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विविध विषय
४१५ के वशीभूत होकर हमने ग्रीष्म ऋतु का अनुमान किया है । इसके अतिरिक्त स्वय ओझाजी इस बात को स्वीकार करते हैं कि शेरशाह की 'गद्दीनशीनी' का उत्सव सन् ६४८ में हुआ। हमारी समझ में इसी अवसर से वह वास्तविक शाहेवक्त कहा जा सकता है। इसके पहले तो उसका दिल्ली पर केवल अधिकार था। राज्य हाथ में लगते ही किसी को शाहेवक्त कहना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। शेरशाह के विषय में जो कुछ पदमावत में कहा गया है उससे इसका स्पष्टीकरण भी नहीं हो पाता। सन् ६२७ मान लेने में कुछ अड़चन नहीं है। शाहेवक्त की वंदना मसनवियों में अनिवार्य नहीं होती । इसको एक प्रकार से समर्पण समझना चाहिए। हमारी धारणा है कि जायसी ने अपनी पदमावत में शेरशाह की वंदना जोड़ दी है। ____ श्री ओझाजी ने एक और टिप्पणी की है। आपका कथन है"लेखक महोदय ने पद्मावती के स्मरण किए हुए मालवदेव को जोधपुर का राठौड़ राजा मालदेव बतलाया है जो मानने योग्य नहीं है।...... पदमावत का मालदेव जालौर के चौहान राजा सामंतसिंह का दूसरा पुत्र था।" इस मालवदेव के विषय में हमारा कहना है "अत: यह वह मालवदेव नहीं हो सकता जिसको अलाउद्दीन ने जीतकर चित्तौर दिया था।" स्पष्ट ही है कि इस मालवदेव को पदमावती ने बड़े ही आदर के साथ स्मरण किया है । स्वयं ओझाजी के प्रतिपादन से स्पष्ट है कि जालौर के मालदेव को लगभग सन् १३१३ ई० में अलाउद्दीन ने चित्तौर का राज्य दे दिया। यही नहीं, जिस समय पदमावती उसका स्मरण करती है उस समय उसकी कुछ ख्याति भी नहीं थी। हम यह नहीं कहते कि जायसी के समय के मालदेव में कालदोष नहीं है। हमने स्पष्ट कह दिया है कि उन्होंने पदमावत में जिन रजवाड़ों का वर्णन किया है उनकी संगति प्रायः शेरशाह के समय में ही ठीक ठीक बैठती है। सारांश यह है कि जायसी ने इतिहास की उपेक्षा
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