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प्रेमरंग तथा आभासरामायण
४२५ वहाँ सुमंत्र बसत सुन बन में रोवत रथ को फेर लिया। रोए तुरँग कुरँग भुंग जल थल बन पंछीहू रोय दिया ॥१६॥ पूछत नर नारी सब मिल कर कहा राम तुम त्याग किए । कौशल्या नृप जब पूढेंगे कौन बचन तुम कंठ किए ॥१७॥ सुन सुमंत्र का रथ जब आया झटपट राजा उठ बैठे। नहीं राम खाली रथ आया सुनत खाट पर फिर ऐंठे ॥१८॥ कहत सुमंत्र बसत हैं बन में कह पठवाया गुरुजन सों। चौदह बरस बिताय प्राय कों फिर लागोंगा चरनन सौ ॥१॥ सुन कौशल्या बचन हमारा श्रवन-सराप-पाप जागा। जैसा करै सो तैसा पावै राम बिरह से फल लागा ॥२०॥ आधीरात पोकारत रोवत हाय राम लछमन सीता। इतनी कही सो कही नहीं फिर बोले राजा जग जीता ॥२॥ कौशल्या उठ प्रात पोकारी पति देखे परलोक गए। जन रनवासा रोता सुनकर अवध-निवासी दीन भए ॥२२॥ कहत बसिष्ठ सभा कर सब कों बिन राजा नहीं काम चले । तेल-कुंड में रख राजा को भरत बोलावन दृत चले ॥२३॥ भरत लैन कों चले दूत जब वहाँ सैन में सपन भया। खान-पान की सुध बिसराई सखा सबन सों स्वाद गया ॥२४॥ पहुँचे दूत बोलावत गुरुजन जलदी चलिए अवधपुरी। कुशल पूछ कहि चले पंथ मों किया मुकाम न एक घड़ी ॥२५॥ सात रात दिन चले पंथ मों पुरी जरी सी देख डरे । रथ से उतर गए घर में फिर कैकेयी के पाँव पड़े ॥२६॥ कहत पिता नहिं भाई देखों नगर उजर सा देख परे । जितनी भई कहीं सब तितनी सुनत पड़े जो बृच्छ गिरे ॥२७॥ धिक् जननी तू नहिं मैं तेरा, पतिघातिन नागिन जैसी। रामदास मोहिं जानत सब जग क्या उलटी हिय बुद्धि बसी ॥२८॥
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