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नागरीप्रचारिणी पत्रिका गिरे प्राणहीन से होकर । रघुबर ने बानों से मोह कर॥ हनुमान भेजा उत्तर राम ने रोकर । जड़ सो गिरिको ल्याया नौकर।।
संजीवनी दीनी उठे मुख धोकर ॥१०४॥ रथ बैठ आया रावन अस्तर चलोवता। रघुनाथ दिहा तोड़ इंद्र रथ भेजावता ॥ बानों सों रावन खिजलाया। राहु रामचंद दबाया । तीनोंभुवन में उत्पात देखाया । बझै सो त्रिशूल तोड़ाया ।
राम बाण सो अचेत भगाया ॥१०॥ रावन को चेत होते रथवान से कहा। तैंने क्यों मुझे भगाया घायल सुने सहा ॥ दीना है इनाम का गहना । ले चल राम साम्हने रहना ।। दुशमन मारेगा यामार कोरहना । अगस्त के उपदेश को चहना ॥
श्री सूर्यनारायण को ब्रह्म कर कहना ॥१०६॥ रथवान ने रथ चलाय को जब राम पर पिला । अंत्रिख सों देव देखे थलहल से रथ चला ॥ सगुन मरने के जाने । रथ फेरते धूल नहाने । रावन रथ के निशान फहराने । रघुबर की सहाय बेखाने ।
हुलास दिल में सभी देव बखाने ॥१०७॥ लड़ने लगे रथ दोनों निशिचर बंदर खड़े। मरना है कहे रावन मारन को राम लड़े। दोनों बीर बान चलावें । रावन ध्वजा काट गिरावें॥ राम रावण का निशान उठावें । बानों का पिंजर सा छावें ॥
दौड़ाय रथ को रथ के साथ सटावें ॥१०॥ गटपट भए रथ दोनों घोड़े लिपट लड़े। गदा मुशल पटा त्रिशूल राम पर झड़े। १०७-अंत्रिख = (अंतरिक्ष) आकाश ।
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