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प्रेमरंग तथा आभासरामायण पुत्र थे और रामघाट ही पर काशी में रहते थे। इनके वंशज अभी तक उसी मुहल्ले में रहते हैं। इंद्रदेवजी 'बाबूजी' के नाम से प्रसिद्ध थे। यह संस्कृत, हिंदी और गुजराती के अच्छे विद्वान् थे। इन्होंने अपने गुरु के उपनाम पर कुल रचनाएँ बनाई और उनका नाम उजागर किया। इनकी रचनाओं का प्रचार काशी के बाहर बिलकुल नहीं था और यही कारण है कि मिश्रबंधु-विनोद से प्रकांड संग्रह में भी इनका नाम नहीं आया है। काशी के बालूजी की फर्श पर कार्तिक सुदी ११ से पूर्णिमा तक इनके बनाए हुए भजन नित्य रात्रि में गाए जाते हैं। काशी की पंचक्रोशी प्रसिद्ध है। इसमें जिस प्रकार कृष्ण-मंडलियों में कृष्ण-लीला होती है उसी प्रकार प्रेमरंगजी के समय से चलाई हुई एक राममंडली रामलीला करती है, जिसमें इन्हीं की रचनाओं से भजन इत्यादि सब लिए जाते हैं। एक को छोड़ इनकी कोई भी रचना अभी तक प्रकाशित नहीं हुई थी। केवल श्लोकावली को एक सज्जन माधो मेहता खंडेलवाल प्रकाशित कर आठ आठ आने पर बेचते थे। कवि के जन्म-मरण का समय नहीं प्राप्त हो सका, पर उनका रचना-काल सं० १८५० से १८७५ तक ज्ञात होता है।
रचनाएँ आभासरामायण-रामचरितमानस के समान यह ग्रंथ भी सात कांडों में विभक्त है और इसके प्रत्येक कांड में मानस ही के समान उसी की कथा अत्यंत संक्षेप में कही गई है। कथाभाग कहीं कहीं मानस के विरुद्ध वाल्मीकीय के अनुसार कहा गया है; जैसे-"मग में मिले भृगुनंदन" का उल्लेख हुआ है। कवि ने प्रत्येक कांड के अंत में पुस्तक का नाम 'वाल्मीकीय आभासरामायणे' लिखा भी है और एक दोहे में कहा भी है कि
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