रीव काटा सीस बेश वाह पाई ॥१०॥ मारा सुना महोदर महापार्श्व प्राय धाय । कपि का कतल्ल किया लिया अंगद सों राढ़ जाय ॥ बानों का बरसात बरसाया । रथ तोड़ा जमीन देखाया ।। लोहंगमारा अंगद कूद बचाया। मूकों सोजमलोक पहुंचाया। ___ महापार्श्व मरने सो रावन को रोवाया ॥१०२॥ कट गए सभी सहाय रहा अकेला आप। रथ पर तामस के अस्त्र सो बंदरों को दे संताप ॥ बानों का बादल सा छाया । राघोजी के रूप लोभाया । अव्वल ललकार लछमन अटकाया। लड़ने छोड़े राम पर धाया ॥ असुराख्न पर राम अग्न्यान चलाया ॥१०॥ रथ तोड़ दिया लछमन बिभीषन मिल कों। बी चलाई भाई बचा लछमन बेधे पिल को। १०१-बेश = बहुत अच्छी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका गिरे प्राणहीन से होकर । रघुबर ने बानों से मोह कर॥ हनुमान भेजा उत्तर राम ने रोकर । जड़ सो गिरिको ल्याया नौकर।। संजीवनी दीनी उठे मुख धोकर ॥१०४॥ रथ बैठ आया रावन अस्तर चलोवता। रघुनाथ दिहा तोड़ इंद्र रथ भेजावता ॥ बानों सों रावन खिजलाया। राहु रामचंद दबाया । तीनोंभुवन में उत्पात देखाया । बझै सो त्रिशूल तोड़ाया । राम बाण सो अचेत भगाया ॥१०॥ रावन को चेत होते रथवान से कहा। तैंने क्यों मुझे भगाया घायल सुने सहा ॥ दीना है इनाम का गहना । ले चल राम साम्हने रहना ।। दुशमन मारेगा यामार कोरहना । अगस्त के उपदेश को चहना ॥ श्री सूर्यनारायण को ब्रह्म कर कहना ॥१०६॥ रथवान ने रथ चलाय को जब राम पर पिला । अंत्रिख सों देव देखे थलहल से रथ चला ॥ सगुन मरने के जाने । रथ फेरते धूल नहाने । रावन रथ के निशान फहराने । रघुबर की सहाय बेखाने । हुलास दिल में सभी देव बखाने ॥१०७॥ लड़ने लगे रथ दोनों निशिचर बंदर खड़े। मरना है कहे रावन मारन को राम लड़े। दोनों बीर बान चलावें । रावन ध्वजा काट गिरावें॥ राम रावण का निशान उठावें । बानों का पिंजर सा छावें ॥ दौड़ाय रथ को रथ के साथ सटावें ॥१०॥ गटपट भए रथ दोनों घोड़े लिपट लड़े। गदा मुशल पटा त्रिशूल राम पर झड़े। १०७-अंत्रिख = (अंतरिक्ष) आकाश । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा श्राभासरामायण ४५६ वैसे राम बान बरसावें । चौदह भुवन त्रास सा पावें ॥ देव दानव मुनि नाग तपावें । गो ब्राह्मन कल्यान मनावें ॥ रावन सों राम का जै सुनावें ॥ १० ॥ | गिराया रघुबर ने बान सों । दशग्रीव जान रावन का शिर सीं ॥ ऐसे गिराए सौ शिर धरा । मरा ॥ क्यों कर राम बान जीवाया। दिन रात का युद्ध कराया ॥ जमीन आसमान परबत में धाया । मातली ने ब्रह्मास्त्र बताया ॥ अगस्त दीना बाण दस्त चढ़ाया ॥ ११०॥ डर गए सुर सरग सर प्रभू ने कर ब्रह्मास्र प्रयोग कर सृजा रावन छाती फोड़ रथ सों गेरा। सुर सुरसरि में स्नान कर फेरा ॥ तीर तूणीर पैठा पाय पर चेरा । सुर मुनि ने 'रघुनाथ को घेरा ॥ नक्कारे बजवाय सुमन बखेरा ॥ १११ ॥ चौगर्द देव दल बादल से बानर बमके 1 जै जै सियाबर की कहैं बिभीषन हुए गम के ॥ रावन की किम्मत बखानी । भाई मेरी एक न मानी ॥ राम-बानों सा सोया गुमानी । रावन की कर्नी कर्नी ठानी ॥ राम कहें मेरा अब दोस्त है जानी ॥ ११२ ॥ मंदोदरी रावन मरा सुन कों सखी संग आय । जार जार रोवे रनवास पती के पास खड़ी सब धाय ॥ मंदोदरी मूँड़ उठावे । रघुबर को बिलाप सुनावे ॥ राम हनुमान संबोध समझावे । लछमन जी कर्नी करवावे || कर काज बिभीषन सरन में आवे ॥ ११३॥ लंकेश हुआ बिभीषन हनुमन कही सिय आस । रघुबर की रजा पाय को बिभीषन ले आए पास ॥ * भए । ४३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका प्रभु सीता त्याग कर दीनी। कसम कर को आग ने लीनी॥ बिधिबेदबानी बोले रामस्तुति कीनी । भाई मायाराम की चीन्ही ॥ दशरथनंदन से सब व्यक्त है हीनी ॥११४॥ अगिन तें सिया लीनी* लीनी गले लगाय । शंकर बखान कर गए दशरथ कों मिले धाय ॥ इंद्र ने आसीस गुजरानी । जीवे बाँदर फल फूल ओ पानी ।। नित नित्त पावें ऐसी बोल दी बानी । उठेसबजोरैन बिहानी ।। सिय राम लछमन ने अचरज सी मानी ॥११॥ सब देव भए बिदा गुरु बिदाई। बिभीषन दीनी । पुष्पक विमान चढ़ चले सँग फौज अनगिनी ॥ निशाचर की रनभूमि देखाई । समुंदर किष्किंध चढ़ाई। ऋष्यमूक पंपा जनस्थान लखाई । कुटी चित्रकूट की आई ॥ मुकाम प्रयाग मो पंचमी पाई ॥११॥ हनुमान ने जाय संदेशे जब भरथ को कहे। आनंद भरे डगर नगर भेंट कर गहे। चले प्रभु को मिलन को । अवध में उत्साह है जन को ॥ जननी चलींसभी संगले धन को। आए राम ग्राम मध्य भवन को॥ राज लीना भाया भरत के मन को ॥११७॥ रथ पर चले नगर को त्रिभुवन में जैजैकार । इक्ष्वाकुकुल में आय किया अभिषेक सरंजाम तैयार ॥ समुंदर-जल बंदर सबल्याए।सुर मुनिजन मिल राम नहल्याए।। सिंघासन बैठे गुरु ने कीट पहनाए । सब घर गए हनुमान बर पाए । दस साल हजार सुख देखलाए ॥११८॥ अगिन ने सिया दीनी। दावत । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा प्राभासरामायण श्रीराम राज बैठे ऐंठे न सुने कोय । धन्य धान्य भरी धरनी करनी स्वधर्म होय ॥ अधर्म का लेश न जाना । जन ने जग में राम बखाना । देव मुनिगन सबने इष्ट सा माना। धर्मादिक पदार्थ जिन पाना ॥ 'प्रेमरंग' गाए अनायास तर जाना ॥११॥ इति श्री आभासरामायणे युद्धकांड: समाप्तः । उत्तरकांड (रागिनी परज का जंगला, ताल धीमा तिताला, छंद रेखता*) मिला जब राज रघुबर को । मुनी सभी आए मिल कर को॥ मरे कहते हैं निशिचर को । लछमन धन धन कहैं फिर कों ॥१॥ प्रभु पूछे हैं धन रख का । कहो बरदान सब बल का ॥ कहें हैं अगस्त पुलस्त कुल का । जनम बीते लंकेश्वर का ॥२॥ अज के हेतीसों विद्युतकेश । उसे सुत साँब दिया सोसुकेश । उसे सुत तीन हुए सो लंकेश । चढ़ाए रन मों जिन हर कों ॥३॥ *क प्रति में उत्तरकांड के प्रारंभ में भी निम्नलिखित पाँच दोहे अधिक हैं [ व्याहृति ] जिहि बेद कही वही सरूप धर राम । निमिख गोमती-तीर जग कीन्ह मुनि विश्राम ॥ भूदेव बानर लंकपति जनक कैकयाधीश । मुनि मिल सेवत चरन युग भ्रात मित्र अवधीश ॥ भुवपति दीनदयाल प्रभु रावन मारन काज । रघुपति सियपति श्रीपति कहें लव-कुश सिरताज ॥ बनके शिष्य वल्मीकि के आदि-काव्य श्रुति नाम । चौबिस सहस की संहिता सात कांड सरनाम ॥ स्वर्ग मृत्यु पाताल में राम नाम विश्राम । ऐसे हुए न होपंगे सजन मन अभिराम ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका सुमाली माल्यवान माली । सालंकटंकट के कुल पाली ॥ छिनाई लंक बनमाली । बचे दो भाग लड़ मर कों ॥ ४ ॥ सुमाली की कुमारी से । रावन घटकर्ण सुपनखी से ॥ जन बिभीषन अधिकारी से । बढ़े बर पाय तप कर क ॥ ५ ॥ लंका धनपाल सों छीनी । बिहाय मंदोदरी लीनी ॥ जना सुत नाद धन कीनी । सोप्रा घटकर्ण किए घर कों ॥ ६ ॥ धनेश का दूत खिलाय डाला । चढ़ाधनपाल गिराय डाला ॥ उठाय कैलास हिला डाला । शंकर सों रोय लिया बरकों ॥ ७ ॥ दहा तन वेदवती सीता । मस्त लाचार सों जीता ॥ अनन्य के शाप भयभीता । जिताया अजब जमपुर कों ॥ ८ ॥ नागों का पुर किया बस में। दोनों दानों से कर कसमें ॥ बरुण बेटे बचे रस में । बली बामन कहे हर क ॥ ८ ॥ उछल पाताल में रवि सों । कहाया हार हजूरी सीं ॥ दिवाने देख गरूरी सों लड़ा मांधात किया दोस्ती ॥१०॥ पवन की आठ सीढ़ी चढ़ । लड़ा रावन सभों से बढ़ ॥ निशाकर ज्यों* अमर हर पढ़ । कपिल से भूल गई मस्ती ॥११॥ कइक तिरिया छिनाय ल्याया । रोई त्रिया श्राप फिर खाया ॥ सुपनखा स्थान खर पाया । कुंभीनसी काज चला गस्ती ॥ १२ ॥ हजारों अक्षौहिणी लेकर । मधू को मिल लिया सँग धर ॥ पकड़ रंभा सों जबरी कर । नलकूबर श्राप बजी स्वस्ती || १३ | सरग पहुँचे अमर सुन कों । बचन वामन लड़न सुन कों ॥ सुमाली मात बस सुन को । शचीपति घेर लिया हस्ती || १४ || रावन को घेर लिया सुनकर । लड़ा घननाद अँधेरा कर ॥ पुलोमापूत भगाया डर । छोड़ाय रावन किया कुस्ती ॥१५॥ ४६२ * श्रोत । १५ - पुलेामापूत - इंद्र | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायण निशाचर का पूत लड़ा पिल कों। पकड़ ल्याय पाकशासन कों॥ छोड़ाया देव दिया पन कों । बढ़ा इंद्रजित पिता पुस्ती ॥१६॥ कहें रघुनाथ अगस्त मुनि सों। कोई जबरदस्त न रावन सों॥ छोड़ाया बाँध अर्जुन स । पुलस्त कर दोस्त हुई सुस्ती ॥१७॥ सुना जब्बर बड़ा बाली । धरन रावन चला खाली ॥ बगल धर बाँध पचाय डाली । सिरों पर सिर जबरदस्ती ॥१८॥ हनुमान बल को सराहे राम । कहा मुनिवर नंदिन काम ॥ पितासुग्रीव सेसुमाता नाम । कुमार मुनि काकथन कहते ॥१॥ दसानन मौत प्रभू पहेचान । सिया बुध रोहिनी सी मान ।। नारद सितदीप बली जन जान । खेलाया गेंद जीया बहते ॥२०॥ बली रावन का सुत सरजाम । प्रभु मारन हुए नर राम ।। कथा कहे मुनि गए निज धाम । जनक कैकेय बिदा गहते ॥२१॥ यावत् बाँदर बिदा लेते । सरन हनुमान रहन देते ॥ बिभीखन और प्रतर्दन ते । त्रिशत् राजा बिरह दहते ॥२२॥ लिया पुष्पक बगीचे जाय । सिया बन कों लिया बर पाय ॥ निचन केबचन लछमन संगजाय।छोड़ावाल्मीक बनु रहते ॥२३॥ सुमंत्र मंत्र कहा होनहार । मिले प्रभु सों रोए चौधार ॥ लछमन से सुनशमन उर धार । सभा दोखन नगर लहते ॥२४॥ निमी नृग सी तमननकरी । गिरे गुरु देह देह धरी ॥ ययाती की क्षमा सुथरी । सभा गुन सुन करन कहते ॥२५॥ सुना द्विज का किया इनसाफ। गिद्ध को जान कीनी माफ ॥ मुनि मधुबन के माँगे साफ । लवन मारन अरिहन चहते ॥२६॥ शत्रुघ्न को दिया सर राम । प्राए वाल्मीक मुनि के धाम ॥ सुना सौदास सिया सुत नाम । लड़े मधुबन लवन सहते ॥२७॥ १६-पाकशासन = इंद्र । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका कटा सिर शूल बिना शर सों । बसा बन राम विरह बर सों ॥ । जिलाया बाल धर डर सों । कटा सिर सह शंभु का तुर्त ॥ २८ ॥ अगस्त के दस्त लिया गहना । सुना डंडक का बन कहना ॥ जिकर हयमेध अवध रहना । लछन वृत्रारि की कहि फर्त ॥ २॥ प्रभू इल की कथा कहते । पुरुष औरत जो नर रहते ॥ पूरुख पूत प्रगट लहते । ऐसी साँब जाग की है जुर्त ||३०|| बोलाए बंधु सब जग में। आए वाल्मीक जग मग में ॥ कहा लव-कुश ने जग रँग में । सिया से गंद किया सुध डर्त ॥ ३१ ॥ हुआ जग राजधानी प्राय । मिली जननी पती पद जाय ॥ भरत गंधर्व के तल्लपुर पाय । अंगदचंद्र के तपाय बिर्त ॥३२॥ सुना प्रभु काल का भाखन । सिधारे काल कारन लछमन ॥ हजार ग्यारह हुए सम सुन । मुलक लव - कुश लिए कर सुत ॥३३॥ शत्रुघ्न कों बोलाय लीने । नगर तज राम गवन कीने ॥ प्रभू परब्रह्म दरस दीने । गए गोप्तार मोहन मूर्त ||३४|| चले सब देव मिल सांतान । भए दिव्य देह चढ़े हैं विमान || अवध में लेख न देखा प्रान । कहा वाल्मीक पढ़ें अनिवर्त ||३५|| अघमोचन कोट जनम का जान । इती आभास अंतरध्यान ॥ कहा 'प्रेमरंग' सियापति ग्यान । गायन से राम मिलेंगे शर्त ॥ ३६ ॥ इति श्री प्रभासरामायणे उत्तरकांडः समाप्तः । फल-स्तुति रामायण आभास यह सात कांड वाल्मीक | अर्थ ज्ञानी अधिक रस लखत राम जस लीक ॥ १ ॥ मनन ज्ञान रस ज्ञान जिहिँ राग ज्ञान सुध होय । ताहि रिझावन गान यह सुख सों समझत साय ॥ २ ॥ सीखत सुनत जो राम-जस दहत पाप लखजोनि । अनुरागात्मक एक दृढ़ भक्ति उदय विन्हि होनि ॥ ३ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४६५ तारक मंत्र प्रतच्छ प्रभु दसरथनंदन राम । सोइ शिव सब को कहत ही शिव होय धावत धाम ॥४॥ छंद रचन जानत नहीं नहिं जानत सुध राग । छमा कीजे मोहि चतुर नर लखि रघुबर अनुराग ॥५॥ पास राम की कर अचल पास खड़े हैं जान । मान त्याग कर भजत हो मन स्वरूप धरि ग्यान ॥६॥ कासीबासी बिप्र हो रहत राम तट धाम । पवनकुमार-प्रसाद सों गाय रिझावत राम ॥७॥ अज शिव शेष न कहि सकें महिमा सीताराम । इंद्रदेव सुर देवसुत नागर कबि अभिराम ॥८॥ संस्कृत प्राकृत दोउ कहे इंद्रप्रस्थ के बोल । वाल्मीकीय प्रसाद सों गाए राग निचोल ॥६॥ अठारह सो अट्ठावना विक्रम शक मलमास । ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी रविकुलनंदन पास ॥१०॥ जहाँ रामायन कहत कोइ सुनत कपी कर जोर । पुलकित अंग नयन स्रवत प्रानि रिपु असु घोर ॥११॥ प्रभु संगत ज्यों तरसत ज्यों राख्यो कपि तन चाम । 'प्रेमरंग' हनुमंत धन सुनत अहर्निस राम ॥ १२ ॥ इति श्री आभासरामायणे फल-स्तुतिः समाप्ता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) खुमान और उनका हनुमत शिखनख [ लेखक - श्री अखौरी गंगाप्रसादसिंह, काशी] चरखारी के राजा विजय विक्रमजीत सिंह बहादुर स्वयं एक अच्छे कवि थे और कवियों का आदर-मान भी यथेष्ट करते थे । उनके दरबार के प्रसिद्ध कवियों में खुमान या मान, प्रतापशाह, भोज, सबसुख और प्रयागदास के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। खुमान या मान का आसन इन कवियों में सर्वोच्च था। डाक्टर ग्रियर्सन ने खुमान और 'मान' को दो कवि लिखा है पर वास्तव में ये दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं । खुमान का जन्म छतरपुर के निकट खरगाँव नामक ग्राम में हुआ था । शिवसिंहसरोजकार के मतानुसार उनका जन्म संवत् १८४० है । परंतु संवत् १८३६ के लिखे हुए उनके अमरप्रकाश नामक ग्रंथ के मिल जाने से यह सर्वथा अशुद्ध प्रमाणित हो चुका है । यदि संवत् १८३० माना जाय तो उनका जन्म संवत् १८०० के लगभग मानना बहुत अनुचित न होगा। मिश्रबंधु - विनोद में खुमान का कविता - काल १८७० माना गया है और साथ ही यह भी लिखा गया है कि "खाज १६०५ में अमरप्रकाश का रचना - काल संवत् १८३६ लिखा है ।" मालूम नहीं, इन विरोधी बातों को विनोद में खुमान का कविता - काल Dr. Grierson erroneously takes Khuman and Mana to be two different persons whereas in reality they were one and the same. Search reports for Hindi manuscripts. (1906-1908.) ४४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ नागरीप्रचारिणो पत्रिका क्योंकर स्थान दिया गया है । जब खुमान - लिखित एक ग्रंथ १८३६ का प्राप्त हो चुका है तो उनका कविता-काल १८३६ न मानकर १८७० क्यों माना जाय ? पुनः यदि उस ग्रंथ के रचयिता श्रथवा उसके रचना- काल के संबंध में संदेह था तो उसे स्पष्ट क्यों न किया गया ? अस्तु, जो कुछ भी हो जब तक इस संबंध में कोई विशेष प्रकाश नहीं डाला जाता अमरप्रकाश के रचना- काल से ६ वर्ष पूर्व अर्थात् १८३० के करीब खुमान का कविता - काल मानना ही हमें युक्तिसंगत जान पड़ता है और कविता - काल से ३० वर्ष पूर्व उनका जन्म-संवत् मानना उचित होगा। कहा जाता है कि खुमान जन्मांध थे, काव्य-कला की शिक्षा उन्हें किसी साधु द्वारा प्राप्त हुई थी । खुमान हनुमानजी के भक्त थे और उनकी प्रशंसा में उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं। यह किंवदंती सुनने में आई है कि खुमान अपना देव संबंधिनी कविताओं में संशोधन नहीं करते थे; एक बार जो कुछ मुख से निकल जाता था उसे आत्मप्रेरित वाक्य समझकर ज्यों का त्यों रहने देते थे । उनकी रचनाओं में जो थोड़ीबहुत साधारण त्रुटियाँ परिलक्षित होती हैं, जान पड़ता है वे उनकी इसी धारणा के परिणाम हैं। फिर भी खुमान की रचनाएँ उत्कृष्ट हुई हैं और उनमें काव्यगुण - विशेषत: अनुप्रास की अच्छी छटा देखने को मिलती है। अब तक की खोज में उनकी नीचे लिखी दस पुस्तकें प्राप्त हुई हैं (१) हनुमान पंचक - हनुमानजी की प्रार्थना । ( २ ) हनुमान पचीसी - हनुमानजी के विनय के २५ कवित्त । ( ३ ) हनुमत पचीसी "" "" ,, (४) हनुमत शिखनख । (५) लक्ष्मण शतक- - १२८ छंदों में लक्ष्मण और मेघनाद के युद्ध का वर्णन है । इस पुस्तक की रचना सं० १८५५ में हुई । