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अष्टापद आदि तृण भक्षी और मांस-भक्षी वन्य पशु आ जाते थे। इनमें सिंह अधिक पराक्रमी होने से इनका राजा माना जाता था, इसी कारण से आज भी मृगपति कहलाता है, और अपना आधिपत्य जमाए हुए है, परन्तु मृग शब्द का वास्तविक अर्थ आज संस्कृत शब्द कोष लेखक भी भूल चुके हैं। मृग शब्द को आज केवल हरिण तथा कहीं-कहीं "याचक" के अर्थ का प्रति पादक बताते हैं।
(३)-"असुर"शब्द वेद-काल में प्राणवान् शक्ति का प्रति पादक था, परन्तु आज वह पौराणिक दैत्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
(४)-"प्रवीण' यह शब्द पहले प्रकृष्ट वीणा वादक के अर्थ में प्रयुक्त होता था, परन्तु आज इसमें अपना मूल अर्थ तिरोहित कर दिया है, और वह चतुर अथवा दक्ष के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
(५)-"उदार"२ शब्द प्रारम्भ में इसारे से चलने वाले बैल अथवा घोड़े के अर्थ में प्रयुक्त होता था, परन्तु आज इसका मूल अर्थ बदल गया और वह इच्छा से अधिक देने वाले वदान्य पुरुष के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
टिप्पणी १-"प्रकृष्टो वीणावां प्रवीणो गान्धः अत्र हि अस्य मुख्या वृत्तिः । स एष स्वमर्थमुसृज्यैव गान्धर्वमभ्यासपाटवमत्रं सामान्यमाश्रित्यसर्व त्रैवाभिप्रवृत्तः यो हि यस्मिन् कृतयत्न: उत्पन्न कौशलोभवति रा तत्रोच्यते प्रवीण इति तद् यथा “प्रवीगो व्याकरगो" "प्रवीणो निमाले' इति
"यास्क निरूक्त भाष्ये' टिप्पणी २---"उदार', इति प्रागार सन्निपाताद् व्याहृतिमात्रेगोल-बाक्-संकेतेनैवसारथे यो वहत्यश्वाऽनङ्वान् वा स उद्गतारत्वात् उदारः । तत्र हि समञ्जसा वृत्तिरस्य शदस्य । स एष उत्सज्यैव स्वमर्थमाकूतानुविधायित्वमात्रमेव सामान्यमाश्रित्य प्रवृत्तः योहि कश्चित् करमै चिदाकृतं लयित्वा प्रागेव प्रार्थनात् ददाति म उदार इत्युच्यते ।
'यस शिरूत प्राप्ये'
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