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प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४३३ तुम चातुरमास बिलास करो हम चात्रिक बूंद की आस गहेंगे। रविनंदन राज बैठाय को अंगद दे युवराज सबी सुख लेंगे ॥ १४ ॥ लछमन बदरा उमड़े घुमड़े गरजे बरसे जिय को ललचावें । दादुर कोकिल मोर के सोर घटा घन-घोर सि घेरत आवे ॥ जलधार धरा सों मिले ऋतु में हमें प्रान-प्रिया के बियोग सतावे । सावन की सबजी लख जी को नजीक सिया बिन नैन ढरावे ॥१५॥ देखो भादो नदी उमही ओ मही धन-धान्य-भरी ऋतु त्यागत मीता। हम सूखत स्वल्प सरोवर से इस आश्विन मास में पास न सीता ॥ जल सीत भए जल दाह गए फल फूल नए बरखा ऋतु बीता। लछमन समुझावत तो नहिं मानत उन्मत्त से मन्मथ अब* जीता ॥१६॥ मग सूख गए जल साफ भए नभ निर्मल चाँदनि चंद्र बिकासे । कातिक मास करार किया कपि कारन कौन न सैन निकासे ॥ उन्मत्त को लत्त लगावत लछमन, बाल के काल के बान हैं खासे । लछमन सुन सेस से साँस भरे सर साज सजे धस क्रोध प्रकासे ॥१७॥ डरपे बदरा बँदरी न डरी समुझाय रिझाय कपीस मिलाए । अंगद बीर हनूमान जांबवंत नल नील सुषेण अनेक देखाए । हरीश नरेश के पास चले सो चले तिहुँ लोक भलै डरपाए । दृग हाथ से पोछत हैं रघुनाथ जोजक्त के नाथ अनाथ से पाए ॥१८॥ सरदार गिनाय बैठाय कह कर जोर कपी प्रभु जो फरमावे । राम कहें सब काम किए सिय खोज लगाय को फौज लड़ावे ॥ उदयाचल दक्खिन अस्तगिरी कपि उत्तर कूल लौं देस बतावे । कपिचारबोलाय को चार दिशा पठए कहि एकहि मास में आवे ॥१॥ तीन दिशा तीनों फौज गई हनुमान बखान मुंदरी पठवाई। कै कोट जोजन के भुवन हे कपी तुम कैसे लखी किसने देखलाई ॥
* मन । १५-नजीक = नजदीक, पास ।
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