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________________ ४६२ . नागरीप्रचारिणी पत्रिका में ओझाजी जो प्रमाण देते हैं वह स्वत: विचाराधीन है। आप एक प्रकार से यह निश्चित समझ लेते हैं कि ४ के स्थान पर २ हो जाने का एकमात्र कारण उर्दू लिपि ही है। कहने की आवश्यकता नहीं कि भ्रमवश ४ का २ या २ का ४ पढ़ा जाना दोनों पक्ष में तुल्य ही है। हमारी समझ में २ के स्थान पर ४ करने के लिये शेरशाह का दृढ़ आधार है, ४ से २ करने के लिये केवल अनुमान। यह नित्यप्रति की बात है कि संदिग्ध स्थल पर बुद्धि से काम लिया जाता है। हमको तो इसमें कुछ भी संदेह नहीं है कि यह ४ बुद्धि का प्रसव है, जिसकी कल्पना शेरशाह के शाहेवक्त में निहित है। पाठभेद का कारण यह नहीं कहा जा सकता कि स्वयं मूल-पदमावत की लिपि उर्दू थी; क्योंकि सभी प्रतियों का आधार वही नहीं है। स्पष्ट है कि सबसे प्राचीन प्रति जो बंगला में उपलब्ध है उसमें सन् ६२७ है। इसमें तो किसी को आपत्ति नहीं हो सकती कि यह अनुवाद यथाशक्य सावधानी से किया गया था। इसका एक मुख्य कारण यह है कि इसका संबंध एक विदेशी राजा से था, जो पदमावत का अद्वितीय भक्त था। संभवत: यह प्रति कैथी में ही रहो होगी। अन्य अनूदित प्रतियों के विषय में हमारी धारणा है कि उनमें अधिकतर सन् २७ ही है। मिश्रबंधुओं तथा राय साहब श्यामसुंदरदास की सम्मति भी यही है। यदि उपलब्ध पुस्तकों की तालिका बने तो इस कथन में किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती। सन् ६३६ किसी किसी में मिलता है; पर वह त्याज्य समझा गया है। इस पाठभेद का कारण यह है कि धीरे धीरे उर्दू लिपि के प्रचार के कारण पदमावत भी उसी लिपि को अपनाने लगी। लोग एक लिपि से दूसरी लिपि में लिखने लगे। जब किसी को संदेह हुआ, शाहेवक्त के आधार पर २ के स्थान पर ४ को ठीक समझा । यही क्रम अब तक चला आ रहा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034973
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Hirashankar Oza
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1933
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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