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प्रेमरंग तथा प्राभासरामायण
४१५ दिलदार जाता हेच कुनं चार न दारम् । ब उम्मेद लासखुन से इश्तिफाक दिलबदारम् ॥
'प्रेमरंग' प्रभु वाह भल भले भले ॥ गुजराती भाषा का एक पद
जावा दे कन्हैया ह्याँ की सास लड़ाकी । ननदल छोटी दग ड्यारी पीठी । शाशू मुमौ द्यारी लड़वा मां झगड़ा की । पनि डाने जाताँ लाँके पाग गणें छे। झूठी साँची बोले थाके साथ खड़ा की ॥ 'प्रेमरंग' प्रभु थांसों प्रान पग्यो छे।
छाती प्रीत राखो ह्याँ की लाज बड़ाकी ॥ श्लोकावली—यह संपूर्ण ग्रंथ प्राप्त नहीं हुआ है। यह भी वाल्मीकीय रामायण की चाल पर सात कांडों में विभाजित है और खड़ी बोली हिंदी में संस्कृत वृत्तों में रचा गया है। इसका किष्किधा कांड मात्र मुझे मिला है, जो संपूर्ण यहाँ दे दिया जाता है, क्योंकि इसमें केवल ग्यारह श्लोक हैं।
(स्रग्धरा छंद) देखायं या प्रभू ने जलचर बिचरे बृच्छ ये पति बोलें। बोलें बन के मृगादिक गुलम पुहुप ये भंग उन्मत्त डोलें ॥ डोलें दोनों वियोगी सिय सिय उचरें चाय ओवा न तोलें। तोलें शोभा सुगंधी जनक-कुँअरि की कंठ सो साउँ होलें ॥१॥
आयो भाई बसंत: प्रफुलित कुसुम प्रानप्यारी नहीं है । केकाकाकीयभेका विहरत बन में पार वाकी वही है । कैसे काटे वियोगी मधुरितु रिपु को तर्सते बर्स बीता। बोले लछमन प्रभू को टुक विरह सहो पाइहो राम सीता ॥२॥
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