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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
न में राघो छिपाए कड़क रव किया बालि बाहर निकाला । कुस्ती मूकी लड़े दो रविज घट गयो त्रास स राम भाला ॥ पीड़ा सुग्रीव पाई दवर गिरि चढ़ो बालि ने श्राप मान्यो । आए राघो कपी ए कहत हमहिं को मारबो मन् में ठान्यो ॥३॥ बोले राजाधिराजा सुनहु तुम सखा क्रोध को दूर कीजे । जाते बाली बचा है हनन न किया दोख मोको न दीजे ॥ दोनों भाई सरीखे लड़त नहि लखे कौन बाली दुहुन में । ताते नाहीं चलाया शर मरम बिषे मित्र को घात मन में || ४ || कीजे लछमन सखा को कछुक लख परे कंठ में वेल डाली ।
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बन के मुनीको सबन सिर्नए आए मारन कुं बाली ॥ दोनों बन में लुकाने शर धनुस धरे बालि को टेर दीनी । सुनते धायो धराया पकरत ग्रहणी नीत की बात कीनी ॥५॥ मारा भाग फिरा है गहि बलि बल सों टेर को शब्द भारी । कीने राघो सखा है त्रिभुवन विजयी मान नीती हमारी ॥ ल्याओ सुग्रीव भाई अनुजवत करा द्वेष का लेश त्यागो । मानी नाहीं प्रिया की मरन-मुख भि षटू टेर ज्यों तीर लागो ॥६॥ जी सो मारो नहीं मैं गरब परिहरों जाहु तूं रास मेरी । दीनों आसीस भार्या सगुन कर गई बालि ने बारि हेरी ॥ धाया सुग्रीव पाया धर पकर भई मुष्टि की वृष्टि कीनी । पटके फट्के व छट्के गट-पट लपटे क्रेट ले चोट दीनी ॥७॥
( मालिनी छंद )
खोटा ॥
कपि कहि वपु छोटा बालि का देह मोटा । नहिं तुल बल जोटा प्राक्रमी भाइ धनुख दु शत डारों दुंदुभी भाइ प्रबल रिपु हमारो फेकिए हाड
मारी ।
नारी ॥८॥
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