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________________ ४६० नागरीप्रचारिणी पत्रिका उसको गाथा में परिवर्तित करना पड़ा था। परंतु देवसेन की रुचि दोहे पर कदाचित् प्रबल थी, इसलिये उसने यह दूसरा ग्रंथ दोहों में फिर रच डाला । इसमें जैन-धर्म के प्राचार-विचार का वर्णन है और जैन श्रावकों के लिये विशेष उपयोगी है। मूल लेखक आदि ही में लिखता है—णमकारे पिणु पंचगुरु दूरि दलिय दुहकम्मु । संखेवें पयडक्खरहिं अक्खमि सावयधम्मु ॥" अर्थात्- "दुःखकों का नाश करनेवाले पंचगुरु को नमस्कार करके मैं संक्षेप में प्रकट शब्दों द्वारा श्रावक धर्म का व्याख्यान करता हूँ।" इस ऊपर के उद्धरण में पाठक ग्रंथकर्ता की भाषा तथा छंद और अनुवादकर्ता के अनुवाद का नमूना भी देख सकते हैं । हीरालाल [२] वीर-विभूतिः जैन युवक-संघ, बड़ौदा ने न्यायविशारद, न्यायतीर्थ श्री न्यायविजयजी के “वीर-विभूति:" नामक संस्कृत सप्त-पंचाशिका का शुद्ध सरस गुजराती अनुवाद सज-धज के साथ प्रकाशित किया है। एक पृष्ठ में श्लोक तथा दूसरे में उसका अर्थ- इस प्रकार ११५ पृष्ठों में महाराज महावीर को मातृभक्ति, पितृ-सेवा तथा उनका उत्कृष्ट सदाचार वर्णित है । इसमें संदेह नहीं कि मूल-लेखक द्वारा अनुवाद शुद्ध हार्दिक भावों का विशिष्ट चित्रण कर देता है। इस अनुवाद में यही खास विशेषता है। नवयुवकों के लिये ही यह पुस्तक लिखी गई है। आशा है, इसमें वर्णित, कुत्सित वातावरण से बचकर अपना आदर्श जीवन बनाने में उन्हें खासी सफलता प्राप्त होगी। पुस्तक पठनीय है। जैन धनिकों की यह प्रवृत्ति स्तुत्य है । साँवलजी नागर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034973
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Hirashankar Oza
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1933
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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