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( ४०० ) यो प्राणमतिपातेति, मुसावादं च भासति । लोके दिन आदीयंति परदारं च गच्छति ||१२|| सुरामेरयपानं च यो नरो, अनुयुञ्जति । sasa मेसो लोकस्मि, मूलं खणति अत्तनो || १३|| ( धम्मपद पृ० ३८ ) अर्थ- जो प्राणियों को प्राणमुक्त करता है, झूठ बोलता है, लोकों में अदत्त ( परचीज ) उठाता है, पर स्त्री गमन करता है, और जो पुरुष मदिरा मैरेय नामक मादक पदार्थ पीता है, वह इसी लोक में अपनी जड़ को खोदता है ।
न तेन रियो होति येन पापानि हिंसति । अहिंसा सम्बपणानं, अरियोति पवृच्चति ॥
( धम्मपद पृ० ४१ ) अर्थ-जिस कार्य के करने से पर प्राणों की हिंसा होती है, उस कार्य के करने से कोई आर्य नहीं बनता, सर्व प्राणों का अि सक ही आर्य नाम से पुकारा जाता है ।
निधाय दण्डं भूतेसु, यो न इन्ति न धातेति
तसेसु घावरेसु च ।
तमहं व मि ब्राह्मणम् ॥
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( सुत्त निपात पृ० ५८ )
अर्थ-स और स्थावर को मारने की मानसिक, वाचिक, कायिक, प्रवृत्तियों को छोड कर न स्वयं प्राणिघात करता है न दूसरों से करवाता है मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ ।
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