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प्रेमरंग तथा आभास रामायण
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यही हनुमान अकेला । गगन गत मारे हेला ॥ जाय सिया कों संदेसा मेला लंका कीनी आग का ढेला ॥ आय मुझे जीवन सों मेला ॥ १ ॥ सर्बस देते बकसीस कपीस कों उठ गले लगाय हनुमान बली अंगद दोनों रघुबर लिए फौजें बादल सी दौड़ीं । गजैं जों जमीन सी हथियार हाथों में डारे तोड़ी । बँदरों ने बागें मुतलक मरने की डर भी छोड़ी ॥ २ ॥
उठाय ॥
फोड़ी ॥
मोड़ी ॥
साइत कों साध चलने सों सगुन पवन सहाय । रघुनाथ के हुकुम सों खेतों कों कूद बचाय ॥ डेरा दर्याव पर दीना । बंदरों कों गिर्द में लीना ॥ रीछ लंगूर को पीठ में कीना । बिरहानल सों सीना भीन्हा ॥ हाय सीता जोबन होयगा हीना ॥ ३ ॥
लंका की दसा देख क रावण को निशिचर सभा बोलाय कों सब मिल करें मुझे अब क्या सल्लाह है । मैंने उठाय गिरी कैलास हिला है । लड़ने को राम
यमराज
संग उसे बंदरा
बेकरार |
बिचार ||
दला है ।
चला है ॥
मिला है ॥ ४ ॥
सरनाम ।
बंदर समुद्दर पार कै बली बड़े जल थल बनाय ल्याय कों लड़ाय मारेगा राम ॥ मुझे खतरा है जी का । मनसूबा बतलाओ उसी का ॥ हरन किया मैं सीता सती का । महल्ल मुझे लागे फीका ॥ सुभोग सिया सँग लागे नीका ॥ ५ ॥
२—मुतलक
= सब, बिलकुल ।
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