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दृष्टि बन जायेंगे | अतएव केवली - श्रुतकेवली के मिलने तक दोनों को ही मानना उचित है । इस समाधान से टीकाकार आचार्य की पापभीरुता दिखती है । ऐसे ही अनेक प्रकरण धवला टीका में भी आये हैं । यहाँ यह भी स्पष्ट है कि श्री वसुनन्दि आचार्य ग्रन्थकार की गाथाओं को 'सूत्र' रूप से प्रामाणिक मान रहे हैं ।
सर्वप्रथम ग्रन्थ
मुनियों के आचार की प्ररूपणा करनेवाला यह 'मूलाचार' ग्रन्थ सर्वप्रथम ग्रन्थ है। आचारसार, भगवती आराधना, मूलाचारप्रदीप और अनगार धर्मामृत आदि ग्रन्थ इसी के आधार पर इसके बाद ही रचे गए हैं । अनगारधर्मामृत तो टीकाकार वसुनन्दि आचार्य के भी बाद का है । ग्रन्थकर्ता पण्डितप्रवर आशाधरजी ने स्वयं कहा है
एतच्च भगवद् वसुनन्दि-सैद्धांतदेवपादैराचारटीकायां दुओणदं इत्यादि ।
इस पंक्ति में पण्डित आशाधरजी ने वसुनन्दि को 'भगवान्' और 'सैद्धान्त देवपाद' आदि बहुत ही आदर शब्दों का प्रयोग किया है। क्योंकि वसुनन्दि आचार्य साधारण मुनि न होकर 'सिद्धान्तचक्रवर्ती' हुए हैं । इस प्रकार से इस मूलाचार के प्रतिपाद्य विषय को बताकर इस ग्रन्थ में आई कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है ।
मूलाचार ग्रन्थ
यह मूलाचार ग्रन्थ एक है । इसके टीकाकार दो हैं - १. श्री वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य और २. श्री मेघचन्द्राचार्य ।
श्री वसुनन्दि आचार्य पहले हुए हैं या श्री मेघचन्द्राचार्य यह अभी भी विवादास्पद है । श्री वसुनन्दि आचार्य ने संस्कृत में 'आचारवृत्ति' नाम से इस मूलाचार पर टीका रची है और श्री मेघचन्द्राचार्य ने 'मुनिजनचिन्तामणि' नाम से कन्नड़ भाषा में टीका रची है ।
श्री वसुनन्दि आचार्य ने ग्रन्थकर्ता का नाम प्रारम्भ में श्री 'वट्टकेराचार्य' दिया है। जबकि मेघचन्द्राचार्य ने श्री ' कुन्दकुन्दाचार्य' कहा है ।
आद्योपान्त दोनों ग्रन्थ पढ़ लेने से यह स्पष्ट है कि यह मूलाचार एक ही है । एक ही आचार्य की कृति है, न कि दो हैं या दो आचार्यों की रचनाएँ हैं । गाथाएँ सभी ज्यों की त्यों हैं । हाँ इतना अवश्य है कि वसुनन्दि आचार्य की टीका में गाथाओं की संख्या बारह सौ बावन (१२५२) है जबकि मेघचन्द्राचार्य की टीका में यह संख्या चौदह सौ तीन ( १४०३) है ।
श्री वसुनन्दि आचार्य अपनी टीका की भूमिका में कहते हैं
"श्रुतस्कंधाधारभूतमष्टादश- पदसहस्रपरिमाणं, मूलगुण- प्रत्याख्यान संस्तरस्तवाराधना-समयाचार-पंचाचार-पिण्डशुद्धि षडावश्यक द्वादशानुप्रेक्षानगार-भावनासमयसार-शीलगुणप्रस्तार-पर्याप्त्याद्यधिकार-निबद्ध - महार्थगम्भीरलक्षणसिद्ध-पद
१. अनगार धर्मामृत, अध्याय ८, पृ. ६०५ ।
१८ / मूलाचार
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