________________
४१८
नागरीप्रचारिणी पत्रिका
द्वारा प्रकाशित कराने के लिये पत्र द्वारा लिखा था और उन्हें संपादित करने को भी वे तैयार थे पर ईश्वरेच्छा से वे इस कार्य को न कर सके और यह कार्य सभा की आज्ञा से मुझे करना पड़ा ।
२ - यह प्रति भी हस्तलिखित है । आरंभ में पूर्ण होते भी अंत में खंडित है | इसका लेख पहली प्रति के समान सुडौल नहीं है पर पाठ तब भी साधारणत: अच्छा है । इसमें छोटे छोटे अट्ठावन पत्रे हैं और प्रत्येक में आठ आठ पंक्तियाँ हैं । इसमें लंकाकांड प्रायः समाप्त है । आगे का उत्तरकांड बिलकुल नहीं है I इस प्रति को पं० हरीरामजी नागर ने दिया है ।
३ – यह प्रति भी हस्तलिखित है पर दोनों ओर से खंडित है । इसका लेख सुंदर है और बाँसी कागज पर पुस्तकाकार लिखा गया है । प्रत्येक पृष्ठ में पंद्रह पंक्तियाँ हैं । यह प्रति राय कृष्णदासजी की है ।
४ – यह प्रति इस निबंध के लेखक ही की है। यह पुराने कलकत्ता टाइप में छपी हुई है । इसके प्रारंभ तथा अंत दोनों ओर के एक एक पृष्ठ नहीं हैं । अड़तालीस पृष्ठों में प्रॉक्टेवो साइज की यह पुस्तक है, जिसके हर एक पेज में बाईस पंक्तियाँ हैं । इसका पाठ भी साधारणतः शुद्ध है । यह प्रति लगभग सौ वर्ष पुरानी है ।
इस लेख के लिखने में पं० हरीरामजी नागर पंचोली से विशेष सहायता मिली है, तदर्थ मैं उनका अनुगृहीत हूँ । पर इतना अवश्य कहना पड़ता है कि इस कार्य में जितना उत्साह उन्होंने पहले दिखलाया था वह बाद को मंद पड़ गया और वे जितना कह चुके थे उतना साधन प्रस्तुत न कर सके। इस कारण यह लेख जैसा चाहिए था वैसा न लिखा जा सका ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com