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प्रेमरंग तथा आभासरामायण ४३१ गोलांगुल बानर रीछ के ईश बसे बन बाली बली यह नेरे । कुह कंदर अंदर बंदर हैं मुनि ताप प्रताप पहाड़न हेरे । सुग्रीव के जीव को चैन यही चलि जाय मिले दिन-रात हैं दौरे। बन से निकसे कपियों हद से उठके छटके एक ठोर न ठहरे ॥३॥ महाबीर बली रनधीर हरी हनुमान कहो अनुमान से जाने । दूत सपूत सँवारत काज समाज किए बिन कौन पैचाने ।। द्विज रूप सो आय परे प्रभु पाय स्वरूप सुनाय रिझाय बखाने ।
नरेंद्र कपिद-समाज करें उनकी सुन कों प्रभु जो मनमाने ॥४॥ सनेह से बाँध धरे दोउ काँध ले आय नरेश कपीश मिलाए। वरु डार बैठाय को आग जराय को मित्र कराय सभी सुख पाए । सिय को हरना सुन को गहना यो गिराय गई सो देखाय रोवाए। सुग्रीव सँदेस सुने सो प्रभू कर कौल कहा कलि बालि मराए ॥५॥ कौल सुने सो कलोल किया बली बालि बके सो बिचार से जाने । प्रतीत न होत सियापत से तब दुंदुभी देह देखाय डराने ॥ दुदुभी देह गया दसयोजन ताल पताल बिधे सरमाने । नाथ सनाथ किया मुजको धर हाथ अनाथ कहाँ लो बखाने ॥६॥ प्रभु को संग ले को चले लड़ने बल बालि बढ़े तब काल से लागे। पराय लुकाय रहे गिरि आय कहें प्रभु मार खेवाय को त्यागे॥ राम कहे दोनों भाइन में तब चीन्हि परे रन सों जब भागे। इतनी कह कंठ लगाय लता फिर ताल ठोकाय लिया धर आगे॥७॥ बन ब्राह्मण आय प्रणाम कराय बैठाय सभी सुख* सो ललकारा । सुन दाँत बजावत ताल लगावत धावत आवत रोकत तारा ॥ नाथ छिपा कोइ साथ में है रघुनाथ के हाथ सहाय पोकारा । तिय को समुझाय भिड़े बन में नग शृंगन मूकिन जंघन मारा ॥८॥
* छिपाय। ३-कुह = पर्वत।
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