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुमान और उनका हनुमत शिखनख (६) नृसिंह चरित्र-विष्णु के अवतार भगवान नृसिंह के चरित्रों का वर्णन। इस पुस्तक की रचना सं० १८३६ में हुई। (७) नृसिंह पचीसी-पचीस कवित्तों में भगवान नृसिंह की प्रशंसा। (८) नीति-निधान-चरखारी के राजा खुमानसिंह (१७६५१७८५ ई० ) के सबसे छोटे भाई दीवान पृथ्वीसिंह का हाल । (६) अष्टयाम-चरखारी के राजा विक्रमसिंह का दैनिक कार्य-कलाप । (१०) समर-सार-ब्रिटिश सरकार से संबंध-स्थापन के संबंध में चरखारी के राजा विक्रमजीत बहादुर की जब बातचीत चल रही थी उस समय किसी ब्रिटिश अफसर के अनुचित व्यवहार के दमन करने में राजकुमार धर्मपाल के शौर्य का वर्णन । ___ उक्त पुस्तकों में से लक्ष्मण शतक तथा नीति-निधान के अतिरिक्त और किसी पुस्तक की मुद्रित प्रति हमारे देखने में नहीं आई है । लक्ष्मण शतक नामक पुस्तक काशी के भारतजीवन कार्यालय से प्रकाशित हुई है । इस पुस्तक की रचना बड़ी जोरदार है। इसमें काव्यगुण यथेष्ट मात्रा में प्रस्तुत है और इसके पढ़ने से इसके रचयिता की काव्यशक्ति का अच्छा परिचय मिलता है। हम इस काव्य को एक बार सभी कविता-प्रेमी पाठकों से पढ़ने का अनुरोध करेंगे। इधर हाल में अपने एक मित्र की कृपा से खुमान-कृत 'हनुमत शिखनख' की एक प्रति हमें देखने को मिली है। इसकी प्रतिलिपि छत्रसालपुरनिवासी ठाकुरप्रसाद नामक किसी व्यक्ति ने संवत् १९२५ में अपने पठनार्थ की है। यथा यह हनुमत सिखनख लिख्यो कबि ठाकुरपरसाद । छत्रसालपुर में समुझि, मास असाढ़ निनाद (१)॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० नागरीप्रचारिणो पत्रिका संबत सर भुज अंक ससि सुदि असाढ़ की तीज । लिखि ठाकुर कबि पाठ निज मन में करि तजबीज ॥ अब हम पाठकों के अवलोकनार्थ हनुमत शिखनख का संपूर्ण पाठ नीचे दे रहे हैं। इसमें हनुमानजी के प्रत्येक अंग पर रचना की गई है। यद्यपि इसकी रचना लक्ष्मण शतक के समान उत्कृष्ट नहीं बन पाई है, फिर भी बुरी नहीं है। हनुमत शिखनख हनुमत्माहात्म्य दरस महेस को गनेस को अलभ सभा, सुलभ सुरेस को न पेस है धनेस को। पूजि द्वारपालनि बचाव प्रजापाल दिग पाल लोकपाल पावै महल प्रबेस को ? बेर बेर कौन दीन अरज सुनावै तहाँ, याते बिनैवान हैं। नरेस अवधेस को। 'मान' कबि सेस के कलेस काटिबे को होई हुकुम हठीले हनुमंत पै हमेस को ॥१॥ मंडन उमंडि तन मंडि खल खंडन को, दौर दंड दाहिनो उठाए मरदान हैं। चोटी चंडिका की बाम चुटकी चपेटि कै, महिरावनै दपेटि कटि दाबे बलवान हैं ।। भनै कबि 'मान' लसै बिकट लंगूर दीह, दाहिने चरन चापे नातक महान हैं। साँकिनी दरन हनै डाँकिनी डरनि हंकि, हाँकिनी हरन काकिनी के हनुमान हैं॥२॥ * काकिनी गाँव चरखारी राज्य में है। उसी काकिनी के हनुमानजी की उपासना खुमान कवि करते थे और यह शिखनख उन्हीं हनुमानजी का है। ले। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुमान और उनका हनुमत शिखनख ४७१ महाकाय, महाबल, महाबाहु, महानख, महानाद, महामुख, महा मजबूत हैं। भने कबि 'मान' महाबीर हनुमान महा, देवन के देव महाराज रामदूत हैं। पैठिके पताल कीन्ही प्रभु की सहाइ, महिरावनै ढहाइबे को औढर सपूत हैं। डाकिनी के काल साकिनी के जीवहारी सदा, __ काकिनी के गिरि पै बिराजै पौन-पूत हैं॥३॥ शिखा शूल जनु कासी हरिचक्र मथुरा सी राम तारक-विभा सी कोट भानु की प्रभा सी है। ओज-उदभासी ओछि अंजनी प्रकासी राज राजै अमृतासी पति पूजी जम-पासी है। वेज-बल-रासी कबि 'मान' ही हुलासी जन पोखन सुधा सी काम-वर्षन मघां सी है। भाल ज्यों विषासी दृग-ज्वाल अति खासी, हनुमंत की शिखासी प्रलै-पावक-शिखा सी है ॥४॥ केश हाटक-मुकुट दिपै दीपति प्रगट कोटि, भानु के प्रमानु जे विभानु धरिबो करें । सगर-अराति भरिराति तिन्हैं ताकि, तरराते तेज तीखन भँडार भरिबो करें । भनै कबि 'मान' जे सराहे हृषीकेस तिन्हैं, ... ध्याय अलकेस ब्योमकेस लरिबो करें । बंदी केस केसरी-कुमार के सुबेस जे, हमेस गुड़ाकेस के कलेस हरिबो करें ॥५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ नागरीप्रचारिणो पत्रिका ललाट खल-दल खंडिबा बिहंडिबो बिघन-बृद, राम-रति मंडिबो घमंडी घमासान को । संकट की खालिबो प्रसन्न प्रन पालिबो, असंतन को सालिबो प्रदाता बरदान को । भने कबि 'मान' सुर संतन के त्रान लिख्यो जामें विधि-सान तप तेज नहिं मान को । ब्याज उदघाट करै अरिन उचाट कालबंचन कपाट यों लिलाट हनुमान को ॥६॥ भाल बज्र की झिलनि मंडिलनि की गिलनि, रघुराज कपिराज की मिलनि मजबूत के । सिंधु-मद झारिबो उजारिबो बिपिन लंक, वारिबो उबारिबो बिभीषन के सूत के ॥ भने कबि 'मान' ब्रह्मसक्ति प्रसि जान राम भ्राता-प्रान-दान द्रोन-गिरि के अकूत के । रंजन धनी को सोक-गंजन सिया को लिखो, भाल खल-भंजन प्रभंजन के पूत के॥७॥ भौंह खटकी दसानन को चटकी चढ़ी सी वाकि, अँटकी है सदा प्रान-कला अक्ष भट की। ब्रह्मसक्ति फटकी सु झटकी तरेरि पेखि पटकी सटकि मेघनाद से सुभट को (१)॥ 'मान' कबि रट की सुवट की प्रतिज्ञा पालि, लटकी त्रिलोकी जाति देखे जाहि मटकी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुमान और उनका हनुमत शिखनख ४७३ प्रगटी प्रभाउ तेज त्रिकुटी तरल बंदी; भृकुटी बिकट महाबीर मरकट की॥८॥ सत्रु मतिमंद होत दूरि दुख-दुंद होत, मंगल अनंद होत मौज लों मनुज की। भने कबि 'मान' मन-बंछित की दानि भक्ति भाव की निदान है सिया सी अनुज की। साँची सरनागत की लागति सहाइ जापै, जागति है ताकति न देवता दनुज की। खल-दल-गंजनी है रंजनी प्रपन्न कृपा, भौंह भय-भंजनी है अंजनी-तनुज की ॥६॥ श्रवण जिन्हें कोप कंपत अकंपत सकंप जे तमीचर त्रियान तुद तोषन तुवन के। पिंग होत पिंगल सुदंड जात दंडबल, नाठ होत माठर दिनेस के उवन के॥ भने कबि 'मान' युद्ध क्रुद्ध के बढ़त देखि जिनके चढ़त प्रान छूटत दुवन के। घोर बिक्रमन अक्ष अक्ष के भ्रमन बंदी उग्र ते वे श्रवन समीर के सुवन के ॥१०॥ जहाँ जेते होत रघुबीर-गुन-गान तेते, सुनत निदान दानि कीसनि अनंद के । कुंडलनि मंडित उमंड खल खंडन की, सींक सोक-नासनि सिया के दुख-दंद के ॥ भने कबि 'मान' भरे ज्ञान के मयूष पिएँ, बचन-पियूष सदा राम-मुख-चंद के। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ नागरीप्रचारिणो पत्रिका दीन पै द्रवन बिनैवान के स्रवन बंदी उग्र ते वे स्रवन समीरन के नंद के ॥११॥ तप भरे तेह भरे राम-पद-नेह भरे, संतत सनेह भरे प्रेम की प्रभा भरे । सील भरे साहस सपूती मजबूती भरे, तर्ज भरे बाल-ब्रह्मचारी की चपा भरे ॥ भने कबि 'मान' दान सान भरे मान भरे, घमासान भरे दुष्ट-दरन-द्रपा भरे । सोचन के मोचन बिरोचन कुत्रासन ते, __ बंद पिंगलोचन के लोचन कृपा भरे ॥१२॥ सुष्टि कोटि कामधेनु लौ धुरीन कामना के देत, चिंता हरि लेत कोटि चिंतामनि कूत की। बिथा चकचूरै कोटि जीवन-सुधा लौं सिंधु पूरै कोटि कलपलता लौं पुरहूत की। भनै कवि 'मान' कोटि सुधा लौं सुधार कोटि सिंधुजा लौ सुखदानि दान पंचभूत की। गंजन बिपत्ति मन-रंजन सुभक्ति भय___ भंजनि है नजर प्रभंजन के पूत की ॥१॥ कुद्रष्टि बाड़व की बरनि जमदंड की परनि, चिल्ली झार की झरनिरिस भरनि गिरीस की। गाज की गिरनि प्रलै-भानु की किरनि चक्री चक्र की फिरनि फूतकार कै फनीस की । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुमान और उनका हनुमत शिखनख दावानल दीसनि कै रीसन मुनीसन को मीसनि भरी की दंत पोसनि खबीस की । काली कालकूट की कला है काल-कोप की कै कुनजरि क्रुद्ध कौसलेस के कपीस की ॥ १४॥ नासिका श्रज उद्भासिका सुभासिका की रासिका, कै अक्ष-प्रान-प्यासिका विलासिका बलनि की । पौन उनचासिका की जरा अनुसासिका, कै तमीचर- त्रासिका है लासिका दलन की ॥ भनै कबि 'मान' राम - स्वासिका-उपासिका, कै रि लै बासिका उसासिका चलन की । मुनि-मन - कासिका प्रकासिका बिजै की, धन्य पौन-पूत-नासिका बिनासिका खलन की ॥ १५॥ कपाल कैयो ब्रह्मसक्ति निज सक्ति गिलि मेलि जिन, केली सत कोटि चोट कोटि जे सुमार के । निज को निवाल बालभानु- चक्रवाल कालनेमि के कराल काल तेज के तुमार के ॥ भने afa 'मान' कीन्हो ब्रह्म अस्त्र ग्रास जे वे, त्रास के घमंड देन खलनि खुमार के । मेलत अडोल जामें अरिन के गोल जे वे, बिपुल कपोल बंदी केसरी कुमार के ॥ १६ ॥ पंचमुख प्राची कपि-बदन अरीन को कदन - नरसिंघा तन दक्षिन सु भूत-प्रेत- अंत को । ४५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ४७५ www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका पच्छिराज पच्छिम निगाह बिषराह भंजि, उत्तर बराह-मुख संपति अनंत को ॥ भने कबि 'मान' तुंड ऊरध तुरंग मानि, बिद्या-ज्ञान-दानि त्रानकारी सुर-संत को । रच्यो जो न रंच न बिरंचि के प्रपंच मुख, पंचक सु बंदी पंचमुखी हनुमंत को॥ १७ ॥ जामें मेल मुद्रिका समुद्र कूदि गो ज्यों अरि प्रोड्यो जिहि कुलिस-प्रहार पुरहूत को । समर घमंड जासों ग्रस्यो है उदंड अत्र कीन्हो मद खंडन अखंडल के सूत को ॥ 'मान' कवि जासो बोलि अमृत अमोल बोल, दंपति सुखद पद पायो राम-दूत को । मारतंड-मंडल अखंड गिल्यो जासों यह, दौ मुख-मंडल प्रचंड पौन-पूत को ॥१८॥ गराज मुख जाकी होत हूह उड़ें अरिन के जूह, कूह __ फैलत समूह सैन भागि जातुधान की। जाकी सुने हंक मच्यो लंक में अतंक, लंक पति भो ससंक निधरक प्रीति जानकी ॥ भनै कबि 'मान' आसुरीन के अरभ गिरें गर्भिन गरभ सिंधु सरभ सँसान की। अंबुद अवाज जासों लाजत तराज बंदी, बज्र ते दराज सो गराज हनुमान की ॥१६॥ खल-दल काजै गाज गिरती दराजै जन जोम की मिजाजे सिरताजै सफ-जंग की। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुमान और उनका हनुमत शिखनख छत्रपन छाजै बल बिक्रम बिराजे साजै संतन समाजै सदा मौजन उमंग की ॥ 'मान' कबि गाजै जन-भीति भंजि भाजै तेजभ्राजै ताजै तरजे तराजै रबि रंग की । लाजै लै - घन की गराजै गल गाजे बाजे दुंदुभी तेगूज व गराजे बजरंग की ॥ २० ॥ लागी लंक लूकेँ जगी ज्वाल की भभूकैं लखि, ऊकै ता कतूकै तिय कूकैं जातुधान की । दिष्ट राज जू के कर दू कै पद छूकै बूकै अरिन की मूँ... धूकै सम धूकै जन प्रन को न चूके मघवान की ॥ 'मान' कबि जस रूकै भीम रूकै दिपै भान की । खलन की भूकै भूत-भय भजि ढूकै हिय— हूकै दसकंठहू के हूकै हनुमान की ॥ २१ ॥ ओठ एक नभ ओर एक भूतल के छोर ब्रह्मांड कोर तोर फाल ग्रास अनुमंता के । देखि दल भिन्न होत अरि-उर भिन्न— दसकंठ-मन खिन्न दुख छिन्न सिया कंता के ॥ भनै कबि 'मान' मघवान रन-चाव जिन दापि दले दरपि दिवाकर के जंता के । वीर रुद्ररस के बनाए बिधि गौढ़ खल ढोढ करते वे ओठ बंदों अहंता के ॥ २२ ॥ दंत तंव स्रुति अंत बिरतंत बरनंत बलसंवत अनंत हिवंत भगवंत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat के । ४७७ www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका जे कटकटंत लखि निसचर गिरंत भूत भैरव डरंत भट भागत भिरंत के ॥ 'मान' कबि मंत्र जपवंत मै ढरंत संत अंतक हरंत जे करंत अरि अंत के। बज्र ते दुरंत दुतिवंत दरसंत ज्वाल वंत ते ज्वलंत बंदी दंत हनुमंत के॥२३॥ दाढ़ी रुद्ररस रेलै रन खेलै मुख मेले मारि असुरनि नासै जे उबारै सुर गाढ़ ते। चपल निसाचर-चमूनि चकचूरै महि पूरै लंक भाजत जरूरै जाढ़ पाढ़ वे॥ जननि को ढाढ़े सोक-सागर ते काढ़े सान साढ़े गुन बादै बल बाड़े बज्र बाढ़ ते । परे प्रान पाढ़े दलि दुष्टन को दाढ़े धन्य पौनपूत-दाढ़े उतै काढ़े जमदाढ़ ते॥२४॥ सिया-सोक गंजि मन रंजि फल जासों मंजु स्वाद भंजि बाटिका त्रिकुट पुरहुत की। जहाँ बानी बास जानै जानकी बिलास महानाटक प्रकास कथ प्रभु की प्रभूत की । भने कवि 'मान' गान विद्या में सुजान बेद प्रागम पुरान इतिहास के प्रकट की। असना निहारी नपै राम-जस नेम बिषै बसना सुरसना प्रभंजन के पूत की ॥ २५ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुमान और उनका हनुमत शिखनख ठोढ़ी प्रगट प्रभान सो सुमेर की सिखा कैध प्रखर सिंदूराचल - सानु बड़े सान की । अरुन उमंड घनी घन की घटा है प्रलै पावक छटा है कै हरनि अरि-प्रान की ॥ समीरन ऊमी जैत्र पत्रो जाहि भूमी छूमी समर घमंड चंद्र चूमी पवमान की । गोड़ी भानु मंडली बगोड़ी सुर-सैन लरि ड़ी बज्र ओट धन्य ठोढ़ी हनुमान की ॥ २६ ॥ कंठ जासों बाहु मेलि मिले सानुज सकेलि राम, अक्ष कर झेलि करो खेल मल्लपन को । दाब्यो भुजबीस को दब्यो ना बन्यो खोरि है न जाको ओर-छोर बन्यो जोर खल गन को ॥ भनै कबि 'मान' मनि-माला छबिवान हरि जस को निधान धरै ध्यान घनाघन को । मल्यो है सुकंठ जो सराह्यो सितिकंठ रनबंदी यह कंठ दसकंठ-रिपु-जन को ॥ २७ ॥ कंध लाए द्रोन अचल उपाटि धरि जापै व्योम ब्यापै बल कापै कहि जात मजबूत के । हेम-उपवीत पीत बसन परीत जे घरैया इंद्रजीत जुद्ध लच्छन सपूत के ॥ भनै कबि 'मान' महा बिक्रम बिराजमान सराहे पुरहूत के । भारी जान समर ४७६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० नागरीप्रचारिणी पत्रिका जापै दीनबंधु सहित चढ़ाए ते वे ____बंद जुग कंध दसकंधरि-प्रदूत के ॥२८॥ भुजा गिरि गढ़ ढाहन सनाहन हरन वार क्रुद्ध है करन वार खल-दल भंग के। 'मान' कबि ओज उद्भूत मजबूत महा, बिक्रम अकूत धरै तूत सफजंग के । ठोकत ही जिन्हें रन-ठौर तजि भाजै अरि ठहरै न ठीक ठाक उमड़ि उमंग के। भारी बलवंत कालदंड ते प्रचंड बंदों, उदित उदंड भुजदंड बजरंग के ॥