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प्रेमरंग तथा प्रभासरामायण
होता है ऐसा जग कहीं नहीं हुआ सुना । जो कुछ कोई कि माँगे वहीं उसे भरे ॥२१॥ सब देव की सभा मिल गोविंद सरन जाय । बिनती करे पोकार के रावन की डर डरे ॥२२॥ धरेंगे | मनुख - जनम सुन करार सुर गए । पायस दिया निकल के जहाँ जग-गिन जरे ||२३|| पायस खिलाए तीन को कीने विभाग चार । ब्रह्मा के बचन देव कपी - जन्म तरे ॥२४॥ ऋषि को चलाय चाह सों चकोर - चित नरेश । इस बरस हिरस ग्रास दरस परस चैत चंद ||२५|| दिन चैत सुदी नामी ग्रह पाँच जब बुलंद | करकट लगन विकटहरन प्रगट भए मुकुंद ॥२६॥ शंख, शेष, चक्र तीन अनुज फिर भए । श्रीराम भरथ लछमन शत्रूघन नाम द्वंद्व ॥ २७॥ कंज- नैन मेघ- श्याम राम, लछमन गोरे । वैसे भरथ शत्रूघन दोनों हैं एक जिंद ||२८|| ऐसे कुमार चार चारों बेद गुणनिधान । दशरथ के दिल के हार जग सुजन के आनंद कंद ॥२॥ सुंदर सरूप सर-धनु-धर रघुबर रनधीर । दशरथ के दिल को दिन दिन शादी को फिकिरमंद ॥३०॥ गाधी कुमार झगड़ लछन - राम ले चले । बाम्हन के बन जगन बिधन-हरन मारन को रिंद ॥ ३१ ॥
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* दुरदुरे | + करेंगे । २५ – हिरस = इच्छा । २८ – जिंद = ( ० जिंस ) ३१ – जगन = यज्ञों । रिंद = निर्भय I
समान ।
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