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प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४६५ तारक मंत्र प्रतच्छ प्रभु दसरथनंदन राम । सोइ शिव सब को कहत ही शिव होय धावत धाम ॥४॥ छंद रचन जानत नहीं नहिं जानत सुध राग । छमा कीजे मोहि चतुर नर लखि रघुबर अनुराग ॥५॥ पास राम की कर अचल पास खड़े हैं जान । मान त्याग कर भजत हो मन स्वरूप धरि ग्यान ॥६॥ कासीबासी बिप्र हो रहत राम तट धाम । पवनकुमार-प्रसाद सों गाय रिझावत राम ॥७॥ अज शिव शेष न कहि सकें महिमा सीताराम । इंद्रदेव सुर देवसुत नागर कबि अभिराम ॥८॥ संस्कृत प्राकृत दोउ कहे इंद्रप्रस्थ के बोल । वाल्मीकीय प्रसाद सों गाए राग निचोल ॥६॥ अठारह सो अट्ठावना विक्रम शक मलमास । ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी रविकुलनंदन पास ॥१०॥ जहाँ रामायन कहत कोइ सुनत कपी कर जोर । पुलकित अंग नयन स्रवत प्रानि रिपु असु घोर ॥११॥ प्रभु संगत ज्यों तरसत ज्यों राख्यो कपि तन चाम । 'प्रेमरंग' हनुमंत धन सुनत अहर्निस राम ॥ १२ ॥ इति श्री आभासरामायणे फल-स्तुतिः समाप्ता।
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