२॥ पूजी जे उमाहै भारी बल की उमाहै लोक छाही महिमा है प्रभुकारज प्रभूत की। अरि-दल दाहै काल-दंड की उजाहै सुर मेटती रुजाहै कै सनाहै पुरहूत की। 'मान' कबि गाहै सदा जासु जस गाहै ओज वाहै अवगाहै जे निगाहै रनतूत की। खलन को ढाहै करै दीनन पै छाहै जोमजन को निबाहै धन्य बाँहै पौनपूत की ॥३०॥ पंजा मीडि महि-मंडल कमंडल यौ खंडे कोपि फोरै ब्रह्मांड को समान अंड फूल के। बज्र हूँ ते जिनके प्रहार हैं प्रचंड घोर कालदंड दंड ते उमंड झला झलके । भनै कबि 'मान' सरनागत सहाइ करें, अरिन ढहाइ जे बढ़ाई बल खल के। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुमान और उनका हनुमत शिखनख ४८१ राम-रन-रंजा गज-कर्न-गल-गंजा रनअक्ष मुख भंजा धन्य पंजा महाबल के ॥३१॥ मुष्टिका फोरथो कुंभ-मस्तक लथोरयो कंधकाली जिहि, काली को झकोरयो मद मोरयो मघवंत को। घोरानन घोरयो ब्योम-बीथिनि बिथोरयो निरधूतकाय झोरयो कष्ट तोरयो सुर-संत को ।। माली को मरोरयो जम्बुमाली झकझोरयो कबि'मान' जस जोरयो छोरयोसंकट अनंत को। अरिन पै रुष्ट बत्र निरधुष्ट दुष्ट दारुन सुपुष्ट बंदों मुष्ट हनुमंत को ॥३२॥ चुटकी खुटकी बुटी लौं नाग घुटकी उसक गटी गुटकी गटकि गहि जाने तेज तुटकी । फुटकी लौ फेंकि महा कुटकी बिटप जाने, समर में सुटकी सपूती सिया मुटकी ॥ रुटकी है पुटकी प्रले की पुटकी सी रोग टुटकी हरनि 'मान' काल के लकुट की। चुटकीन लंक घूटि घुटकी मसोसी चंडचुटकी सु बंद हनुमंत पानि-पुटकी ॥३३॥ अँगूठा पावै जोम कुष्ट जपै मंच सत घुष्ट नष्ट, ताको जुर कष्ट सुष्ट दाता बरदान को। 'मान' कबि तुष्ट देत दासन को, दुष्ट मीडि मारै खल खुष्ट काल दुष्टन के प्रान को ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका बिक्रम हि सो जु राखें मुष्ट को सुपुष्ट तेज, मुष्ट करै बज्रनि रघुष्ट मघवान को। लंक रन रुष्ट हनै बाज गज रुष्ट बंदों दुष्ट-दल-भंजन अंगुष्ठ हनुमान को ॥३४॥ उँगली खडग त्रिसूल खेट खट्वा अंग भिंडिपाल, लिए गिरि लंक गर्भ आसुरी तुवन की। मुदगर-बलित कमंडल कलित ज्ञान मुद्र सो ललित फास नासन दुवन की । भने कबि 'मान' फल मानि के बिमान भानु, गहि जिन गंजि प्रभा कात ही उवन की। अंग करि मंडित अभंगुली कुलिश पाठ, बंदी साठ अंगुली ते अंजनी-सुवन की ॥३॥ चपेटा तरनि के त्रासनि जे ग्रासनि अकंपन की, प्रासनि विनासनि जो काम निरधूत की। त्रिसिरा-तरासनि निकुंभ की निरासनि, हिरासनि हुड़कि धूमलोचन अकूत की । भने कबि 'मान' जो खखेटिनि खलनि जो, सुसेटनि ससेट भगी सेना पुरुहूत की । लंकिनी लपेटनि दपेटनि दलनि बंदी, अत की चपेटनि चपेट पौनपूत की ॥३६॥ अंजलि संत-हित-वादिनी है प्रभु की प्रसादिनी है, अरि-उतसादिनी है प्यारी पुरुहूत की । अंजनी-प्रमादिनी है सिया-अहलादिनी है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुमान और उनका हनुमत शिखनख ४८३ लंक-मनुजादिनी-बिदारन के तूत की ॥ मीचु दसकंठ की सुकंठ की मिताई बाल कंठ की कटाई सितकंठ हित हूत की। वंजुली-मुकुल कंज-कुंडमल मंजुली सु बंदी कर-अंजुली प्रभंजन की पूत की ॥ ३७॥ छाती सेर जुत साहस सुमेरु की सिला है, किधौं उपज इला है बाल बिक्रम के तूत की। किधौ दससीस-बल पीसबे की पेषनी है, रेखनी है किधी कोट बज्र के अकूत की॥ 'मान' कबि किधौं कला काल के कपाटनि की ___अरि-उद्घाटनि को पाट मजबूत की। वीर-मद-माती रन-रोस सो धंधाती रामभक्ति-रस-राती धन्य छाती पौनपूत की ॥ ३८ ॥ उदर भरयो जात जामें सिया-राम को प्रसाद जो बिषाद हरदाया को निधान बे गरज को। प्रगटे त्रिलोक जाते नाग नर देव अद्य देव कुक्षि सातहू समुद्र के दरज को॥ भनै कवि 'मान' नदी नाड़ी बहै आड़ी जोति- जोग कल माड़ी तप तेज के तरज को। प्रलै को प्रखंड ब्रह्मांड को पिठर लोह - लठर जठर बंदों पौन-जठरज को॥३६॥ कटि मृगपति-लंक बंक रंक छबि लागे स कलंक लंक जारै कल किंकिनी के रट को। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका भनै कवि 'मान' तेजपुंज मुंज मेखला को कोपीन तर्ज बर्ज ब्रह्मचर्य उतकट को । अरि-दल-मेटन को सुजस-समेटन को ___बंधी लखि फेट रहै निर्भय निपट को। लपटो निपट जामें पुरट को पीत पट, बंदी कटि बिकट प्रकट मरकट को॥४०॥ लंगर सूलधर-सूल कै ससूल समतूल द्रोन सूल-उनमूल मूल मंगल अनंत को । मेरु-सम थूल बल-बिक्रम अतूल, परै लंकपुर हूल फूल-फल कर संत को । सिया दुख भूल मुख रावन के धूल रिपु रूल रोष भूल जै कबूल भगवंत को । खल-प्रतिकूल हरिभक्त अनुकूल बंदी सिंधुकूल फूलन लंगूर हनुमंत को॥४१॥ राखै निज कुक्षि ब्यापि ब्रह्म लौ अतुक्ष कपि रिक्ष-दल सुत जो है कुक्ष कुलवंत को। सुखद बुभुक्ष हेतु उक्ष तर भुक्ष केतु कंटक मुमुक्ष नाम दुक्ष रज पंत को ॥ भने कबि 'मान' महा गरभ को गुत पेखि पंचसत दुक्ष पूज्यो गुक्ष बलवंत को । उक्षपति उक्ष लौं रिपुक्षय को रुक्ष घमसान मुख मुक्ष बंद पुक्ष हनुमंत को॥४२॥ खल-दल-खंडन बिजै को धुज-दंड, कै कराल कालदंड कालनेमि के निपात को। लंक-दाह-देन धूमकेतु को निकेतु, कै Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुमान और उनका हनुमत शिखनख निसाचर-बिनास हेतु केतु उतपात को॥ भने कबि 'मान' रन-मंडप को खंभ, कैधौं बंधन को रज्जु दसकंधर के जात को। संभु-जटा-जूट, कै अपार हेमकूट, कै त्रिकूट-कूट-गंजन लंगूर बातजात को॥४३॥ ऊरु खलनि को खूदि बज्र-बेग-मद [दि जे वै सिंधु कूदि सुखद सिया की राम रंजनी । जीते इंद्रजीत की छड़ाई कै चढ़ाई बजी बिक्रम बड़ाई जे लड़ाई लाड़ अंजनी ॥ भने कबि 'मान' बड़े, बल के बिलास धूम नास को बिनास दसकंध-मद-भंजनी । धक्का की गरूरी करै धराधर धूर धन्य पौनपूत-अरु जे असुर-गर्भ-गंजनी ॥४४॥ जानु कीन्हो धूमनास को बिनास जिन रौंदि खाँदि, लाखन को खंडित जे मंडित समर के। ठोकर के लागे जासु मंच के अचल कंपि ससकै कमठ सेस बल के उभर के॥ भने कबि 'मान' महा-बिक्रम-निधान, मल्ल बिद्या के विधान प्रानप्यारे रघुवर के। पालत प्रजानि भंजि प्ररि की भुजानि ते वे बंदो जुग जानु जानकी के सोक-हर के॥४५॥ जंघा मसक लौ जिनसों मसोस्यो खग्ग रोम खंडि खलन को खोम जोम जीते रन रंग की। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका कालदंड हू ते जे कराल, ततकाल जिन कीन्हों अक्ष कील कालनेमि हू के भंग की। भनै कबि 'मान' लंक जिनसे प्रधान सो प्रधान मीडि मारे बड़े बिक्रम अडंग की। हरै जनु अंधै सिंधु सातहूँ उलंघे भरी बल रंधै धन्य जधै बजरंग की ॥४६॥ चरण एक बार पार पूरि रहे पारावार है न वारापार पार बल-बिक्रम अकूत के। जिनके धरत डग धरनी उगत धिंग धाराधर धक्कनि सो धूरि होत धूत के। भने कबि 'मान' करें संतत सहाइ जे ढहाइ खल-गर्ब गंज गरुड़-गरूर के। चापि चूरे जिनसों निसाचर उदंड ते वे प्रबल प्रचंड बंदी चरन पौन-पूत के॥४७॥ गोपद-बरन तोयनिधि के तरन अक्ष दल के दरन जे करन अरि-अंत के। आपदुद्धरन दया दीन पै धरन, कालनेमि-संघरन उर-आभरन संत के ॥ प्रौढर-ढरन 'मान' कबि के भरन चारौं फल के फरन जय-करन जयवंत के। असरन-सरन अमंगल-हरन बंदी ऋद्धि-सिद्धि-करन चरन हनुमंत के॥४८॥ ऊरधबदन के बिरदन के बदन के कदन सदन गज रदन के अंत के। