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नागरीप्रचारिणी पत्रिका रोते हैं गम से गश में कहाँ जाती हो तुम्हें देखा। बनवास हास कैसी कहे कदलि को गले लगाई ॥२८॥ गोदावरी डरी सी लख मृग दीन दखिन को दौड़े। अत क्रोध काल अगिन सो रनभूम लछमन देखाई ॥२६॥ रथ छत्र बान कमान कर धर हाथ कबंध किसके। इतने में देख खग को कहा सिया इसी ने खाई ॥३०॥ रोते हैं सुने सर धर बिन पर दर्द मों राम देखे । सीता की हरन सुनाई रघबर गोद मों मौत पाई ॥३१॥ चाचा से सेवाय गम कर करनी सो चलाय सुरपुर । कबंध बंध काटे तन जरने सो मदत बताई ॥३२॥ सुग्रीव सहाय सुनकर 'प्रेमरंग' मतंग-बन को। देखे शवरी सती की गत कर पंपा की सर* सोहाई ॥३३॥ इति श्री आभासरामायणे पारण्यकाण्ड: समाप्तः ।
किष्किधाकांड (रागिनी सावंत, ताल दानलीला की चाल से, सवैया छंद) फूलन की द्रुमनु की झखन की बहार निहार सरोवर झार जरे हैं। कोकिल कूजत भंवर गूंजत मोरन कूकत पंख झरे हैं । कुंद कदंब नितंब से ताल तमाल नए नए भार भरे हैं। आज अकाज बसंत असंत मरें न बिहंग अनंग धरे हैं ॥१॥ लछमन तुम जाय कहो सब से जब से हम प्राण धरे तन माहीं। जानकी जानकी जानकी गाहक नाहक भर्तकर मत झाहीं ॥ आज समाज करें कपिराज तो राक्षस राजपुरी कुल नाहीं । सौमित्र सरूप जगावत ही प्रभु पैठे पहाड़ पिंगेश के माहीं ॥२॥
• पवन ।
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