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मूलाराधना
आश्वासः
उदयसे जविमें जो मायारूप, निदानरूप और मिथ्यात्वरूप परिणाम होते हैं वे भावशल्य हैं, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति इन पांच स्थावरोंके मरणको द्रव्यशल्यमरण कहते हैं. असंक्षि ऐसे त्रस जीव भी इसी मरणसे मरते हैं..
शंका-द्रव्यशल्य पर्व त्रस म्यावर प्राणिआम है ही। तो स्त्रावरांम हो यह है ऐसा आप कहते हैं यह योग्य नहीं है,
उत्तर-भावशल्यसे रहित कंवल द्रव्यशल्यकी अपेक्षासे हमने ऐसा कहा है. सम्यक्त्यमे दोनशल्यसे अतिचार उत्पन्न होते हैं. मम्यग्दर्शन स्थावर जीवों में और विकलेन्द्रियों में नहीं उत्पन्न होता है.
मेरेको भविष्यकालमें ऐसी ऐसी वस्तु मिलनी चाहिये ऐसा मनका संकल्प होना उसको निदान कहते है. यह असंज्ञिजीवोंमें मन न होनेसे नहीं होता है..
रत्नत्रयमार्गको क्षण लगाना, मार्गका नाश करना, मिथ्यामार्गका निरूपण करना, रत्नत्रयमार्गमें चलनेवाले लोगोंका बुद्धिभेद करना ये सब मिथ्यादर्शनशल्यके प्रकार है,
निदानके प्रशस्त, अप्रशस्त और भोगकृत ऐसे तीन भेद है, परिपूर्ण संयमकी आराधना करनेकी इच्छासे जन्मांतरमें मेरको पुरुषत्व प्राप्त हो, उत्तम कुल, उत्तम दृढ शुगर इत्यादि सामग्री प्राप्त हो ऐसी प्रार्थना करना प्रशस्तनिदान है, कषायसे प्रेरित होकर आगेके जन्ममें कुलरूपादिकोंकी प्रार्थना करना अप्रशस्तनिदान है. अथवा क्रोघांध होकर अपने शत्रको मैं उत्तर भवमें मार सकूँ ऐसी इच्छा रखना जैसे बशिष्ठमुनीने उग्रसेन राजाका नाश करनेकी इच्छा की थी, वह वशिष्ठमुनि मरकर केस हुवा था. उसने अपने पिताका राज्य छीन लिया था और उसको कारागृहमें कैद किया था. यह अप्रशस्तनिदानका उदाहरण है.
भोग निदान-इस लोक तथा परलोकमें-स्वगादिकमें मरेको अच्छे २ भोग इस व्रताचरणसे मिलने चाहिये ऐसा मनमें संकल्प करना वह भोगनिदान है, यह भोगनिदान असंयतसम्यग्दृष्टि ब संयतासंयत अर्थात् श्रावकको होता है, ये जीव भोगनिदानसे मरते है. इसको भोगनिदान मरण कहते हैं.
मायाशल्यमरण-पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त वगैरे भ्रष्ट मुनीके रूपसे चिरकाल तक बिहार करके जा मुनि मरणसमयमें भी दोषोंकी आलोचना किये बिना ही मरते हैं उनका वह मरण मायाशत्यमरण समझना