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श्ररसं विरसं वावि, सूइयं वा अमूइयं । उल्लं वा जइ वा सुक, मंथु कुम्मास भोअणं ॥८॥ उप्पएणं नाइ हि लिज्जा, अप्पं वा वहु फासुयं । मुहा लद्धं मुहाजीवी, भुजिज्जा, दोस वज्जिअं ॥८६॥
अर्थः-अपने स्थान पर जिसके भोजन करते हुए श्रमण के 'उस भिक्षा भोजन में से अस्थि ( फल की गुठली ) काँटा, तिनके का छिलका, शर्करा ( रेनी) अथवा इमी प्रकार का अन्य कोई कूड़ा फकट किल्ले ता उस पानी से धोकर कान्त में रख दें और स्वाद हीन, अथवा अनिष्ट स्वादवाला, शुचि ( ताजा ) अशुचि ( बासी ) गीला अथवा सूखा मन्थु ( वैर का चूरण-सत्तू ) कुल्माष भोजन ( उद आदि का भोजन ) मिलने पर उसकी निन्दा न करे, चाहे वह प्रमाण में थोड़ा ही हो, परन्तु जो प्रासुक और अनायास मिला है, उस मुधालब्ध आहार को मुधाजीवी ( किसी का भार रूप न बनकर अपना जीवन निर्वाह करने वाला) साध अपने भोजन के काम में ले ।
भिक्षा में ग्राह्य द्रव्य जैन श्रमण गृहस्थों के यहाँ स्वाभाविक रूप से बने हुए सादे निरामिष खाद्य पदार्थों को अपने योग्य होने पर गृह स्वामी अथवा
गृहस्वामिनी के हाथ से ले लेते हैं । इस स्वाभाविक भिक्षान्न में भी जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ट ऐसे तीन विभाग किये जाते थे । जघन्य भिक्षान्न में रूखे सूखे द्रव्य होते थे, जो
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