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इस विषय में जैमिनि कहते हैं
श्राद्धान्न यस्य कुक्षी तु, मूहुर्गमपि वर्तते । भिक्षोश्चत्वारि नश्यन्ति, आयुः प्रज्ञा यशो बलम् ।।
अर्थ-जिस भिक्षु के पेट में मुहूर्तभर भी श्राद्धान्न रहता है, उस मितु के आयुष्य, बुद्धि, यश और बल का नाश होता है। इस विषय में वृहस्पति का मन्तव्य निनोक्त प्रकार से है।
श्रवणं मननं ध्यानं, ज्ञानं स्वाध्याय एव च । सद्यो निष्फलतां याति, सकृच्छाद्धान्न भोजनात् ।।
अर्थ-संन्यासी के श्रवण, मनन, ध्यान, ज्ञान, स्वाध्याय सब एकवार भी श्राद्धान्न भोजन से तत्काल निष्फल हो जाते हैं।
संन्यासी को एकान्न भक्षण नहीं करना चाहिए । इस विषय में वृहस्पति कहते हैं---
चरन्माधुकरी वृत्ति, यतिम्लेंच्छकुलादपि । एकान्नं तु न भुञ्जीत, बृहस्पतिसमादपि । अर्थ-यति माधुकरी वृत्ति से नीच कुल से भी भिक्षान्न प्राप्त कर ले परन्तु बृहस्पति के समान उच्च कुल से भी एकान्न ग्रहण नहीं करे।
संन्यासी का भोजन प्रकार संन्यासी के भोजन परिमाण के सम्बन्ध में यमस्मृतिकार कहते हैं
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