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प्रेमरंग तथा आभासरामायण मारों की घात बचावें । अपना अपना नाव सुनावें॥ महल तोड़ें ओ खंदक पटावें । निशिचर जमपुर को जावें ॥
रघुनाथ सेवक वैकुंठ को धावें ॥४०॥ नदियाँ बहीं रुधिर की मुरदों का हुआ कीच । जोड़ों सों जोड़े गठ गए बाजे बजे रण बीच ॥ अंगद इंद्रजीत हराया। हरिश से प्रघस मराया ॥ हनुमान जंबुमालीमार गिराया। लछमन विरूपाक्षसों लाया।।
मित्रन्न रावण के भाई ने खाया ॥४१॥ सुप्तधन जघन कोप सों रघुबर से लड़े चार । एक एक कों एक तीर सों चारों को डारे मार ॥ कैएक बंदरों ने मारे । राखस सब जोड़ों से हारे ॥ भाग गए सो लंकेश पोकारे । हाथी रथी अश्व बिदारे ।
कबंध उठे मारो मार पोकारे ॥४२॥ कालरात कतल की सी रात हो गई। कोई को कोई न देखे* ऐसी कटा भई॥ हारा इंद्रजीत भी परता । छिप को माया-बल को करता। हराम जमीन मों पाँव न धरता । अस्तर बरसात सा करता ॥
कै कोट काटे सिर भुटों सा गिरता ॥४३॥ सोय गए सब कोई नहा खड़ा दिसे । रघुबीर दोनों बीर को नख-सिख लौं सर धसे ॥ कसे दम ज्वान गिरे से । बिभीषन सुग्रीव डरे से॥ सर जीत चलामानों काम सरेसे । सीता को देखाय मरे से॥
समुझाय त्रिजटा ने ले जाय परे से ॥४४॥
७ जाने। + अस्तर सर बरसात सा भरता। ४३-कटा=मार-काट । हराम= पिशाच ।
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