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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
कटा सिर शूल बिना शर सों । बसा बन राम विरह बर सों ॥ । जिलाया बाल धर डर सों । कटा सिर सह शंभु का तुर्त ॥ २८ ॥ अगस्त के दस्त लिया गहना । सुना डंडक का बन कहना ॥ जिकर हयमेध अवध रहना । लछन वृत्रारि की कहि फर्त ॥ २॥ प्रभू इल की कथा कहते । पुरुष औरत जो नर रहते ॥ पूरुख पूत प्रगट लहते । ऐसी साँब जाग की है जुर्त ||३०|| बोलाए बंधु सब जग में। आए वाल्मीक जग मग में ॥ कहा लव-कुश ने जग रँग में । सिया से गंद किया सुध डर्त ॥ ३१ ॥ हुआ जग राजधानी प्राय । मिली जननी पती पद जाय ॥ भरत गंधर्व के तल्लपुर पाय । अंगदचंद्र के तपाय बिर्त ॥३२॥ सुना प्रभु काल का भाखन । सिधारे काल कारन लछमन ॥ हजार ग्यारह हुए सम सुन । मुलक लव - कुश लिए कर सुत ॥३३॥ शत्रुघ्न कों बोलाय लीने । नगर तज राम गवन कीने ॥ प्रभू परब्रह्म दरस दीने । गए गोप्तार मोहन मूर्त ||३४|| चले सब देव मिल सांतान । भए दिव्य देह चढ़े हैं विमान || अवध में लेख न देखा प्रान । कहा वाल्मीक पढ़ें अनिवर्त ||३५||
अघमोचन कोट जनम का जान । इती आभास अंतरध्यान ॥ कहा 'प्रेमरंग' सियापति ग्यान । गायन से राम मिलेंगे शर्त ॥ ३६ ॥ इति श्री प्रभासरामायणे उत्तरकांडः समाप्तः ।
फल-स्तुति
रामायण आभास यह सात कांड वाल्मीक | अर्थ ज्ञानी अधिक रस लखत राम जस लीक ॥ १ ॥ मनन ज्ञान रस ज्ञान जिहिँ राग ज्ञान सुध होय । ताहि रिझावन गान यह सुख सों समझत साय ॥ २ ॥ सीखत सुनत जो राम-जस दहत पाप लखजोनि । अनुरागात्मक एक दृढ़ भक्ति उदय विन्हि होनि ॥ ३ ॥
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