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प्रेमरंग तथा प्राभासरामायण
४४१ सुन दाँत पीस रावन सारन् सों लड़ पड़ा। दुसमन का बल बखान बाण दिल मेरे गड़ा ॥ लड़ा हों मैं देव दानो से । परे हो जा दूर कानों सो॥ मार डालो दोनों को जानों सो। नकारे बजवाय निशानों सों॥
दाजे सजवाय ज्वानों सों ॥२१॥ शार्दूल सब बोलाय कहा राम पास जाओ । सरदार सबके दिल की जलदी खबर ले आओ। निशिचर लशकर में आए । बिभीषन पहेचान पाए॥ पकड़ दो-चार को मार दिवाए । रघुबर का हुकुम बचाए।
आय रावण को घाव देखाए ॥२२॥ घबराय कों सभा कर चौकी सजाय कों। बिजली की जीभवाला माया बनाय क॥ निशाचर संग में लीना। रघुबर का सिर कमान कीना ।। सीता को देखाय भी दीना । सीया मन में शोक सा भीना।
देख सरमा ने माया है चीन्हा ॥२३॥ दौड़ा अाया निशाचर रावण को ले गया। नाना कहे न लड़ झिड़क सुनी खफा भया॥ सरमा सों सीता संतोषी । रावन मारा जायगा दोषी । चौदो भुवन में कर्ता हैं शोषी । मंदोदरी छोड़ अनोखी ।
दुर्बुद्ध कहता है सीता को चोखी ॥२४॥ माल्यवान खफा हुए उठ गए अविंध्य । सब सज खड़े निशाचर दूजा है मानों सिंध ॥ प्रहस्त को पूरब दरवाजे । महोदर दखिन बिराजे॥ इंद्रजीत खड़ा पश्चिम में गाजे । अपने अपने दल को साजे ॥
__ आप चढ़ा उत्तर सो राजे ॥२५॥
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