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ खुमान और उनका हनुमत शिखनख कालनेमि-तन के बिदीरन-करन अवदीरन-करन धूमलोचन दुरंत के॥ भने कबि 'मान' हलाहल के समान मघवान के गुमान गंज भंजन दुखंत के। सूल ते सखर अक्ष बक्ष के बखर (?) बंदी बन हूँ ते प्रखर नखर हनुमंत के ॥४॥ सर्वांग राम-रज-भाल की जै रबि गिल गाल की जै, अंजनो के लाल की कराल हाँकवारे की। बीर बरिबंड की उदंड भुजदंड की जै, महामुखमंड की प्रचंड नाकवारे की ।। भनै कबि 'मान' हनुमान बजरंग की जै, अचनि अभंग की बँकैत बाँकवारे की। जै जै सिंधु नाकुरे की ढाल पग ठाकुरे की काकिनि के बाँकुरे की बाँकी टाँगवारे की ॥५०॥ सर्व शरीर ज्वाला सों जलै ना जल-जोग सो गलै ना, अस्त्र-सस्त्र सो घलै ना जो चलै ना जिमी जंग की। कालदंड ओट सत कोट को न लागै चोट, सात कोटि महामंत्र मंत्रित अभंग की। मनै कबि 'मान' मघवान मिलि गीरबान, दीन्हें बरदान पवमान के प्रसंग की। जीते मोह-माया मारि कीन्हीं छार छाया, रामजाया करी दाया धन्य काया बजरंग की ॥५१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका रोमराजि अरुन ज्यों भौम सो मदगली असोम सोम, ___ कोमल ज्यों छोम कर फेरै सियाकंत के। कहा प्रलै-धोम मुनि लोमस के रोम रन, बैरिनि-बिलोम अनुलोम सुर-संत के ॥ बज्र मृदु मोमद बिभानु सम सोम जे, असोम ग्रह सोम कर ओमन के अंत के। खलन के खोम हव्यजा में होत होम जोम ज्वालन को तोम नौमि रोम हनुमंत के ॥५२॥ ओज-बल-बलित ललित लहरत लखि जाहिं हहरत किए सेना सुनासीर की। कलप-कृसानु के प्रमानु ज्वालावान कोट भानु के प्रमानु के समानु रनधीर की ॥ भनै कवि 'मान' मालिवान-भट-भंजिनी है ___अंजनी-सुखद मनरंजनी समीर की। जापै राम राजी कोटि बज्र ते तराजी यह बंदो तेज ताजी रोमराजी महाबीर की ॥ ५३॥ बाँचै डेढ़मासा सोक-संकट बिनासा, सात पैतप को तमासा बासा मंगल अनंत को। विभव बिकासा मनबंछित प्रकासा, दसौ आसा सुख संपति बिलासा कर संत को॥ महाबीर सासा पूजि बीरा औ बतासा, करै बिपति को ग्रासा वन-त्रासा अरि अंत को। सिखनि सुखासा रिद्धि-सिद्धि को निवासा यह दास-पास पूरै पौ पचासा हनुमंत को ॥५४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) विविध विषय [१] सावयधम्म दोहा मूल-लेखक देवसेन; अनुवादकर्ता प्रोफेसर हीरालाल जैन एम० ए०, एल-एल० बी०; दोहा-संख्या २२४; पृष्ठ-संख्या १२५; मूल्य २॥); प्रकाशक सेठ गोपालदास चवरे, कारंजा, बरार। ___ यह 'अंबादास चवरे दिगंबर जैन ग्रंथमाला' का द्वितीय ग्रंथ है। चवरे संस्था का परिचय उसके प्रथम ग्रंथ जसहर-चरिउ की समालोचना करते समय इस पत्रिका में एक बार दिया जा चुका है। कारंजा के सेठ अंबादास चवरे ने पर्याप्त दान देकर जैन प्राचीन ग्रंथों के छपाने का प्रशंसनीय प्रबंध कर दिया है। कारंजा के जैन मंदिरों में अनेक प्राचीन ग्रंथों का संकलन है। प्रस्तुत ग्रंथ सेनगण मंदिर के भंडार से से लिया गया है और उसके संशोधन के लिये भारतवर्ष के अनेक स्थानों से सामग्री इकट्ठी की गई है जिसको श्रीयुत हीरालाल जैन ने छानबीन कर मूल-पाठ के स्थिर करने का कुशलतापूर्वक प्रयत्न किया है। उन्होंने मूल के सामने हिंदी अनुवाद देकर इस दसवीं शताब्दी की अपभ्रंश भाषा में लिखित पुस्तक का अर्थ सर्व-साधारण के समझने योग्य कर दिया है और भाषा-तत्त्वज्ञों के लिये सारगर्भित भूमिका लिखकर उस समय की भाषा और ग्रंथकर्ता पर विशेष प्रकाश डाला है। अंत में शब्दकोश और टिप्पणी लगाकर मूल के पूर्ण अध्ययन के लिये मार्ग सुगम कर दिया है। अनुमानतः दोहा छंद का प्रचार इस ग्रंथ के कर्ता देवसेन के समय के आस-पास ही हुआ क्योंकि उसने इस ग्रंथ के पूर्व और एक ग्रंथ दोहों में लिखा था। उस समय एक मित्र के हँस देने पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० नागरीप्रचारिणी पत्रिका उसको गाथा में परिवर्तित करना पड़ा था। परंतु देवसेन की रुचि दोहे पर कदाचित् प्रबल थी, इसलिये उसने यह दूसरा ग्रंथ दोहों में फिर रच डाला । इसमें जैन-धर्म के प्राचार-विचार का वर्णन है और जैन श्रावकों के लिये विशेष उपयोगी है। मूल लेखक आदि ही में लिखता है—णमकारे पिणु पंचगुरु दूरि दलिय दुहकम्मु । संखेवें पयडक्खरहिं अक्खमि सावयधम्मु ॥" अर्थात्- "दुःखकों का नाश करनेवाले पंचगुरु को नमस्कार करके मैं संक्षेप में प्रकट शब्दों द्वारा श्रावक धर्म का व्याख्यान करता हूँ।" इस ऊपर के उद्धरण में पाठक ग्रंथकर्ता की भाषा तथा छंद और अनुवादकर्ता के अनुवाद का नमूना भी देख सकते हैं । हीरालाल [२] वीर-विभूतिः जैन युवक-संघ, बड़ौदा ने न्यायविशारद, न्यायतीर्थ श्री न्यायविजयजी के “वीर-विभूति:" नामक संस्कृत सप्त-पंचाशिका का शुद्ध सरस गुजराती अनुवाद सज-धज के साथ प्रकाशित किया है। एक पृष्ठ में श्लोक तथा दूसरे में उसका अर्थ- इस प्रकार ११५ पृष्ठों में महाराज महावीर को मातृभक्ति, पितृ-सेवा तथा उनका उत्कृष्ट सदाचार वर्णित है । इसमें संदेह नहीं कि मूल-लेखक द्वारा अनुवाद शुद्ध हार्दिक भावों का विशिष्ट चित्रण कर देता है। इस अनुवाद में यही खास विशेषता है। नवयुवकों के लिये ही यह पुस्तक लिखी गई है। आशा है, इसमें वर्णित, कुत्सित वातावरण से बचकर अपना आदर्श जीवन बनाने में उन्हें खासी सफलता प्राप्त होगी। पुस्तक पठनीय है। जैन धनिकों की यह प्रवृत्ति स्तुत्य है । साँवलजी नागर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध विषय ४६१ [३] पदमावत की लिपि तथा रचना-काल 'पदमावत की लिपि तथा रचना-काल' (ना०प्र०प० भाग १२, अंक १-२) नामक लेख में हमने यह सिद्ध करने की चेष्टा की थी कि पदमावत की लिपि कैथी तथा उसका रचना-काल सन् ६२७ से सन् १४८ हिजरी तक है। श्रद्धेय ओझाजी ने हमारे इस कथन को असाधु सिद्ध करने का कष्ट किया है। जहाँ तक हमसे हो सका है, हमने श्री ओझाजी की सम्मतियों पर विचार किया है, फिर भी हमें अपना मत ही साधु प्रतीत होता है। निदान, हमारा यह धर्म है कि हम एक बार फिर इस विषय पर कुछ विचार करें और देखें कि श्रद्धेय ओझाजी की बातें हमें क्यों अमान्य हैं। श्री ओझाजी की प्रथम टिप्पणी (पृ० १०५) में कहा गया है-"जायसी ने पदमावत हिंदी में लिखी या उर्दू में यह अनिश्चित है, परंतु हिजरी सन् ६४७ का ६२७ हो जाना यही बतलाता है कि यह भ्रम उर्दू लिपि के कारण ही हुआ हो।" आगे चलकर आप कहते हैं-“यदि मूल प्रति हिंदी लिपि में होती तो ४ के स्थान में २ पढ़ा जाना सर्वथा असंभव था, यदि हि० स० ९२७ में उसकी रचना हुई होती तो ६४७ लिखने की आवश्यकता सर्वथा न थी। हि० स० ६४७ में शेरशाह दिल्ली के साम्राज्य का स्वामी बन चुका था।.....'अधिकतर प्रतियों में सन् ६४७ हि० ही मिलता है वही मानने योग्य है।... 