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प्रेमरंग तथा आभासरामायण ___४२७ तुम राजा हम दास तुम्हारे चलो अवध पुर राज करो। जननी की तकसीर माफ कर राजसिंघासन पाँव धरो॥४०॥ ऐसे बहुबिध बचन सुनाए नहिं रघुबर को एक लगे। चौदह बरस कहे सो कहे नहिं कहे किसी के राम डिगे ॥४॥ नेम किया जब भरत मरन का करुणानिधि यह बिधि बोले । यही पाँवरी राज करेगी जैसे हम पर छत्र ढले ॥४२॥ कहत भरत सब सुने सभाजन अहद अवध लग देह धरों। जो नहिं देखो चरन-कवल तो पैठ अगिन में वोहिं जरों ॥४३॥ पाँवर लेकर बिदा होयकर सिर पर धर परनाम किया। आय अवधपुर उजर देखकर भरत आँख भर रोय दिया ॥४४॥ नंदिग्राम में बसे बैरागी चौदह बरस बितावन कों। वहाँ राम गिरिराज त्यागकर चले अत्रि के आश्रम को ॥४५॥ मुनि पद परसे अनुसूया ने सियमुख सुना स्वयंबर को। 'प्रेमरंग' प्रभु सुख से बसे धसे बनघन सर धनुधर को ॥४६॥ इति श्री आभासरामायणे अयोध्याकांड: समाप्तः ।
मारण्यकांड (रागिनी सोरठ, ताल धीमा तिताला, छंद रेखता)
पैठे हैं बन सघन में कर धर बान औ कमान । क्या खूब रूप महबूब जटाजूट मुकट से ॥१॥ लटकीले नैन बैन मधुर बोल बस किए। टारे न टरें तापस लटके हैं लटक से ॥२॥ एक एक की कुटी जायकर फल मूल रहे खायकर। आगे से बन बिकट से ठठके हैं खुटक से ॥३॥
४०-तकसीर = दोष। ४३-अहद =समय । ३६
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