Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 13
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 51
________________ प्रेमरंग तथा आभास रामायण ४३७ यही हनुमान अकेला । गगन गत मारे हेला ॥ जाय सिया कों संदेसा मेला लंका कीनी आग का ढेला ॥ आय मुझे जीवन सों मेला ॥ १ ॥ सर्बस देते बकसीस कपीस कों उठ गले लगाय हनुमान बली अंगद दोनों रघुबर लिए फौजें बादल सी दौड़ीं । गजैं जों जमीन सी हथियार हाथों में डारे तोड़ी । बँदरों ने बागें मुतलक मरने की डर भी छोड़ी ॥ २ ॥ उठाय ॥ फोड़ी ॥ मोड़ी ॥ साइत कों साध चलने सों सगुन पवन सहाय । रघुनाथ के हुकुम सों खेतों कों कूद बचाय ॥ डेरा दर्याव पर दीना । बंदरों कों गिर्द में लीना ॥ रीछ लंगूर को पीठ में कीना । बिरहानल सों सीना भीन्हा ॥ हाय सीता जोबन होयगा हीना ॥ ३ ॥ लंका की दसा देख क रावण को निशिचर सभा बोलाय कों सब मिल करें मुझे अब क्या सल्लाह है । मैंने उठाय गिरी कैलास हिला है । लड़ने को राम यमराज संग उसे बंदरा बेकरार | बिचार || दला है । चला है ॥ मिला है ॥ ४ ॥ सरनाम । बंदर समुद्दर पार कै बली बड़े जल थल बनाय ल्याय कों लड़ाय मारेगा राम ॥ मुझे खतरा है जी का । मनसूबा बतलाओ उसी का ॥ हरन किया मैं सीता सती का । महल्ल मुझे लागे फीका ॥ सुभोग सिया सँग लागे नीका ॥ ५ ॥ २—मुतलक = सब, बिलकुल । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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