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प्रेमरंग तथा आभासरामायण
४४६ रावन के पास जाते कपि को नजर पड़ा। परबत सा देख कों डरे अंगद हुआ खड़ा॥ बिभीषन को राम देखावे । भाई पराक्रम बतावे ॥ जंतर करो बंदर भाग न जावे । नील को यों हुकुम् फरमावे ॥
ललकारो मारो यारो राम बचावे ॥६॥ निशिचर कों संग ले चढ़ा बढ़ा बलाय सा। उलका गिरी अकाश से त्रिशूल में गिद्ध धंसा ॥ आया महाकाल का जैसा । बंदर जाना मौत है तैसा ॥ घमासान करे जैसा जल मों भैंसा । अंगद भी ललकारे ऐसा ॥
उड़ाय देता आँधी पौन है तैसा ॥६॥ ऋषभ शरभ मैंद धूम नील रंभ तार । कुमुद द्विविंद पनस हनु इंद्रसुतकुमार ॥ ललकार सुन सामने पड़ते । मरने सों मुतलक न डरते॥ बरसात बिछों निशाचर शिर करते । हजारों रगेद सों मरते ॥
तिस निशचर मर जान सों गिरते* ॥२॥ द्विविंद ने पहाड़ कुंभकरन पर हना। टुक बच गया निशाचर सेना का चूर बना ।। सबों ने बिछौं सो मारे । राखस त्राहि त्राहि पोकारे । हनूमान अंगद ने मार बिदारे । रुधिर के दर्याव कर डारे ॥
कैएक निशिचर को हनूमान ने टारे ॥६॥ निशिचर ने खेंच मारा हनूमान कों त्रिशूल । ललकार पहाड़ सा फाड़ घूमे साला जरा एक हूल ॥
*ता बिचरते। + निशिचर को हनुमान चोटारे। चोट गिर की सिर के चीथरे फारे॥
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