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प्रेमरंग तथा आभासरामायण
४५३ महलों को बंदर जलावें । लछमन राघोनाथ सोहावें ॥ टंकार करके निशाचर डरपावें । यूपाक्ष प्रजंघ दो आवें ॥
संग शोणितात कंपन भी धावें ॥७॥ अंगद द्विविद ओ मैंद तीनों यह चार सों लड़े। मारे हैं चारों निशाचर जो द्वंद जुध जुड़े ॥ निकुंभ का कुंभ जो भाई। अंगद की आँख गिराई॥ मैंद द्विविंद की जोड़ी सों लड़ाई। जांबवान की फौज भगाई।
जाय सुग्रीव सों जंग मचाई ॥८॥ सुग्रीव ने बल बखाने सों मद कुंभ को बढ़ा। कुस्ती में लड़ थका तब हारि मूकियों गढ़ा ॥ उठाय को दर्याव में डाला। जल में से उछल के बाला ॥ मुष्ट मारीमानों मौत सँभाला। घड़ी दो में हरि होश सँभाला॥
बज्र मारी मुष्टि शैल सा ढाला ॥१॥ निकुंभ सुना कुंभ को मरे सों जोश भरा। कर परिघ ले पिला मिला हनुमान पहेचान ठहरा ॥ बंदर भागे राम सरन में । परिघ तो हनुमान के तन में। तिल तिल हुआ वज्रांगबदन में । मूर्छा सी बचाय कोरन में ॥
निकुंभ उठा मूकी खाय को छिन में ॥२॥ निकुंभ ने हरी को हर गगन ले उड़ा। मस्तक में मुष्टि खाय को मुख बाय को पड़ा। पकड़ को जमीन में पटका । गर्दन घुमाय को झटका ॥ उखाड़ फेंका सिर कियामरघट का।टारातीनों लोक का खटका ॥
निशाचर बचा सो भय पाय को सटका ॥८॥ रावन ने दाँत पीस को मकराक्ष से कही। तुम जाओ फते सुनाओ सुनतेई कमान कर गही॥
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