'यदि शेरशाह के राज्याभिषेकोत्सव के बाद उसने शेरशाह की वंदना लिखी होती तो वह रचना का सन् भी राज्याभिषेक के बाद का धर देता।" साहस तो नहीं होता, पर सत्य के अनुरोध से गुरुजनों की सेवा में नम्र निवेदन न करना अपराध ही समझा जायगा; अतः कुछ निवेदन करना उचित जान पड़ता है । पदमावत की लिपि के विषय में हमारा कथन था कि वह कैथी लिपि थी। श्री ओझाजी का कहना है कि वह उर्दू लिपि थी। अपने मत के प्रतिपादन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ . नागरीप्रचारिणी पत्रिका में ओझाजी जो प्रमाण देते हैं वह स्वत: विचाराधीन है। आप एक प्रकार से यह निश्चित समझ लेते हैं कि ४ के स्थान पर २ हो जाने का एकमात्र कारण उर्दू लिपि ही है। कहने की आवश्यकता नहीं कि भ्रमवश ४ का २ या २ का ४ पढ़ा जाना दोनों पक्ष में तुल्य ही है। हमारी समझ में २ के स्थान पर ४ करने के लिये शेरशाह का दृढ़ आधार है, ४ से २ करने के लिये केवल अनुमान। यह नित्यप्रति की बात है कि संदिग्ध स्थल पर बुद्धि से काम लिया जाता है। हमको तो इसमें कुछ भी संदेह नहीं है कि यह ४ बुद्धि का प्रसव है, जिसकी कल्पना शेरशाह के शाहेवक्त में निहित है। पाठभेद का कारण यह नहीं कहा जा सकता कि स्वयं मूल-पदमावत की लिपि उर्दू थी; क्योंकि सभी प्रतियों का आधार वही नहीं है। स्पष्ट है कि सबसे प्राचीन प्रति जो बंगला में उपलब्ध है उसमें सन् ६२७ है। इसमें तो किसी को आपत्ति नहीं हो सकती कि यह अनुवाद यथाशक्य सावधानी से किया गया था। इसका एक मुख्य कारण यह है कि इसका संबंध एक विदेशी राजा से था, जो पदमावत का अद्वितीय भक्त था। संभवत: यह प्रति कैथी में ही रहो होगी। अन्य अनूदित प्रतियों के विषय में हमारी धारणा है कि उनमें अधिकतर सन् २७ ही है। मिश्रबंधुओं तथा राय साहब श्यामसुंदरदास की सम्मति भी यही है। यदि उपलब्ध पुस्तकों की तालिका बने तो इस कथन में किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती। सन् ६३६ किसी किसी में मिलता है; पर वह त्याज्य समझा गया है। इस पाठभेद का कारण यह है कि धीरे धीरे उर्दू लिपि के प्रचार के कारण पदमावत भी उसी लिपि को अपनाने लगी। लोग एक लिपि से दूसरी लिपि में लिखने लगे। जब किसी को संदेह हुआ, शाहेवक्त के आधार पर २ के स्थान पर ४ को ठीक समझा । यही क्रम अब तक चला आ रहा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध विषय ४-८३ इस पक्ष के पंडितों की दृष्टि इस ओर तनिक भी नहीं मुड़ती कि इस सन् का संबंध शाहेवक्त से नहीं है । "सेरसाहि देहलीसुल्तानू” से “सन् नव से सैंतालीस " तक पर्याप्त अंतर है । प्रथम १२ वें दोहे के अनंतर आता है और द्वितीय २३ वें के । स्पष्ट है कि इस सन् का संबंध शाहेवक्त से, जैसा भ्रमवश लोग समझते हैं, कदापि नहीं है । यह तो कथा के आरंभ का समय है- " कथा रंभ बैन कवि कहा" । कैथी लिपि के पक्ष में एक अकाट्य प्रमाण यह है कि स्वयं जायसी ने अपनी अखरावट में इसी लिपि के वर्णों का परिचय दिया है । अखरावट की रचना पदमावत से पहले की गई थी । इसका ढ़ प्रमाण यह है कि कबीरदास का संकेत अखरावट में विस्तार के साथ किया गया है । कबीरदास की निधन - तिथि, किसी प्रकार भी, पदमावत के आरंभ के पहले ही रहती है । इस विषय पर हम पहले ही अधिक विवेचन कर चुके हैं । इस प्रकार अखरावट का रचना - काल किसी भी दृष्टि से सं० १५७५ के अनंतर नहीं जा सकता । यदि हम पदमावत की आरंभ तिथि सन् ६४७ स्वीकार करते हैं तो इस २० वर्ष, या इससे भी अधिक समय तक जायसी का मौन रहना संगत नहीं जान पड़ता । इस दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि अखरावट के अनंतर पदमावत का आरंभ अवश्य ही किया गया होगा, क्योंकि उसके आख्यान में अखरावट के सिद्धांतों का मधुर व्याख्यान ही है । हम यह पहले ही लेख में कह चुके हैं कि धर्म तथा प्रचार की दृष्टि से भी कैथी लिपि का होना ही अधिक संभव है । यदि हम ओकाजी के इस कथन को मान भी लें कि शेरशाह के समय में उर्दू लिपि की सृष्टि हो चुकी थी तो भी हमारे कथन में विशेष बाधा नहीं पड़ती । यदि उस समय उर्दू का पर्याप्त प्रचार होता तो अकबर को फारसी की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका शरण न लेनी पड़ती; शेरशाह की मुद्राओं पर हिंदी का विधान न होता; दक्षिण में हिंदी राज्य-भाषा न बनती। हमारी समझ में वर्तमान उर्दू-लिपि शाहजहाँ के समय में प्रस्तुत रूप धारण कर सकी थी। यह एक संकर लिपि कही जा सकती है। रही भाषा को बात। यह स्पष्ट ही है कि उस समय यदि उर्दू भाषा इसी रूप में प्रचलित होती तो जायसी अवधी में कदापि न लिखते। हमको तो एक भी कारण नहीं देख पड़ता जिसके आधार पर पदमावत की लिपि को उर्दू मान लें। वस्तुत: वह कैथी लिपि है। लिपि की भाँति ही रचना-काल भी अनिश्चित है। अपने लेख में अनुमान के आधार पर जो कुछ हमने कहा है उस पर अब तक विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। स्वयं ओझाजी ने भी उस पर विशेष ध्यान देने का कष्ट नहीं किया है। आपका कथन है-"स्तुतिखंड पीछे से लिखा गया, मानना भी कल्पनामात्र है। दूसरे अर्थात् सिंहल द्वीप वर्णन खंड के प्रारंभ में ही वह लिखता है कि 'अब मैं सिंहल द्वीप की कथा गाता हूँ' जिससे स्पष्ट है कि पहले स्तुति-खंड को समाप्त करने के पश्चात् उसने द्वितीय खंड लिखना प्रारंभ किया था ।" इस टिप्पणी को देखकर हमें तो यहो भान होता है कि ओझाजी ने हमारे कथन पर-"हम इस संपूर्ण खंड को ग्रंथ की 'इति' के उपरांत की रचना मानने में असमर्थ हैं। 'सिंहल द्वीप कथा अब गावौ' का 'अब' ही हमें लाचार करता है"-कुछ भी ध्यान नहीं दिया। हम तो बंदना-शेरशाह की वंदना-को बाद की रचना मानते हैं। जान पड़ता है कि ओझाजी ने मिश्रबंधुओं से हमारे कथन में कुछ विशेषता न देखकर ही उन्हीं के रूप में हमारा खंडन किया है। हम यह मानते हैं कि जायसी ने अपना पदमावत में रचना-तिथि महीने में नहीं दी है; पर हम यह नहीं कहते कि हम उसके लिये अनुमान भी नहीं कर सकते । इसी कारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध विषय ४१५ के वशीभूत होकर हमने ग्रीष्म ऋतु का अनुमान किया है । इसके अतिरिक्त स्वय ओझाजी इस बात को स्वीकार करते हैं कि शेरशाह की 'गद्दीनशीनी' का उत्सव सन् ६४८ में हुआ। हमारी समझ में इसी अवसर से वह वास्तविक शाहेवक्त कहा जा सकता है। इसके पहले तो उसका दिल्ली पर केवल अधिकार था। राज्य हाथ में लगते ही किसी को शाहेवक्त कहना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। शेरशाह के विषय में जो कुछ पदमावत में कहा गया है उससे इसका स्पष्टीकरण भी नहीं हो पाता। सन् ६२७ मान लेने में कुछ अड़चन नहीं है। शाहेवक्त की वंदना मसनवियों में अनिवार्य नहीं होती । इसको एक प्रकार से समर्पण समझना चाहिए। हमारी धारणा है कि जायसी ने अपनी पदमावत में शेरशाह की वंदना जोड़ दी है। ____ श्री ओझाजी ने एक और टिप्पणी की है। आपका कथन है"लेखक महोदय ने पद्मावती के स्मरण किए हुए मालवदेव को जोधपुर का राठौड़ राजा मालदेव बतलाया है जो मानने योग्य नहीं है।...... पदमावत का मालदेव जालौर के चौहान राजा सामंतसिंह का दूसरा पुत्र था।" इस मालवदेव के विषय में हमारा कहना है "अत: यह वह मालवदेव नहीं हो सकता जिसको अलाउद्दीन ने जीतकर चित्तौर दिया था।" स्पष्ट ही है कि इस मालवदेव को पदमावती ने बड़े ही आदर के साथ स्मरण किया है । स्वयं ओझाजी के प्रतिपादन से स्पष्ट है कि जालौर के मालदेव को लगभग सन् १३१३ ई० में अलाउद्दीन ने चित्तौर का राज्य दे दिया। यही नहीं, जिस समय पदमावती उसका स्मरण करती है उस समय उसकी कुछ ख्याति भी नहीं थी। हम यह नहीं कहते कि जायसी के समय के मालदेव में कालदोष नहीं है। हमने स्पष्ट कह दिया है कि उन्होंने पदमावत में जिन रजवाड़ों का वर्णन किया है उनकी संगति प्रायः शेरशाह के समय में ही ठीक ठीक बैठती है। सारांश यह है कि जायसी ने इतिहास की उपेक्षा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका की है। स्वयं ओझाजी सिंहल द्वीप की पद्मिनी तथा गोरा बादल के विषय में यही कहते हैं। जालौर का मालदेव एक अप्रसिद्ध व्यक्ति था। यदि जायसी को इतिहास की छानबीन से उसका पता चला होतातो वे उसको पद्मावती के मुँह से इस प्रकार सम्मानित न करते। इतिहास इस बात का साक्षी है कि गोरा बादल का महत्त्व इस मालदेव से कहीं अधिक था। फिर इस मालदेव ने किसको शरण दी थी; क्या काम किया था ? इसका नाम तो सन् १३११ के अनंतर आता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जायसी की पदमावत में तत्कालीन मालवदेव का ही संकेत है। आशा है, श्रद्धेय ओझाजी हमारी धृष्टता पर ध्यान न दे सत्य का प्रकाशन करने का कष्ट करेंगे। चंद्रबली पांडेय [४] पुरातत्त्व विक्रम संवत् का वर्णन आरंभ में कृत संवत् के नाम से आता है। लोग मानते हैं कि विक्रमादित्य सन् ई० से ५७ वर्ष पूर्व हुए। पर इस विश्वास के लिये कोई प्रमाण अभी तक नहीं मिला है। खिष्टीय पांचवीं शताब्दी के पूर्व संवत् वर्षों का नाम कृत वर्ष लिखा है और उन लेखों में किसी प्रकार का संकेत भी नहीं है कि इन वर्षों का संबंध विक्रमादित्य से किसी प्रकार रहा हो। तो फिर कृत वर्ष का-"कृता: वत्सराः" का अर्थ क्या है। राजपूताना के उदयपुर राज्यांतर्गत नंदासा ग्राम में इस संवत् का अति पुराना शिलालेख मिला है। उसमें मिती इस प्रकार लिखी है-कृतयोर्द्वयोर्शतयोद्वर्थशीतय = कृत २०० +८०+२ । ऐसे लेखों में कृत शब्द का संबंध सदैव वर्ष से रहता है। इस विषय में डाक्टर डी० आर० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध विषय ४-६० भंडारकर ने जून १८३२ के इंडियन ऐंटोकेरी में एक लेख लिखा है । शुंग वंश के महाराजा ब्राह्मण जाति के थे। इनके समय में, विशेषकर पुष्यमित्र के समय में, ब्राह्मण धर्म ने फिर बहुत उन्नति की । इनका मत है कि पुराणों और महाभारत में जो विष्णुयशस् ब्राह्मण के यहाँ कल्कि अवतार होने का वर्णन है वह इसी पुष्यमित्र के विषय में है । कलियुग का वर्णन पुष्यमित्र के पूर्व की स्थिति से बिलकुल मिलता-जुलता है। कलियुग के पीछे कृत युग होनेवाला था । इसलिये पुष्यमित्र ने ही कृत संवत् ५७ ई० पू० में चलाया, ऐसी कल्पना उक्त महाशय की है । इतिहासज्ञों के मत से पुष्यमित्र का काल १८० ई० पू० माना जाता है । आप इस मत का खंडन करने का प्रयत्न करते हैं, पर आपके मत के समर्थन में कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता । ( २ ) मोहेंजोदरा और हरप्पा में जो मुहरें मिली हैं उनके पढ़ने का प्रयत्न जून १९३२ की इंडियन हिस्टारिकल कारटरली में डाक्टर प्राणनाथ द्वारा जारी है । इस विषय का कुछ वर्णन श्रावण १८८६ की नागरीप्रचारिणी पत्रिका ( १३ -२ ) में दिया जा चुका है। ऐसा मालूम पड़ता है कि सिंधु नदी की तरैटी में लोग जिन देवताओं को पूजते थे उनमें से कुछ तो देशो और कुछ विदेशो-जैसे बैबिलन प्रांत के — थे । गौरीश, नागेश, नगेश, शिश्न, हों, श्रीं क्लीं इत्यादि - I नाम उन लोगों के देवताओं के हैं और ये स्थानीय देवता जान पड़ते हैं । इन्नो, इनी, सिन्, नन्ना, गग, गे इत्यादि सुमेरियन देवताओं के प्रसिद्ध नाम हैं और सिंधु के लेखों में अक्सर पाए जाते हैं । डाक्टर साहब का मत है कि चामुंडा देवी के विषय के ग्रंथ में आपको इन नामों का पता मिलता है। I ऐसे ही कुछ नाम दक्षिण भारत में पाए गए पुराने मिट्टी के बर्तनों पर भी मिलते हैं । इसलिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका आपका मत है कि सिंधु देश के कुछ देवताओं की पूजा दक्षिण भारत में बहुत प्रचलित थी । आपने नाना देशों और कालों के अक्षरों की समानता की जाँच इस लेख में बड़ी योग्यता से की है। इसके सिवा ठप्पे से अंकित पुरानी मुद्राओं (punch marked coins) को पढ़ने का प्रयत्न आपने किया है । इन मुद्राओं का विषय निराला है। उनके लेखों और संकेतों को अभी तक किसी ने नहीं समझ पाया है। ऐसी मुद्राएँ बहुत मिली हैं। उनके पढ़ लेने से भारतवर्ष के पुराने इतिहास पर बहुत प्रकाश पड़ेगा, क्योंकि वे मुद्राएँ तीसरी या दूसरी शताब्दि ई० पू० के पूर्व ही प्रचलित थीं। सिंधु नदी की तरैटी के पूर्व लोगों की भाषा एकाक्षरी विशेष मालूम पड़ती है । इन मुहरों के पढ़ने के विषय में अभी अंतिम निश्चय नहीं हुआ है । पंड्या बैजनाथ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका अर्थात् प्राचीन शोधसंबंधी त्रैमासिक पत्रिका [ नवीन संस्करण] भाग १३-संवत् १९८९ संपादक महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा - : काशा-नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by A. Bose, at the Indian Press, Ltd., Benares-Branch. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेख-सूची विषय पृ० सं० १-भारशिव राजवंश [ लेखक श्री काशीप्रसाद जायस. वाल, पटना] ... ... ... ... १ २–गौर नामक अज्ञात क्षत्रिय-वंश [ लेखक-महामहो पाध्याय रायबहादुर श्री गौरीशंकर हीराचंद ओझा, अजमेर] ... ... ३-पद्मावत का सिंहल द्वीप [लेखक-महामहोपाध्याय रायबहादुर श्री गौरीशंकर हीराचंद ओझा, अजमेर] १३ ४-मथुरा की बौद्ध कला [ लेखक-श्री वासुदेवशरण अग्रवाल एम० ए०, एल-एल० बी०, मथुरा] ... १७ ५-संध्यतरों का अपूर्ण उच्चारण [ लेखक-श्री गुरुप्रसाद एम० ए०, काशी] ... ... ... ४७ ई-विविध विषय ... ... ... ... ५७ ७-बुंदेलखंड का संक्षिप्त इविहास [ लेखक-श्री गोरेलाल तिवाड़ी, विलासपुर] ... ... ... ६५ ८-विविध विषय ... २३५ -संगीत-शास्त्र की बाईस श्रुतियाँ [ लेखक-श्री मंगेश राव रामकृष्ण तैलंग, बंबई] ... ... २५३ १०-हम्मीर-महाकाव्य-[लेखक-श्री जगनलाल गुप्त, बुलंद शहर] ... ... ... ... २७६ ११-बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास [ लेखक-श्री गोरेलाल • तिवाड़ी, विलासपुर] ... ... ... ३४१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृ० सं० १२–कवि जटमल रचित गोरा बादल की बात [ लेखक. महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा] ३८७ १३-काठियावाड़ आदि के गोहिल [ लेखक-श्री मुनि ... जिनविजय, विश्वभारती, बोलपुर] ... ... ४०५ १४-प्रेमरंग तथा आभासरामायण [ लेखक-श्री ब्रजरनदास बी० ए०, एल-एल० बी०, कांशी] ... ... ४०६ १५-खुमान और उनका हनुमत शिखनख-[ लेखक-श्री अखौरी गंगाप्रसादसिंह, काशी] १६-विविध विषय ... ... ... .... ४८६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ allebih Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com